शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

पेड़ की किसी शाख पर कौंधती बिजली की तरह जिंदगी


कल्पना पंत की कविताओं ने इधर बीच हिन्दी कविता के पाठकों प्रेमियों का ध्यान खींचा है। पत्र - पत्रिकाओं में उनकी कवितायें आई है और 'फेसबुक' पर वह अपनी कविताओं कविता पर गंभीर बातचीत में सक्रिय - सजग उपस्थिति दर्ज कराती रहती हैं उनकी तीन  कवितायें 'कर्मनाशा' की 'कवि साथी' सीरीज में आज प्रस्तुत की जा रही हैं।आप इन्हें देखें - पढ़ें - पढ़ायें।

कल्पना पंत  की  कवितायें

01- नदी बोलती है

नदी बोलती है
रुई के फाहों से
प्रवासी पक्षी
... उतरते हैं
शिवालिक पर
उँचे शिखरों पर
उदास
हैं वनस्पतियाँ
घिर आया है ठन्डे कोहरे का समुद्र
उड रहा है एकाकी पक्षी
अलकनंदा के
किनारे से
मैंने उठाई है मुट्ठी भर रेत
और बिखर गयी हूँ
शायद,
मैं ही क्रौंच हूँ
मैं ही व्याध
और मैं ही
आदिकवि

02 कोई अजनबी नहीं है

इन पगडंडियों से गुजरे हैं कई बार
कई रूप कई नाम
अपनी पहचान के साथ
कई बार सड्कों से गुजरते हुए
हर शहर बाशिंदों की पहचान  से जुड जाता है
और बाशिंदे जुड जाते हैं शहर की आत्मा के साथ
सुबह.  शाम,  रात.
गली.  सडक . चौराहे  पगडंडी
नुक्कड वाली पान की दुकान
से गुजरते हुए एक अबूझ पर्त में लिपटे हुए
जाने पहचाने चेहरे दिखते हैं.
अपने अंतस में समेटे हुए शहर की खुशबू को
मैं जहाँ से गुजरती हूँ
आँखें बंद कर मह्सूस करती हूँ
अपने भीतर के शहर को
वहाँ कोई आवरण नहीं है
शहर पूरा दॄश्य है
बचपन है, बचपन के साथी हैं
घर है
सब तो वही है
पर  आज उसी शहर में
सब कुछ अबूझ लगता है
मैं रुक रुककर लोगों को देखती हूँ
और उनमें अपनी पह्चान खोजती हूँ
पर सब में अजनबी चेहरे दिखते हैं
मैं  आँख मूँद लेती हूँ
और फिर भीतर के शहर को
महसूस करती हूँ
जहाँ मैं हूँ
मेरा बचपन
ठंडी हवा है
बाँज के पेडों से छनकर आती हुई
धूप पानी में झिलमिलाती हुई
मेरे साथ चलने लगती है हवा
पहाड बाहों में ले लेते हैं मुझे
अचानक गुजर गई मेरी मित्र लौट आती है
 कोई मुस्कुराता है
अपना ही परिचित चेहरा मुझे मिल  जाता है
और मैं जहाँ हूँ वहाँ से एकाकार हो जाती हूँ
हर शहर
मेरा शहर है
वहाँ की मिट्टी की
गन्ध समायी है मुझमें
और कोई अजनबी नहीं है.

03- अक्स

पेड़ की किसी शाख पर
कौंधती बिजली की तरह जिंदगी
आँधी के किसी झोंके में
डोलती फुनगी
जैसे काँप रही है।
कविता की ऊँचाई से
समुद्र की गहराई तक
जिसका अक्स था
उसने उस फुनगी को
झकझोर कर
कोमल पत्तों को
तोड़ दिया।
अब दर्पण में सिर्फ
नग्न शाख है
जिसमें अपना अक्स
दिखाई देता है।
यथार्थ, विकृत
बिम्बों के परे जिन्दगी
सच कितनी
मुश्किल है।
----------
* पेंटिंग : मारिया किटानो , साभार गूगल।


