सीरियाई कवि निज़ार क़ब्बानी ( 21 मार्च 1923 - 30 अप्रेल 1998 ) की बहुत - सी कविताओं के मेरे द्वारा किए गए अनुवाद आप यहाँ 'कर्मनाशा' पर और 'कबाड़खा़ना' 'अनुनाद' तथा 'सबद' पर एकाधिक बार पढ़ चुके हैं। उनकी कुछ कवितायें अखबारों के रविवासरीय परिशिष्ट में भी छपी हैं। अनुवाद का यह क्रम जारी है। मुझे खुशी है कि मेरे द्वारा किए गए / किए जा रहे अनुवाद-कर्म को कविता प्रेमियों ने स्वीकार किया है और मान दिया है।
कुछ समय पहले 'पक्षधर' ( संपादक : विनोद तिवारी ) पत्रिका के अंक ( वर्ष -०४ / अंक -०९ ) में मेरे द्वारा अनूदित निज़ार कब्बानी की दस प्रेम कवितायें प्रकाशित हुई है। संपादक के प्रति आभार सहित हिन्दी की पढ़ने - पढ़ाने वाली बिरादरी और विश्व कविता प्रेमियों के साथ इस सूचना को शेयर करना मैं जरूरी समझता हूँ। समय हो , और किसी कारणवश न देख सके हों तो 'पक्षधर' के इस अंक पर निगाह डाली जा सकती है। लीजिए आज प्रस्तुत है यह कविता:
निज़ार क़ब्बानी की कविता :
अपने पाठकों के लिए दो शब्द (अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)
मैंने सितारों से भर ली हैं अपनी जेबें
और सूरज के ठिकाने पर बना लिया है मुकाम
मेरी बालकनी में आकर विलाप करता है सूर्यास्त
मिन्नतें करता है कि साथ खेलूँ और बतियाऊँ उसके साथ।
मैं एक ऐसा जलयान हूँ
जो यात्रा के पश्चात भी नहीं लेता विराम
एक ऐसा अभाव हूँ जिसे नहीं चाहिए कोई सलाह
अबाबीलों के झुंड हैं मेरी चिठ्ठियाँ
जिन्होंने काले आवरण से ढँक दिया है खुला आसमान।
मैंने इस सीमा तक
भरी है कल्पनाओं की उड़ान
कि सुगन्ध को देखे जाने के लायक बना दिया है
और प्रतिध्वनि को सूँघे जाने के योग्य।
मेरी लाल शिराओं में
एक स्त्री निवास करती है
वह घूमती है मेरे चोगे की तहों में
मेरी हड्डियों में सिसकारियाँ भरती है
और धीमी चोट करती है
ताकि मेरे फेफड़ों को एक ब्रेसियर में बदल सके।
मुझसे ही प्रकट होता है तुम्हारा सौन्दर्य
कुछ नहीं हो तुम मेरे बिना
मेरे बिना तुम कुछ हो ही नहीं सकते।
मेरे बिना खिल नहीं सकता है कोई गुलाब
और मेरे बिना उभर नहीं सकता है कोई उभार।
ओ मेरे पाठक ! मेरी यात्रा के सहचर!
मैं होंठ हूँ और तुम उनसे ध्वनित होने वाली अनुगूँज
मेरी विनती है कि तुम्हें मेरे पत्र मिलें
अगर आने वाले किसी कल
तो मधुर और कोमल बनना उनके प्रति
क्योंकि जब तुम करोगे उनका साक्षात्कार
तो तुम्हें भी महसूस होगी उनके द्वारा झेली गईं यातनायें।
नहीं मरता वह
नहीं मरता
जिसने वक्त रहते किया हो प्रेम।
नहीं मरता वह
नहीं मरता
जिसने चिड़ियों की तरह गाया हो गीत।
5 टिप्पणियां:
नहीं मरता वह
नहीं मरता
जिसने वक्त रहते किया हो प्रेम।
नहीं मरता वह
नहीं मरता
जिसने चिड़ियों की तरह गाया हो गीत।
सुन्दर अनुवाद!
आप बहुत बड़ा उपकार हिन्दी पाठकों पर कर रहे हैं!
प्रेम भी करेंगे और चिड़िया की तरह गीत भी गायेंगे।
सार्थक प्रस्तुति, बधाईयाँ !
पत्रो की सुगन्ध और उन्के पुराने होने का पीलापन,electronic media ने छीन लिया है
---ये शिकायत पेह्ली बार इस ब्लोग पोस्ट मे दूर हुई /
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क्सिने ,किस्को, कब, कहा, किस्लिये कोई पाती प्रेम भरी लिखी...
और कोन ,कब, कहा, कैसे, किस्को वो पाती की प्रतीलिपी पहुचा दे ,,
क्या कहा जा सक्ता है ...........................
बस यही की बहुत हुनर्मन्द डाकिया ही ऐसा कर सक्ता है /
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