गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

स्वप्न , यथार्थ और कविता का गेंदा फूल

'शीतल वाणी'  पत्रिका का उदय प्रकाश पर केन्द्रित विशेष अंक किसी तरह डाक की सेवा में घूमता - भटकता -अटकता हुआ मिल (ही) गया। मँझोली मोटाई के सफेद धागे से बँधा लिफाफा बुरी तरह फटा हुआ था । बस किसी तरह इस नाचीज का नाम व पता बचा रह गया था। अभी इसे उलट - पुलट कर देख सका हूँ। ठीकठाक तरीके से  पढ़ा जाना बाकी है  बेटे अंचल को इसका आवरण इतना अच्छा लगा कि उसने मेरे मोबाइल से इसकी फोटो उतार ली। वह आवरण चित्र  साझा है।  पहली नजर में यह अंक विशिष्ट लग  रहा है....बधाई 'शीतल वाणी' की पूरी टीम को। इस विशिष्ट अंक में एक साधारण - सी बात यह है इसमे मेरा एक लेख प्रकाशित हुआ है। इसे भी सबके साथ साझा करते हैं...


स्वप्न , यथार्थ और कविता का गेंदा फूल
                                                  सिद्धेश्वर सिंह

गेंदे के एक फूल में
कितने फूल होते हैं

यह 'तिब्बत' कविता का एक अंश है। इसी कविता पर उदय प्रकाश को १९८१ का भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्त हुआ था। इस कविता पर केदारनाथ सिंह का निर्णायक मत है - 'तिब्बत कविता में एक खास किस्म की नवीनता है। हमारे समय की वास्तविकता का जो पहलू इस कविता में उभरा है, वह पहले कभी नहीं पाया गया। कलात्मक प्रौढ़ता और ताजगी के अतिरिक्त इसमें एक खास तरह का अनुशासन भी है। राजनीतिक विषय पर राजनीतिक ढंग से अभिव्यक्ति का कौशल उदय प्रकाश की विशेषता है। इस कविता में तिब्बत का बार - बर दोहराना मंत्र जैसा प्रभाव पैदा करता है।' इस कविता ने उदय प्रकाश को कीर्ति और यश दिया और वे आज हिन्दी कविता के उर्वर प्रदेश में सर्वाधिक चर्चित - प्रतिष्ठित कवि हैं और निरन्तर नया रच रहे हैं जिससे हमरे समय व समाज की तस्वीर विविधवर्णी छवियों के साथ  विद्यमान हो रही है। यह सवाल अक्सर उठता है कि उदय प्रकाश कवि के रूप में बड़े हैं अथवा एक कथाकार के रूप में उनकी विशिष्ट जगह है। उदय प्रकाश  स्वयं को कवि मानते हैं , मूलत: कवि। उनका मानना है कि ' कविता की सत्ता तमाम बाहरी सत्ताओं का विरोध करती है। वह बहुत गहरे और प्राचीन अर्थों में नैतिक होती है।' यहाँ पर एक बार फिर 'तिब्बत' कविता के आखिरे हिस्से के याद करते हैं जो कविता की सार्वदेशिकता और सर्वकालिकता पर  सवाल करती है , संशय की ओर संकेत करती है -

क्या लामा
हमारी तरह ही
रोते हैं पापा ?

