सोमवार, 30 अप्रैल 2012

मुझे सूर्य की ओर लौट चलने के लिए न कहो

आज देर शाम को रायपुर से  फोन के मार्फत सूचना मिली कि आज की 'नई दुनिया' के रविवारीय  पन्ने पर मेरा एक अनुवाद छपा  हुआ है ; निज़ार क़ब्बानी की एक  छोटी - सी कविता का अनुवाद। अब यह अख़बार हमारी तरफ़ मिलता नहीं । पता नहीं कब देखने को मिले। अच्छा लगा कि एक कविता प्रेमी की हैसियत से  जो कुछ अनुवाद कार्य मैं  चुपचाप कर रहा हूँ वह पत्र - पत्रिकाओं के माध्यम से धीरे  - धीरे कविता प्रेमियों - पाठकों तक पहुँच  पा रहा है। लीजिए , इसी क्रम में आज एक बार फिर  सीरियाई कवि निज़ार क़ब्बानी  ( 21 मार्च 1923 - 30 अप्रेल 1998)  की एक  और कविता का  यह अनुवाद...



निज़ार क़ब्बानी की कविता
वर्षा उत्सव
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

किसी एक ठाँव ठिकाना नहीं मेरा
अप्रत्याशित है मेरा हाल मुकाम
एक पागल मछली की मानिन्द दूर तलक की है मेरी यात्रा
मेरे रक्त में ज्वाल है
चिंगारियाँ हैं मेरी आँखों में।

अन्वेषण कर रहा हूँ समीरण की स्वतंत्रता का
वश में कर लिया है अपने भीतर के घुमंतुओं को
दौड़ रहा हूँ हरिताभ मेघों के पीछे
अपनी आँखों से पी रहा हूँ हजारों छवियों को
अग्रसर हूँ यात्रा के अंतिम पड़ाव तक की यात्रा पर।

जलयात्रा पर हूँ एक दूसरे अंतरिक्ष की ओर
उठ रहा हूँ गर्द - गुबार से
भूल रहा हूँ अपना नाम
भूल रहा हूँ वनस्पतियों की संज्ञा
वृक्षों का इतिहास
उड़ान भर रहा हूँ सूर्य से
वहाँ की ऊब थकाने लगी है अब
भाग रहा हूँ नगरों- बस्तियों से
शताब्दियाँ बीत गईं  सोया नहीं
चंद्रमा के पदतल में।

अपने पीछे छोड़ रहा हूँ
कँचीली आँखे
पथरीला आकाश
अपना पैतृक वास -  स्थान
मुझे सूर्य की ओर लौट चलने के लिए न कहो
क्योंकि अब मैं सम्बद्ध हूँ बारिश के उत्सव संग।
--
(* चित्र : एलेना रोमानोवा की पेंटिंग -  रेड अम्ब्रेला)

रविवार, 22 अप्रैल 2012

मित्रवत बनो रात के साथ : रस्किन बांड की कवितायें

एक  खूबसूरत दिन जब मेरी पतंग ने भरी उड़ान
तभी आई तेज हवा
और  मेरे हाथों में रह गई सिर्फ डोर

आज प्रस्तुत हैं रस्किन बांड की कवितायें। वे मसूरी में रहते हैं। अंग्रेजी भाषा के बड़े लेखक हैं। भारत और दुनिया की साहित्यिक बिरादरी के बीच वे एक प्रतिष्ठित कथाकार के रूप में जाने जाते हैं। पेंगुइन इंडिया से छपी अपनी कविताओं की किताब  'द बुक ऒफ़ वर्स'  में  रस्किन स्वयं स्वीकार करते हैं कि कविता उनका पहला प्यार है और वे अपने आसपास के संसार को एक कवि की निगाह से देखते हैं , अक्सर कवितायें लिखते हैं ; कभी - कभार तो गद्य के बीच भी। रस्किन बांड की कविताओं की दुनिया में प्रेम, प्रकृति, बचपन, हास्य, यात्रा और वह लोक है जिसमें वह रहते हैं, जो उनकी कथाभूमि है और जिसमें उनके पात्र  अपने तरीके से  अपना जीवन जीते हैं। आज प्रस्तुत हैं मूल अंग्रेजी से अनूदित  उनकी दो कवितायें :


रस्किन बांड की कवितायें
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

 ०१- दो सितारों का प्यार

प्रेम में पड़ गए दो सितारे
उनके बीच में अवस्थित हो गया मुक्ताकाश
दस चंद्रमा और एक जोड़ा सूर्य
परिक्रमा करने लगे आसपास।