**  कल्पना पंत की कुछ और कवितायें हिन्दी ब्लॉग ठिकाने 'अनुनाद''उदाहरण' पर पढ़ी जा सकती हैं। उनका अपना ब्लॉग है  दृष्टि''उत्तरा' महिला पत्रिका के नए अंक में  उनकी तीन कवितायें पढ़ने को मिली हैं।)

शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

चीड़ के कोन पर लिक्खा तुम्हारा नाम


दैनिक भास्कर समूह की प्रस्तुति लोकप्रिय मासिक पत्रिका ' अहा जिन्दगी' के फरवरी २०१२ अंक में मेरे द्वारा अनूदित सीरियाई कवि निज़ार क़ब्बानी (१९२३ - १९९८ ) की ग्यारह कवितायें '...जैसे समुद्र से निकलती हैं जलपरियाँ' शीर्षक से प्रकाशित हुई हैं।पत्रिका के संपादक आलोक श्रीवास्तव और उनकी टीम के प्रति आभार सहित उनमें से एक कविता 'कर्मनाशा' के पाठकों व प्रेमियों के साथ  आज साझा कर रहा हूँ...

निज़ार क़ब्बानी की कविता

मेरी चाह से परे
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

मेरी चाह से परे
तुममें शेष नहीं है जीवन
मैं तुम्हारा समय हूँ
मेरी बाहों से परे
कुछ भी नहीं है तुम्हारे होने का अर्थ।

मैं तुम्हारे सारे आयामों का समुच्चय हूँ
मैं हूँ तुम्हारे कोण तुम्हारे वृत्त
तुम्हारे वक्र तुम्हारी रेखायें।

जबसे तुम प्रविष्ट हुईं
मेरे वक्षस्थल के वन प्रान्तर में
तबसे तुम्हारा प्रवेश हुआ आजादी के भीतर।
जिस दिन से तुमने मुझे बिसरा दिया
तुम क्रीतदासी हो गईं
एक कबीलाई सरदार के अधीन।

मैंने तुमको सिखलाई पेडों की नामावली
और रात व झींगुरों के बीच का संवाद
मैं तुम्हे पते दिए
सुदूर नीहारिकाओं में अवस्थित सितारों के।
मैंने वसंत की पाठशाला में तुम्हा दाखिला करवाया
और सिखाई चिड़ियों की बोली - बानी
नदियों की वर्णमाला।
मैने बारिश की अभ्यास पुस्तिकाओं में
बर्फ़ के कागज पर
चीड़ के कोन पर
लिक्खा तुम्हारा नाम।
मैंने तुम्हें सिखलाया
खरगोश और लोमड़ियों  के वार्तालाप का मर्म
और उतरती सर्दियों की भेड़ के बालों में कंघी करना।
मैंने तुम्हें दिखाए पक्षियों के अप्रकशित पत्र
मैंने तुम्हें दिया
हेमन्त और ग्रीष्म का मानचित्र
ताकि तुम जान सको
कि कैसे अंकुरित होता है गेहूँ
कैसे झाँकते हैं छोटे - छोटे चूजे
कैसे खुशियाँ मनाती हैं मछलियाँ
कैसे चंद्रमा के स्तनों से बाहर आता है दूध।

लेकिन तुम थक गईं आजादी अश्वारोहण से
इसलिए उसने उतार दिया तुम्हें
तुम क्लान्त हो गईं मेरे हृदय के जंगल में
रात और झींगुरों का संगीत तुम्हें सुहाया नहीं देर तक
तुम खीझ गईं
चाँद की चादर वाले बिस्तरे की निर्वसन नींद से।

इसलिए
इसीलिए
तुमने त्याग दिया जंगल
कबीलाई सरदार ने बलपूर्वक अपहरण कर लिया तुम्हारा
और तुम लील ली गईं भेड़िए द्वारा।