कविता का कम सवाल खड़े करना है, हर किस्म का सवाल हर किस्म का संशय और यह सब कुछ जिस माध्यम में घटित होता है वह भाषा है। भाषा मनुष्य जगत के  विकास की समसे जीवंत निशानदेही है। उसी में सबकुछ घटित होता है और उसी में सबकुछ खत्म। उसी में कुछ बचता है और उसी में भविष्य की निर्मिति होती है। हमरा होना भाषा में है और हममे ही विद्यमान रहती है भाषा। कवि का काम भाषा के भीतर उतर कर एक ऐसे संसार का निर्माण करना होता है जो हमें अपनी - सी तो लगे ही दूसरों की बात भी उसमें ध्वनित हो साथ दिक्कल में वह स्थायी होने के जादू का निर्माण करे और जादू जादुई भी लगे और वास्तविक यथार्थ भी। आज की कविता को इस नजरिए से देखने पर कवि उदय प्रकाश के  महत्व बोध होता है और उनका यह कहना सही लगता है कि 'लेखक भाषा का अदिवासी है।' साहित्य अकादेमी द्वारा ‘मोहन दास’ को दिये गये पुरस्कार को स्वीकार करते हुए  उन्होम्ने कहा था - 'आज इतने वर्षों के बाद भी मुझे लगता है कि मैं इस भाषा, जो कि हिंदी है, के भीतर, रहते-लिखते हुए, वही काम अब भी निरंतर कर रहा हूं। जब कि जिन्हें इस काम को भाषेतर या व्यावहारिक सामाजिक धरातल पर संगठित और सामूहिक तरीके से करना था, उसे उन्होंने तज दिया है। इसके लिए दोषी किसी को ठहराना सही नहीं होगा। वह समूची सभ्यता का आकस्मिक स्तब्धकारी बदलाव था। मनुष्यता के प्रति प्रतिज्ञाओं से विचलन की यह परिघटना संभवतः पूंजी और तकनीक की ताकत से  अनुचर बना डाली गई सभ्यता का छल था। मुझे ऐसा लगता है कि इतिहास में कई-कई बार ऐसा हुआ है कि सबसे आखीर में, जब सारा शोर, नाट्य और प्रपंच अपना अर्थ और अपनी विश्वसनीयता खो देता है, तब हमेशा इस सबसे दूर खड़ा, अपने निर्वासन, दंड, अवमानना और असुरक्षा में घिरा वह अकेला कोई लेखक ही होता है, जो करुणा, नैतिकता और न्याय के पक्ष में किसी एकालाप या स्वगत में बोलता रहता है या कागज़ पर कुछ लिखता रहता है।'

इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि किसी नदी या नक्षत्र
पवन या पहाड़  पेड़ या पखेरू  पीर या फ़कीर की
भाषा क्या है ?

एक पाठक की हैसियत से बार - बार सोचना पड़ता है कि उदय प्रकाश की कविताओं में ऐसा क्या है जो उन्हें हमारे समय का एक जरूरी कवि बनाता है।वह ऐसा क्या कहते हैं वे अपने शब्दों के माध्यम से कि  रोजाना देखी , सुनी, समझी और बरती जा रही चीजें नए तरीके से दिखाई देते हैं या नए तरीके से देखे जाने की माँग करने लगती हैं। उनकी कविताओं में वही दुनिया है जो हमारे आसपास की दुनिया है। इस बात को इस तरह से भी कहा जा सकता है कवि के शब्दों से रचा गया संसार कोई दूसरा संसार नहीं होता बल्कि कवि की दुनियावी आँख चीजों के होने व न होने को इस दुनिया के बाहर और परे भी देख लेने में सक्षम होती है। यही एक प्रकार से कविता की सार्वदेशिकता और सार्वकालिकता है। उदय प्रकाश के शुरूआती संग्रह 'अबूतर कबूतर'  में अपेक्षाकृत छॊटे कलेवर की कवितायें है जिनमें बहुत कम शब्दों में एक विचार प्रकट होता है और सीधे - सीधे अपनी बात रखता है उदाहरण के लिए 'डाकिया' , 'वसंत' , 'पिंजड़ा' , ,'दिल्ली' जैसी कविताओं में विचार की इकहरी सरणि है जो  बहुत कम शब्दों में कहने की पूर्णता को प्राप्त करती है। इस प्रसंग में 'तिब्बत' के महत्व पर बात करने का मन इसलिए हो आता है कि यह कविता शब्दों की मितव्ययिता का बहुत अच्छा उदाहरंअ है।कविता के केन्द्र में 'तिब्बत' है जो  किसी स्थान का बोध कराने की बजाय एक विचार या स्वप्न का बोध कराता है। यह एक ऐसा विचार या स्वप्न है जो जो भाषा में व्यक्त करने बाद भी कुछ न कुछ छूट जाता है संभवत: इसी बात को ध्यान में रखकर कवि एक बच्चे के प्रश्न के माध्यम से तिब्बत के प्रश्न को प्रश्न की तरह ही उपस्थित करता है -

क्या लामा
हमारी तरह ही
रोते हैं
पापा ?