उनसे पूर्व वहाँ विराजती थी
जगमग तारक खचित राह
रात्रि की काली नीरव निस्तब्धता
और दिवस का उज्जवल उछाह।

बीत गए करोड़ों वर्ष
दिपदिपाते रहे प्रेमी युगल संग - संग
प्रस्फुटित होती रही प्रेमज्वाल
और युगों तक चलता रहा प्रेमिल प्रसंग।

किन्तु हो गया एक तारा अधीर
और बुझ गया सहसा एक रात
अपने पीछे प्रवाहित करता
रोशनी का सतत तप्त प्रपात।

वह बढ़ा अपने प्रियतम की ओर
मन में भरे भय हर्ष
किन्तु हो सका अभिसार
चला गया दूर हजारों प्रकाश वर्ष।

०२- अंधेरे से मत डरो

अंधेरे से मत डरो प्यारे
रात्रि को भी चाहिए होता है विश्राम
जब चुक जाते हैं
दिवस के काम सारे।

सूर्य हो सकता उत्तप्त
किन्तु चाँदनी होती सदा सुशीतल
और वो तारक दल
चमकते रहेंगे सदैव प्रतिपल।

मित्रवत बनो रात के साथ
डरने की कोई नहीं है बात
यात्रारत होने दो अपने विचार
ताकि वे पहुँच जायें सथियों के साथ।

पूरा दिन , हाँ, दिन पूरा
होता है कठिनाइयों से क्लान्त
कितु रात को , देर रात गए
अखिल विश्व हो जाता है शान्त।

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

सन्नाटों की तहों के पार : गीता गैरोला की कवितायें

तुम्हारे खेत में आडू का पेड़
लक-दक भर जाये बैजनी फूलों से
और गाँव के ऊपर वाला जंगल
बुरांस के फूलों से जलने लगे
तुम मुझे याद करना...

खेतों की मुडेरों पर
खिलने लगे फ्योली के नन्हें फूल
जिंदगी के हर रंग में
तुम मुझे याद करना...

आज प्रस्तुत हैं गीता गैरोला की कवितायें। गीता जी देहरादून में रहती हैं। स्त्रियों के बीच , उनके साथ रहकर काम करती हैं। स्त्री अधिकारों और उनकी बेहतरी के लिए सतत कार्यरत राष्ट्रीय संस्था 'महिला समाख्या' के उत्तराखंड युनिट की  वह राज्य निदेशक हैं। ..और इससे अलग व महत्वपूर्ण यह है कि  वह उन लोगों में से एक हैं , जो खूब पढ़ते है , कम लिखते हैं तथा  जिनके पास साहित्य तथा समाज को देखने समझने की साफ दृष्टि  मौजूद होती है। आइए, इन कविताओं के संग - साथ चलते हैं हम भी ...


गीता गैरोला की कवितायें

०१- संयोगिता

संयोगिता
ये तेरे गालों के नीले निशान
बाहों पे खूनी लकीरें
किसने बनाई?

ये कल की बात है
धूम से गूँजी थी शहनाई
फलसई रंग के लहगें पर
ओढ़ी थी तूने सुनहरे गोटे वाली ओढ़नी
तेरे गदबदे हाथों पर
महकी थी मेंहदी मह -मह
प्रीत की लहक से
भर गई थी कोख
गर्वीली आँखों से सहलाती थी
जिन्दगी का ओर छोर।

कुछ तो दरक गया है कहीं
ये किस माया की छाया है संयोगिता
जो तू डोल रही है
बसेरे की खोज में
लिए तपता तन -मन
पीत की लहक मेंहदी की महक
कहाँ हिरा गई ?

तू इतना जान से संयोगिता
ठस्से से जीने को
जरूरी है एक दुश्मन।

०२- बुरी औरत

बोलती है
पूरा मांगती है आधा मिलने पर
उसकी आँखों से
झांकता है विरोध
अन्याय का अर्थ समझती है,
मार खाती रोती
जुबान चलाती है।

इच्छाओं आकाक्षाओं से भरी
घर की चाहर दीवारी की
शिकायत कर
बाहर झांकती है बुरी औरत।

०३- ढ़लते निश्चय

रोज होते हैं निश्चय
सुबह से ही शुरू हो जायेंगे छूटे काम
सुबह से दिन
दिन से शाम
शाम रात में ढ़लती है।

