रविवार, 10 अगस्त 2014

वे इसी ग्रह की निवासिनी थीं

आज राखी है ; रक्षाबंधन। त्यौहार का दिन , छुट्टी का दिन। फुरसत से अख़बार पढ़ने का दिन। रेडियो तो अब यहाँ  अपने भूगोल में साफ बजता नहीं ; टीवी पर बहन - भाई के  गीतों का दिन। पकवान  का दिन। बाकी दिनों से कुछ अलहदा - सा दिन। फोन के  अत्यधिक बिजी होने का दिन। खुश होने ( व किंचित / किवां उदास होने ) का दिन। होश संभलने से अब तक की साझी स्मृतियों के एकल आवर्तन- प्रत्यावर्तन का दिन। खैर, आज साझा कर रहा हूँ अपनी एक कविता जिसका शीर्षक है 'बहनें' । आइए, इसे देखें , पढ़ें.....


बहनें

सीढ़ियां चढ़ गईं वे 
सबको धकियाते हुए
एक बार में एकाधिक पैड़ियाँ फलांगते
जबकि हमें रखना पड़ा हर डग
संभल - संभल कर हर बार।
हमारी तुतलाहट छूटने से पहले ही
वे सीख गईं चिड़ियों से बोलना - बतियाना।
हम जब तक कि  बूझ पाते धागों का शास्त्र
तब तक  तमाम कटी पतंगों को चिढ़ातीं
उनकी पतंगे जा चुकी थीं व्योम के लगभग पार।

वे इसी ग्रह की निवासिनी थीं
हाँ इसी ग्रह की।

वे उतर आई सीढ़ियाँ दबे पाँव
हमने बरसों किया उनका इंतजार 
कि वे सहसा प्रकट होंगी
किसी कोठरी , किसी दुछत्ती या किसी पलंग के नीचे से
सबको चौकाती हुई।

वे इसी ग्रह की निवासिनी थीं
हाँ इसी ग्रह की।

यह लिखावट की कोई गलती नहीं है
न ही है किसी तरह का कोई टाइपिंग मिस्टेक
हर बार सायास लिखना चाहता हूँ गृह
हर बार हो जा रहा है ग्रह अनायास।

बताओ तो 
तुम किस ग्रह के निवासी हो कवि
किस ग्रह के?
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( चित्र :  शिडी ओकाये की कृति 'सिस्टर्स' / गूगल छवि से साभार)

सोमवार, 4 अगस्त 2014

अत्यल्प है यह आयु , यह देह, यह आँच

इस बीच  अपने इस  ब्लॉग पर निरन्तरता का निर्वाह करने में कुछ कठिनाई , कुछ , व्यस्तता, कुछ आलस्य और कुछ  बस यों ही - सा रहा। इस बीच पढ़ना तो बदस्तूर जारी रहा लेकिन लिखत का काम बहुत कम हुआ।आज एक कविता लिखी है ; उसे साझा करने का मन है। कोशिश रहेगी कि  अध्ययन और अभिव्यक्ति की साझेदारी का  क्रम भंग न हो  और न ही  कोई लम्बा विराम खिंच जाय। सो, आज साझा है ,बहुत दिनों बाद लिखी अपनी एक कविता......


अभी तो यह क्षण

किस टेक पर टिकी है पृथ्वी
क्या पता किस ओट पर उठँगा है आकाश
वह कौन -सी ताकत है पेड़ों के पास
कि वे शान से मुँह चिढ़ा जाते हैं गुरुत्वाकर्षण को ?

यह जरूरी नहीं कि सबको सब पता हो
सोचो, कौन चाहेगा
कि रह्स्यहीन हो जाए सारा कार्य व्यापार
और हम अनवरत देख पायें चीजों के आरपार
अगर उधड़ जाए हर बात का रेशा-रेशा
तो कैसे कहेगा कोई कि बात कुछ बन ही गई।

अभी तो , तुम हो बस तुम
मैं कहाँ हूँ क्या पता ; कौन जाने
अभी तो
एक बात है शब्दहीन
एक लय है तुममें होती हुई विलय
अभी तो
किसी दुनिया में
तुम हो
मैं हूँ
स्वप्न और यथार्थ के संधिस्थल पर थिर।

बहुत कम है एक समूचा जीवन
अत्यल्प है यह आयु , यह देह,  यह आँच
कितनी लघु है तुम्हारी केशराशि तले अलोप हुई वसुधा
हस्तामलक है तुम्हारी चितवन से सहमा व्योम
कुछ नही ; कुछ भी तो नही
अभी तो
अनन्त अशेष असमाप्य अनश्वर है बस यह क्षण।
.............


( चित्रकृति : साइमन रश्फील्ड की पेंटिंग 'लवर्स' / गूगल छवि से साभार)