दुनिया में सब जगह एक तरह का ही रोना है और एक तरह का ही हँसना। मानवीय सोच और उसका प्रकटीकरण सब जगह एक जैसा ही है। यह अलग बात है कि दुनिया में ढेर सारी अलग - अलग भाषायें है , अलग - अलग भूगोल में बोली जाने वाली और अलग - अलग पारिस्थितिकी निर्मित तथा निरन्तर निर्माणशील फिर भी विचार , स्वप्न और यथार्थ सब जगह एक जैसा ही है।एक बड़े कवि की पहचान यह है कि वह समय और स्थान के सीमान्त में भी रहे और  उसका अतिक्रमण भी करे। इस बिन्दु पर सबसे बड़ी सावधानी यह होती है ऐसा करते हुए  कविता इतनी 'लोकल' न हो जाय कि दूसरे भूगोल में वह अपरिचित  व अन्य या इतर लगे और न ही इतनी 'ग्लोबल' हो जाय कि किसी भी किस्म की स्थानिकता या स्थानिक पहचान से निरपेक्ष होकर किसी दूसरी ही दुनिया की चीज लगने लगे। यहाँ पर एक बार फिर 'तिब्बत' को याद किया जा सकता है। पहली दृष्टि में या ऊपरी तौर पर इस कविता में 'तिब्बत' एक भूगोल की तरह उपस्थित होता है, एक ऐसा भूगोल जो एक ही समय में  इतिहास में भी है और उसके बाहर भी लेकिन गैसे - जैसे हम हम कविता के भीतर उतरते जाते हैं वैसे - वैसे  'तिब्बत' एक आंकाक्षा , एक स्वप्न के रूप में रूपायित होता जाता है। यह धिइरे - धीरे एक ऐसे स्वप्न का रूप धारण कर लेता है जो इतिह्गास और भूगोल की सीमाओं में बाहर जाकर मनुष्य मात्र की स्मृति ,आकांक्षा, स्वतंत्रता और स्वप्न का प्रतीक बन जाता है। इस कविता में आया गेंदे का फूल बहुत गहरी अर्थवता रखता है। वह एक साथ स्वप्न और यथार्थ दोनो लोकों में विद्यमान रहता है और आकाक्षा की असीमितता और अनंतता को प्रकट करते हे कहता है -

गेंदे के एक फूल में
कितने फूल होते हैं
पापा ?