रात होते ही, घबराता है मन,
आज भी नहीं हुआ काम पूरा
कल जरूर होंगे शुरू

हमेशा होते हैं
ऐसे ही निश्चय।

०४- छोटे से घर में

जमीन पर बिछे बिस्तर में
बिखरी किताबों के बीच
कभी हंसते कभी नाराज होते
भोर के धुँधलके में
चहल कदमी करते
ताजे अखबार को
पहले पढ़ने के लिए झपटते।

तुम अपनी सैर के किस्से सुनाते
मैं जिद करती
कविताओं को सुनाने की
तुम्हारा ऊब कर जम्हाना
और मेरा चिढ़ जाना
दिन भर की नोक झोंक के साथ
सांझ का अकेलापन बांटते
सहलाते
स्पर्शो की छुअन से
मन की गहराई तक भीगते
हम दोनों।

०५- कहां छिपा है बसंत

नंगे दरख्तों की रगों में
कांच की परतों से ढ़के
नम पत्तों के नीचे
कहां छिपा है बंसत

सन्नाटों की तहों के पार
भूरे तिलस्मी जाल में
कहां छिपा है बसंत

घुघुती की नशीली टेर में
जो चीर देती है हवा का सीना
कहां छिपा है बसंत

सांसों की बूंदें कुरेदती हैं
मिट्टी का ओर-छोर
कहां छिपा है बंसत

धरती के दन्द-फन्दों के बीच
वक्त की नोक पर
कहां छिपा है बंसत

शब्दों के नाद में
नजरों के पंखों पर
कहां छिपा है बंसत ।
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* पेंटिंग : स्वप्ना सुरेश काले / साभार गूगल।

गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

आधा हम आधा न जाने कौन

* I wheeled with the stars,
   my heart broke loose on the wind....  - Pablo Neruda

* ह रात है
  सचमुच रात
  नीरव निस्तब्धता में
  स्वयं से मुलाकात....

* क्सर देर रात तक जगना हो जाता है लिखत - पढ़त के सिलसिले में।दिन भर की भाग - दौड़ के बाद लगता है कि  रात  अपने साथ  है। उसका होना महसूस होता है। इसे यदि यों कहा जाय कि रात महसूस होती है; दिखती कम है , तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।  बार - बार लगता है कि खुले आसमान और चाँद- सितारों के दृश्य - जीवंत सानिध्य - साहचर्य के बिना रात का होना रात के के अनुभूति ( भर) है शायद। कमरे में कृत्रिम प्रकाश , कृत्रिम सुख सुविधाओं के साजोसामान के बीच रात के निसर्ग को बस अनुभव ही किया जा सकता है उसके होने का चाक्षुष साक्षात्कार प्राय:  दुर्लभ ही होता है। कल रात सोने से पहले कुछ लिखा था कविता जैसा उसे ही अब इस वक्त सबके साथ साझा कर रहा हूँ ....

रात

यह रात है
कुछ विगत
कुछ आगत
यह रात है
साँझ की स्मृति
सुबह का सहज स्वागत

यह रात है
कुछ क्ल्मष
कुछ उजास
यह रात है
राग विराग मिलन वनवास

यह रात है
कुछ नहीं बस रात
यह रात है
खुद से खुद की कोई बात

यह रात है
आधी बात आधा मौन
यह रात है
आधा हम
आधा न जाने कौन !
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(चित्र : कैथरीन बील्स की  पेंटिंग)

रविवार, 8 अप्रैल 2012

वन्या बुलबुल गाए जा रही है फिर फिर

आज शनिवार की यह रात ; माना कि तकनीकी तौर पर अब इतवार शुरू हो गया है लेकिन रात तो शनिवार की  ही है - सो आज की रात कुछ (और) देर तक जगा जा सकता है (और कल सुबह देर तक सोया जा सकता है !) यही सोच समझ कर  आज  कुछ हल्का फुल्का पढ़ा गया , टीवी पर पर एक पुरानी (हालांकि उतनी पुरानी भी नहीं !) फिल्म 'प्रेम गीत' का  बच्चों के साथ  दर्शन  किया गया , कुछ गाने सुने गए जिनमें से एक गाना 'जोगिया दे कन्ना विच कांच दिया मुंदरा ..मुंदरां दे विच्चों तेरा मूं दिसदा.. ' बड़ी देर तक  आसपास छाया रहा  , डोलता रहा और अब  जबकि रात गहरा गई है , सोने से पहले तुर्की कवि अहमेत हासिम (१८८४ - १९३३) की दो कवितायें जिनका अभी कुछ ही देर पहले अनुवाद पूरा किया है, को  कविता  प्रेमियों के साथ साझा करने का मन है। आइए.. इन्हें  देखते पढ़ते हैं । तो  प्रस्तुत हैं ये  दो कवितायें :



