शनिवार, 29 अक्तूबर 2011

धूप के अक्षर

इस बीच पुराने कागज -पत्तर और फाइलों की छँटाई करने के क्रम में कई बार पुरानी डायरी और अपनी कई - कई पुरानी कविताओं से सुदीर्घ साक्षात्कार उपलब्ध हुआ है। यह एक तरह से पुराने दिनों के भीतर के तहखाने में उतरने की एक सीढ़ी की शक्ल में सामने आया है। तब की अपनी दुनिया और दुनिया के बारे में तब की अपनी सोच और उसकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति की निशानदेही की जाँच - परख का अपना ही आनंद है इस बहाने। इसमें कुछ कविताओं को साझा कर चुका हूँ। आज के दिन जिस कविता को साझा करना चाह रहा हूँ वह डायरी में 'मिट्टी का सूरज' शीर्षक से संग्रहीत है लेकिन वह 'पहल' पत्रिका के अंक - ३१ में 'प्रतीक्षा' शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। आइए इसे देखें - पढें...

(पेंटिंग The Sower: वॉन गॉग)
प्रतीक्षा

धूप के अक्षर
अँधेरी रात की काली स्लेट पर
आसानी से लिखे जा सकते हैं
कोई जरूरी नहीं कि तुम्हारे हाथों में
चन्द्रमा की चॉक हो।

इसके लिए मिट्टी ही काफी है
वही मिट्टी
जो तुम्हारे चेहरे पर चिपकी है
तुम्हारे कपड़ों पर धूल की शक्ल में जिन्दा है
तुम्हारी सुन्दर जिल्द वाली किताबों में
धीरे - धीरे भर रही है।

तुम सूरज के पुजारी हो न?
तो सुनो
यह मिट्टी यूँ ही जमने दो परत - दर पर॥

देख लेना
किसी दिन कोई सूरज
यहीं से ,बिल्कुल यहीं से
उगता हुआ दिखाई देगा
और मुझे तनिक भी आश्चर्य नहीं होगा।
---

बुधवार, 26 अक्तूबर 2011

चाहे जितना भी विस्तृत हो तिमिर लोक

किन उपकरणों का दीपक,
किसका जलता है तेल?
किसकि वर्त्ति, कौन करता
इसका ज्वाला से मेल ?
                     - महादेवी वर्मा

आज दीपावली है - दीप उत्सव, उजास का पर्व। अंधकार की सत्ता के विरुद्ध प्रकाश का संघर्ष। आज 'कर्मनाशा' के सभी पाठकों और प्रेमियों को बहुत - बहुत शुभकामनायें ! बीती रात सोने से पहले महादेवी  वर्मा और अज्ञेय की  कविताओं से गुजरते हुए बार - बार 'दीपक'  शब्द से रू-ब-रू होते हुए कुछ सोचा और कुछ यूँ ही लिखा - कविता जैसा। आइए आज इसे सबके साथ साझा करते हैं :

 चार शब्द दीप

०१-

कुछ है
जिससे  जन्म लेती है रोशनी
कोइ है
जो अपदस्थ करता है
अन्धकार के क्रूर तानाशाह को
कोई है
जो जलाता है अपना अस्तित्व

तब उदित होती है
रात के काले कैनवस पर एक उजली लकीर।

०२-

इस साधारण से शब्द का
पर्यायवाची नहीं है अंधकार
न ही
यह रंगमंच है किसी कुटिल क्रीड़ा का

रात का होना है प्रभात
और सतत जलता हुआ दीप।

०३-

चाहे जितनी भी बड़ी हो
अंधकार की काली स्लेट
चाहे जितना भी विस्तृत हो तिमिर लोक
भले आकाश की कक्षा में अनुस्थित हो चाँद

फिर भी
धुँधले न हों
उजाले के अक्षर
और ख्त्म न हो रोशनी की चॉक।

०४-

बनी रहे
उजास की अशेष आस
शेष न हो
स्वयं पर सहज विश्वास

आओ करें
रोशनी को राजतिलक
तम को भेज दें वनवास।
----


शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

साक्ष्य , विलोम और यूँ ही

पिछली पोस्ट में पुरानी डायरी से एक कविता सबके साथ साझा की गई थी। इसे ठीकठाक माना गया , आभार। उस डायरी में लगभग सभी शुरुआती कवितायें हैं जो विद्यार्थी जीवन  के दौरान लिखी गई थीं। आज जब इतने बरस बाद अक्सर उन अनगढ़ अभिव्यक्तियों से रू- ब- रू  होना होता है तब ( उस वक्त की ) अपनी तमाम तरह की ( गंभीर ) बेवकूफियों पर हँसी आती है और साथ ही  प्राय: स्मृतियों  के संग्रहालय की  टेढ़ी - मेढ़ी वीथिकाओं से गुजरते ऐसा भी लगता है कि वे भी क्या दिन थे !  अब तो ...बरबस याद आ जाते हैं रहीम - 
   
                                                 रहिमन अब वे बिरछ कहं,जिनकर छाँह गंभीर।
   बागन बिच - बिच देखिअत,  सेंहुँड़, कुंज करीर॥