हम समय के जिस हिस्से में रहते हैं  वहाँ चीजें इकहरी नहीं हैं, सब एक दूसरे में गुंफित और एक दूसरे को बनाती - बिगाड़ती हुई।जिस तरह गेंदे के एक फूल में बहुत सारे फूल होते हैं उसी तरह उदय प्रकाश की कविता में कई कवितायें दिखाई देती हैं। जब वह 'वसंत' की बात कर रहे होते हैं तब वह केवल वसंत नहीं होता। इसी तरह 'दिल्ली' केवल दिल्ली नहीं होती और न ही 'कुतुबमीनार' केवल कुतुबमीनार।'तिब्बत' के संदर्भ में भी निस्संकोच यही कहा जा सकता है कि तिब्बत केवल तिब्बत  नहीं है। कलेवर  में एक छोटी - सी लगने वाली यह कविता सचमुच बहुत बड़ी कविता है। यह आज से तीस - बत्तीस साल पहले जब आई थी तब दुनिया इतनी 'छोटी'  नहीं थी। दुनिया को देखने के नजरिए भी इतने छोटे नहीं थे।आज की तरह सब कुछ तात्कालिकता की त्वरा से से तय नहीं होता था और सबसे बड़ी बात यह कि प्रयत्न , प्रयास , प्रतिरोध और परिवर्तन जैसे शब्दों के प्रति  'पवित्रता' का भाव तिरोहित  में कहीं न कहीं संकोच व झिझक बची हुई थी। आज के संसार पर बात करते हुए उदय प्रकाश कहते हैं - ' लेकिन आज के समय में, धरती का कोई छोर, कोई कोना, कोई जंगल, कोई पहाड़ तक ऐसा निरापद नहीं रहने दिया गया हैं, जिसमें सत्ता और उपभोग, वैभव और लोभ से निस्संग कोई नागरिक कहीं रह-बस सके. आज के मामूली मनुष्य का हर ठिकाना, हर मकान, हर घर आज उजाड़ दिए जाने के कगार पर हैं. उस पर चौतरफा हमले हैं.' सवाल उठता है कि मानवता पर लगातार हो रहे इस चौतरफा हमले वाले देश - काल में साहित्य या कविता की क्या भूमिका है? क्या वह  शरण्य है, क्या वह लेखक का घर है , क्या भाषा की चारदीवारी में सिमटी एक 'दूसरी' दुनिया है? उदय प्रकाश की कविताओं को पढ़ते हुए  बार - बार लगता है कि उनकी कवितायें मनुष्य के अस्तित्व के सचमुच होने की  वकालत करती हैं और इस रास्ते में निरन्तर बढ़ते जा रहे संकटों की ओर इशारा करती हैं।उनका यह इशारा बहुत  'लाउड' नहीं है और न ही इतना मद्धिम भी कि शोर और सन्नाटे में अपनी उपस्थिति दर्ज न करा सके मसलन  'एक भाषा हुआ करती है' कविता की में वह  जब वह नाना प्रकार के प्रसंगों और संदर्भों के जरिए हमारे समकाल का एक विशद चित्रण प्रस्तुत करते हैं तब बार - बार भाषा की  ओर लौटते हैं , उसके होने को रेखांकित करते हैं और भाषा की स्थानिक चौहद्दी से बाहर जाकर वैश्विक हो जाते हैं -

एक भाषा हुआ करती है
जिसमें जितनी बार मैं लिखना चाहता हूं `आंसू´ से मिलता जुलता कोई शब्द
हर बार बहने लगती है रक्त की धार

उदय प्रकाश की कवितायें वे कवितायें हैं जो हिन्दी कविता  के प्रदेश को और उर्वर बनाती हैं।इस भूमि की उर्वरा को बनाने - बचाने - बढ़ाने की दिशा में  सार्थक हस्तक्षेप करती हैं।साथ ही कविता को नितान्त निजता , विचार के इकहरेपन और अस्थिर उपस्थिति से मुक्ति का उदाहरण भी  प्रस्तुत करती हैं। वे बहुत साफगोई से किन्तु भाषा की  गूढ़ - गझिन कताई - बुनाई से  स्वयं तो दूर रहती ही हैं और अपने पाठक के मन:संसार को भी सीमित और तात्कालिक  होने की सरलता  से मुक्त करती हैं।जिस तरह 'तिब्बत'  कविता में लामा मंत्र नहीं पढ़ते , फुसफुसाते हैं - तिब्बत..तिब्बत वैसे ही उदय प्रकाश की कवितायें हमारे मन के कोने आँतरों में  फुसफुसाती हैं कविता ..कविता और हमें अपने समय तथा समाज के स्वप्न  व यथार्थ को देखने - समझने की एक  खिड़की खुलती दिखाई देने लगती देती है।
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'शीतल वाणी': संपादक:  डॉ वीरेन्द्र आजम सम्पादक शीतल वाणी , 2C / 755 पत्रकार लेन प्रद्युमन नगर मल्हीपुर रोड सहारनपुर 247001 (u p ) मोबाइल नंबर 09412131404/इस अंक का मूल्य : 100 रुपये