दो कवितायें : अहमेत हासिम 
( अनुवाद: सिद्धेश्वर सिंह )

सरोवर

बहुत गहरी
बहुत घनीभूत हो गई है रात्रि
मेरे प्रियतम ने मुस्कान बिखराई है
अपनी ऊँची अटारी से
मेरा प्रियतम जो दिन के उजाले में आ न सका
अभी प्रकट हुआ है रात में
सरोवर तट पर।

चाँदनी कमरबंद बन गई है
आकाश घूँघट
और उसकी हथेलियों पर
उदित हो रहे हैं अनगिन सितारे।

अंधकार

प्रेम की इस अंधरात्रि में
वन्या बुलबुल
गाए जा रही है फिर फिर
क्या लैला ने बिसार दिया मजनू को ?

मैं सोच रहा हूँ
क्या फिर छिड़ेगा राग बिछोड़ा
क्या फिर फिर बजेगी
प्रेम दीवानी बुलबुल की करुण टेक।
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( चित्र :  पीटर अलेक्जेंडर की की पेंटिंग )

बुधवार, 4 अप्रैल 2012

भाषा की काया से इतर और अन्य

हर साल की तरह इस साल  भी  माह अप्रेल लगभग क्रूर महीने की तरह ही आया है और उम्मीद यही दिखती है  कि वह मई (और शायद जून को भी ) अपनी तरह का ही बना लेगा , अपने ही रंग में रंग लेगा। मार्च के दूसरे पखवाड़े से लेकर अब तक खूब यात्रायें हुई हैं पहाड़ों की। नौकरी की जिम्मेदारियों के साथ घूमना फिरना और लिखत - पढ़त भी खूब हुई है। यात्रा पर जाने से पहले तय - सा है कि लैपटाप साथ नहीं होगा। होंगें कामधाम के कागज पत्तर , कविता की एक - दो किताबें और मोबाइल  के स्मति पटल पर कुछ  पुराना पसंदीदा - कुछ नया गीत संगीत। कुछ कवितायें भी इस बीच बनी हैं। हाँ , उन्हें बनना ही कहा जाएगा। परसों जब शाम को खेतों की तरफ से घूम - टहल कर लौट रहा था तब कुछ - कुछ बना था कविता जैसा। कल भी वह दिन भर संग - संग डोलता रहा। कल रात सोने से पहले एक मित्र से निर्मल वर्मा  के उपन्यास 'वे दिन' पर चैट करते हुए 'दूसरी दुनिया' और आभासी दुनिया पर  अच्छी  बतकही हुई थी। भीतर - बाहर कई दिनों से जो कविता जैसा कुछ घुमड़ रहा था वह आज साँझ को वह प्रकट  - सा हुआ है कागज - कंप्यूटर पर कविता की शक्ल में। आइए , इसे साझा करते हैं...

फेसबुक स्माइली (ज)


एक दीवार है अदृश्य
दीवारों  को ढहाने के उपक्रम में
खड़ी करती हुई  एक और दीवार।
इसकी छाया में देह हो जाती है विदेह
शरीर हो जाता है अशरीर
बाधक नहीं बनता दिक्काल
सतत आवाजाही की जा सकती है
इस पार से उस पार आरपार।

भाषा की काया से इतर और अन्य
कुछ चिप्पियाँ है गोलाकार
जिनमें वास करते हैं हर्ष - विषाद
और उभचुभ करता है
तरह - तरह का मन:संसार
एक क्रीड़ा है
जिससे उपजता है जादू
एक क्रम है
जिससे टूटता है व्यतिक्रम
एक भ्रम है
जिसमें जारी है यथार्थ का करोबार।

इस गोलाकार पृथ्वी
और गोल दीखते आकाश के तले
एक दीवार है
जिस चिपकीं कुछ चिप्पियाँ है गोलाकार
दीवार जो  है अदृश्य
दीवार जो  है दृश्यमान
यह एक दीवार - जिस पर छिपती उघड़ती  है
भीतर की खुशी बाहर का हाहाकार।

हम मनुज
हम देह
हम मन
हम दीवार !
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