सोमवार, 10 दिसंबर 2012

अपनी जमीन का अँधेरा और रोशनी का आसमान

लगभग हर लिखने - पढ़ने वाले  व्यक्ति के  लिए  में डाक में पत्र - पत्रिकाओं का गुम जाना एक दुखदायी प्रसंग है।विचार और संस्कृति का मासिक 'समयांतर' के अक्टूबर 2012 अंक में जगदीश  चन्द्र रचनावली की मेरे द्वारा लिखी गई समीक्षा प्रकाशित हुई थी किन्तु वह अंक अब तक नहीं पहुँचा है।लेखकीय प्रति जरूर मेरे लिए भेजी गई होगी किन्तु उसका पाठक कोई और हो गया (होगा)। बहरहाल , यह अंक किसी अन्य स्रोत से आ ही गया है। आज साझा है वह समीक्षा :


अपनी जमीन का अँधेरा और रोशनी का आसमान

* सिद्धेश्वर सिंह

जगदीश चन्द्र रचनावली ( चार खण्ड) : संपादक - विनोद शाही; आधार प्रकाशन; पृ.:  2451    ; मूल्य : रू. : 4000 / ISBN : 978-81-7675-315-9

हिन्दी कथा साहित्य में दलित चेतना के उपन्यासों 'धरती धन न अपना' , 'नरककुण्ड में बास' और 'जमीन तो अपनी थी'  की ट्रिलोजी के जरिए अत्यधिक  ख्याति अर्जित करने वाले रचनाकार जगदीश चन्द्र की रचनावली प्रकाशित होकर हिन्दी की दुनिया में आई है जो यह बताती है कि  हमारे समय  के इस बड़े रचनाकार की दुनिया कितनी बड़ी है और संसार के जिस हिस्से को वह अपनी कथाभूमि बनाता है वह इसी संसार  के हम सब वासियों के लिए एक तरह की 'वो दुनिया' नहीं बल्कि वह दुनिया है जो  यह बताती है कि मनुष्य और उसकी संवेदना सब जगह एक समान,  एक जैसी ही है। यहाँ  सब कुछ सहज और साझा है  बस जरूरत इतनी है कोई उसे हमारे समक्ष  इस तरह प्रस्तुत कर दे कि वह  अपनी - सी लगने लग जाय। हिन्दी के पाठकीय संसार में  कथालेखक जगदीश चन्द्र की उपन्यास त्रयी को आदर , सम्मान और विपुल पाठकवर्ग इसलिए मिला कि  हिन्दी की पाठक  बिरादरी के एक बहुत बड़े हिस्से ने उन रचनाओं  के जरिए अपनी पाठकीय समझ को विकसित  किया है जो इस महादेश की  अपनी जमीन से जुड़ी हुई रचनायें है और किसी खास कथाकृति में खास लोकेल होने के बावजूद  यह बताने में सहज ही सक्षम रही हैं कि मनुष्य की संवेदना  का जो भी इतिहास व भूगोल होता है वह अंतत: सार्वकालिक - सार्वजनीन नागरिकशास्त्र में  में ही विकसित होता है। हम  जब कई लेखकों की कई रचनायें पढ़ते हैं तो चमत्कृत होते हैं कि जैसा एक जगह है लगभग वैसा ही दूसरी जगह विद्यमान है। यह एक चमत्कार होता है ; कागज पर शब्दों की ताकत से रचा गया ऐसा  चमत्कार जो जितना साधारण होता है उसकी विशिष्टता उतनी ही बड़ी और विलक्षण लगती है। जगदीश चन्द्र की रचनाओं , खासतौर पर उनकी त्रयी के बारे में बात करते हुए  यह बात बार - बार और पूरी स्पष्टता के साथ कही जा सकती है कि प्रेमचंद के  'गोदान' , रेणु के  ' मैला आँचल' , भीष्म साहनी के 'मय्यादास की माड़ी' , राही मासूम रज़ा के 'आधा गाँव', श्रीलाल शुक्ल के 'राग दरबारी'  और विवेकी राय के ' सोना माटी' जैसे उपन्यासों की निरन्तरता में ही नहीं बल्कि  गुरदयाल सिंह के 'मढ़ी दा दीवा' ,  राजेन्द्र सिंह बेदी के 'एक चादर मैली सी' और कृष्णा सोबती के 'जिन्दगीनामा' तथा मुल्कराज आनंद  के 'अनटचेबल' और 'अक्रास द बलैक वाटर्स' के साथ मिलकर  मनुष्य के राग विराग और  उत्थान पतन की गाथा को  को देखने , परखने और समय पड़ने उस समय के माध्यम से अपने समय को देखने की दृष्टि हासिल करने के क्रम में जगदीश चन्द्र का कथा सहित्य वास्तव में  बड़े काम की बड़ी चीज है।

रचनावलियों की उपयोगिता इसी अर्थ में अधिक रेखांकित करने योग्य होती है कि वह समग्रता को समेटकर कर  सहज व सुलभ व संग्रहणीय बनाती है। इस रचनावली के ढाई हजार पृष्ठों में फैली सामग्री जगदीश चंद्र के लेखन की  दुनिया के विस्तार को एक ही जगह पर एकत्र कर प्रस्तुत करती है। यह इस बात को भी बताती है कि 'त्रयी' के आगे पीछे भी ऐसा बहुत कुछ है जिसे देखा और दिखाया जाना चाहिए। यह सच है कि हर बड़े लेखक को बड़ा बनाने वाली उसकी सारी  रचनायें नहीं होतीं। संख्या व परिमाण में कुछ ही रचनायें होती हैं जो किसी लेखक के बड़ेपन को आधार देती हैं लेकिन इसके साथ ही ऐसा भी होता है कि 'बड़ी' रचनाओं के बाद आने वाली रचनायें प्राय:  एक तरह की  बड़ी छाया का शिकार भी हो जाती हैं । यह किसी लेखक की कमजोरी या कमी नहीं होती ; हाँ, उस पर 'और बड़ा' रचने का दबाव जरूर होता है लेकिन पाठकीय संसार में स्थिरता व पिछली रचना के आलोक में नई रचना को देखे जाने की उम्मीद कहीं न कहीं, कभी न कभी बाधक जरूर बनती है। इसी संदर्भ में  यह बात भी कही जा सकती है कि प्रसिद्धि व ख्याति प्राप्त कर लेने के बाद  जहाँ एक ओर किसी रचनाकार का  पाठकवर्ग विस्तार को प्राप्त करता है वहीं दूसरी ओर ऐसा भी होता है उसका एक  'फेक' पाठकवर्ग( !) भी निर्मित हो जाता है जो साहित्येतर साहित्यिक कही जाने वाली  चर्चाओं और शोध व आलोचना की संकुचित तथा अतिरंजित दोनो तरह की स्थितियों को जन्म देता है । इससे ऊपरी तौर किसी रचनाकार को लाभ यह होता है कि व चर्चा - परिचर्चा - अध्ययन- अध्यापन- शोध की दुनिया में मशहूरियत तो हासिल कर लेता है लेकिन वह चीज जो उसे समय व स्थान के पार दूर तक; कालजयिता को ले जाने वाली होती है ; कहीं न कहीं संभवत: पीछे गुम होकर रह जाती है। 

जगदीश चन्द्र रचनावली के पहले खंड में दलित चेतना की उपन्यास त्रयी है। यह कथानायक  काली की कथा तो है ही काली व उसके सर्जक जगदीश चन्द्र  के काल की कथा भी है। यह काली और उस जैसे तमाम पात्रों   के साथ काली को काली बनाए रखने के षडयंत्र में लगे तमाम पात्रों की कथा भी है। इसी में अपनी जमीन के खुरदरेपन में अंकुरित होते स्वप्न का स्वर्ग है और इसी में में गाँव , चमादड़ी , कस्बा और शहर के बीच की वह दुनिया भी है जिसमें अंत:  " काली को विश्वास हो  जाता है  कि 'ज्ञान उसके अधिकार से पूरी तरह से बाहर हो गया है और जहाँ अधिकार नहीं वहाँ सम्मान भी नहीं और ऐसे स्थान पर आदमी का जीवन कीड़े मकोड़े से भी नीच होता है।' हिन्दी कथा साहित्य में  बहुत से ऐसे चरित्र गढ़े गए हैं जिनका नामोल्लेख  एक तरह से किसी कथा संसार  का  लगभग पर्याय बन जाता है। निश्चित रूप से काली एक ऐसा ही जीवन्त  पात्र है जो गोदान के होरी की तरह  तो है ही वह एक तरह से होरी  को उस दुनिया में रूपायित करने वाला पात्र है जो 'गोदान'  का परवर्ती संसार है इसमें जहाँ एक ओर चमादड़ी है वहीं दूसरी ओर कस्बे की  कोठड़ी और शहर चमड़े के कारखाने कच्ची पक्की  खाल की निशानियाँ। यह एक ऐसा संसार है जो हिन्दी की पाठक बिरादरी को पंजाब की कथाभूमि से परिचित  तो कराता है किन्तु किसी काल विशेष व आंचलिकता के दायरे में  आबद्ध न होकर मनुष्यता की दुर्दम्य  जिजीविषा का  अविस्मरणीय दस्तावेज बन जाता है।

रचनावली के दूसरे खंड में चार उपन्यास हैं जिनमें 'कभी न छोड़ें खेत' ,'मुठ्ठी भर कांकर' ,'घास गोदाम' और अधूरा उपन्यास  'शताब्दियों का दर्द'  सम्मलित है। ये तीनो उपन्यास भी एक तरह से उनकी त्रयी के विस्तार ही हैं। इनमें भी  उसी भूगोल का इतिहास और समाज है जिसके लिए जगदीश चन्द्र  हिन्दी कथा साहित्य के इतिहास में जाने जाते हैं और जाने जाते रहेंगे। तीसरे खंड को संपादक ने युद्ध और शान्ति के उपन्यासों का खंड कहा है। इसमें  तीन उपन्यास 'आधा पुल' , 'टुण्डा लाट' और 'लाट की वापसी' संकलित हैं। पहली दृष्टि में  इन्हें फौजी जिन्दगी के उपन्यास कहे जा सकते हैं क्योंकि इनमें  सैनिक - अफसर हैं। युद्ध के मोर्चे की रोमांचक स्थितियाँ हैं । आमने - सामने अपनी और दुश्मन की फौजें हैं । 'युद्ध में जान की बाजी  लगाकर अपने साहस और शौर्य का परिचय देते नौजवान हैं और फिर अपंग होकर लौटते हुए सैनिकों का जीवन है और समाज के दूसरे मोर्चों पर एक और तरह की जद्दोजहद में कूद पड़ना भी  है।' फिर  भी समग्रता में यह कैप्टन इलावत और कैप्टन सुनील कपूर की निजी कथा न होकर मनुष्य और मनुष्यता के जंग की अविराम कथा है। रचनावली  का  चौथा और अंतिम खंड विविधतापूर्ण रचनाओं का संकलन है। इसमें जगदीश चन्द्र का पहला उपन्यास 'यादों के पहाड़' और एकमात्र कहानी संग्रह 'पहली रपट' का महत्व इसलिए अधिक है कि पहले उपन्यास के माध्यम से लेखक की रचनाशीलता के उत्तरोत्तर विकास  को देखा जा सकता है और कुळ पन्द्रह  कहानियों के माध्यम के कथ्य व कथाभूमि के वैविध्य के साथ इनमें उनके उपन्यासों के बीज और अंकुर भी तलाशे जा सकते हैं। चौथे खंड में  ही 'आपरेशन ब्लू स्टार' जैसा उपन्यास है जो उपन्यासऔर रिपोर्ताज  का रिमिक्स है। यह  कथाकार जगदीश चन्द्र और रिपोर्टर जे० सी० वैद्य की  एक तरह से साझी कृति है जो गहन शोध और फील्ड रिपोर्टिंग के उपरान्त  लिखी गई है। यह हमारे समकालीन इतिहास को कुरेदने वाली एक ऐसी रचना है जिसका पुनर्पाठ और मूल्यांकन निश्चित रूप से एक  बहुत बड़ी आवश्यकता है और इसे आगे बढ़ाया जाना चाहिए। इस खंड के आरंभ में प्रकाशित संपादक  विनोद शाही  की भूमिका 'राजनीतिक चेतना वाली रचनाशीलता का मतलब'  के हवाले से पता चलता है कि जगदीश चन्द्र पंजाब के आतंकवाद   के सांस्कृतिक इतिहास पर एक उपन्यास 'शतब्दियों का दर्द' लिख रहे थे जो उनके निधन के कारण पूरा न हो सका। अच्छा होता कि रचनावली में  उसको, अपूर्णता में ही सही दिया जाना चाहिए था। इसी खंड में लेखक का एकमात्र अप्रकाशित नाटक  'नेता का जन्म' शामिल किया गया है जो एक प्रसिद्ध कथाकार के नाटककार रूप से परिचय कराता है। अपने कथानक की दृष्टि से तो वह मौजूं और प्रसंगिक तो है ही। चौथे खंड के परिशिष्ट के रूप में चित्रावली व जीवनी - संस्मरण भी है जिनसे हमारे समय के इस बड़े रचनाकार के जीवन की  विविध छवियों और उसकी सोच व रचनाप्रक्रिया का साक्षात्कार किया जा सकता है। 

आधार प्रकाशन की प्रस्तुति  जगदीश चन्द्र रचनावली का प्रकाशन  स्वागत योग्य है। इस संदर्भ में दोबारा यह भी स्मरण किया जाना चाहिए कि उपन्यासकार  जगदीश के रचनाकर्म के  मर्म को समझने के लिए चमन लाल  के संपादन में  'जगदीश चन्द्र : दलित जीवन के उपन्यासकार' शीर्षक  पुस्तक भी  2010  में आधार ने ही प्रकाशित की है  और अब  रचनावली  का प्रकाशन हिन्दी कथा साहित्य के उन पाठकों के लिए  महत्वपूर्ण है जो धरती से गहरे तक जुड़े  और आमजन की सोच -  समझ - संवेदना  को वाणी देने वाले इस  बड़े रचनाकार को समग्रता में पढ़ना- पहचानना चाहते हैं तथा परिवर्तित समय में नए पाठ के आकांक्षी है।  नए पाठ की बात यदि न भी हो तो  भी  पाठक के के लिए उसमे कभी न खत्म होने वाला कथा रस  और इस बात का प्रमाण कि कथा साहित्य को कैसा होना चाहिए ; यह तो है ही। साहित्य , समाज विज्ञान और समकालीन इतिहास के शोधार्थियों और अध्येताओं के लिए यह स्वातंत्रोत्तर समय , समाज और साहित्य को समझने - बूझने का जरूरी उपकरण तो  अवश्य ही है। साथ ही किसी को कथाकृति को लिखने के की जाने वाली गहन खोजबीन और उसके लोकेल तथा लोक से आत्मीय जुड़ाव की दृष्टि  का प्रकटीकरण भी यह रचनावली उपल्ब्ध कराती है। अंत में एक महत्वपूर्ण बात ,  और वह यह कि हिन्दी में जगदीश चन्द्र की जो लेखकीय छवि  निर्मित हुई  है उसे मजबूत करने के साथ यह बात भी इस रचनावली के माध्यम से पूरी शिद्दत के सामने आती है वह यह कि  त्रयी के अतिरिक्त भी उनका विपुल और विविधवर्णी रचना संसार है जो मूल्यांकन और नए पाठ की माँग करता है। रचवाली में प्रूफ़ की कुछ गलतियाँ रह गई हैं जिन्हें आगे अवश्य सुधारा जाना चाहिए औरआमजन की बात करने - कहने वाले लेखक की  रचनावली का  आम पाठक के लिए पेपरबैक संस्करण  उपल्ब्ध करवाने की जरूरत तो है ही।