स्मृति का अपना विलक्षण लोक है। अतीत की अपनी मायावी दुनिया है। वर्तमान की अपनी एक निरन्तरता है जो रोज नए - नए  रूप दिखाती है और नई चुनौतियाँ और नई उम्मीदें लेकर आती है फिर कहीं कुछ है जो 'ढूँढ़्ता है फिर वही फुरसत के रात दिन।' यह अच्छी तरह पता है  'तसव्वुरे जानां किए हुए' बैठे रहने से काम नहीं चलने वाला है फिर भी  पुरानी डायरी और उसमें दर्ज शुरुआती कविताओं के मार्फत  कभी - कभार व्यतीत में विचरण कर लेने में  कोई बुराई नहीं है शायद।  तो आइए , आज देखते - पढ़ते  साझा करते हैं ये तीन ( पुरानी ) कवितायें  :

स्मृति - त्रिवेणी :  तीन ( पुरानी ) कवितायें


०१- साक्ष्य

बर्फ़ अब भी गिरती है
और खालीपन भर - सा जाता है।
इस निर्जन शहर में
लोग ( शायद ) अब भी रहते हैं
क्योंकि -
पगडंडियों पर
पाँवों के इक्का - दुक्का निशान हैं
कहीं - कहीं खून के धब्बे
और एक अशब्द चीख भी।

०२- विलोम

मैं
इस गली के नुक्क्कड़ पर लगा
एक उदास लैम्प पोस्ट।
अब मैं रोशनी बाँटता नहीं
रोशनी पीता हूँ
और
बे - वजह ही
दिन को रात बनाने की
असफल कोशिश में लिप्त रहता हूँ।

०३- यूँ ही

तुम्हरी हँसी को मैं
हरसिंगार के फूलों की
अंतहीन बारिश नहीं कहूँगा
और यह भी नहीं कि
चाँदनी की प्यालियों से उफनकर
बहती हुई
मदिर - धार है तुम्हारी हँसी।
बल्कि यह कि  -
टाइपराइटर के खट - खट जैसी
कोई एक आवाज है तुम्हारी हँसी
जो मुझे फिलहाल अच्छी लग रही है।
-----


मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

धुन्ध की नर्म महीन चादर के आरपार

डायरी में क्या है ?
स्मृति
स्मृति में क्या ?

पीले उदास पड़ गए पन्नों  पर
अब भी 
एक उजली इबारत।

आज बहुत दिनों बाद ( कविताओं की )  पुरानी डायरी  से संवाद हुआ। शबो -रोज के  सतत जारी तमाशे के बीच से  चुपके से चुराया गया कुछ वक्त उसके साथ बिताया गया और  स्मृति सरोवर में स्नान कर ( एक बार ) फिर आज की अपनी दुनिया में सुरक्षित वापसी - परावर्तन। कभी  कभार लगता है कि स्मृति एक ऐसा खोह है जहाँ 'तुमुल कोलाहल कलह' से विलग होकर , बच कर कुछ देर आत्म संवाद  किया जा सकता है और 'हृदय की बात' तनिक सुनी जा सकती है। कभी - कभार यह भी लगता है कि यह सब कुछ  वास्तविकता से अस्थायी विस्थापन - विचलन का कोई  शरण्य तो नहीं  है शायद?  फिर भी स्मृति का अपना एक संसार है , एक अपनी दुनिया , इसी दुनिया में अवस्थित - उपस्थित एक 'दूसरी दुनिया'। फिर भी इसमे कोई शक - शुबहा  नहीं कि आज की अपनी निज की जो भी दुनिया है वह  कमोबेश उस स्मृति की दुनिया के मलबे पर ही अपनी नींव जमाए बैठी है।बहरहाल, पुरानी डायरी  से संवाद  के क्रम में आज यह  बहुत पुरानी कविता सबके साथ साझा करने का मन है।  आइए , इसे देखें- पढ़े :


ऐसा कोई आदमी

पेड़ अब भी
चुप रहने का संकेत करते होंगे।
चाँद अब भी
लड़ियाकाँटा की खिड़की से कूदकर
झील में आहिस्ता - आहिस्ता उतरता होगा।
ठंडी सड़क के ऊपर होस्टल की बत्तियाँ
अब भी काफी देर तक जलती होंगी।

लेकिन रात की आधी उम्र गुजर जाने के बाद                           
पाषाण देवी मंदिर से सटे
हनुमान मन्दिर में
शायद ही अब कोई आता होगा
और देर रात गए तक
चुपचाप बैठा सोचता होगा -
                  स्वयं के बारे में नहीं
                  किसी देवता के बारे में नहीं
                  मनुष्य और उसके होने के बारे में।

झील के गहरे पानी में
जब कोई बड़ी मछली  सहसा उछलती होगी
पुजारी एकाएक उठकर
कुछ खोजने - सा लगता होगा
तब शायद ही कोई चौंक  कर उठता होगा
और मद्धिम बारिश में भीगते हुए
कंधों पर ढेर सारा अदृश्य बोझ लादे
धुन्ध की नर्म महीन चादर को
चिन्दी- चिन्दी करता हुआ
मल्लीताल  की ओर लौटता होगा।

सोचता हूँ
ऐसा कोई आदमी
शायद ही अब तुम्हारे शहर में रहता होगा
और यह भी
कि तुम्हारा शहर
शायद ही अब भी वैसा ही दिखता होगा!
----


रविवार, 9 अक्तूबर 2011

समय में यात्रारत चाँद : टॉमस ट्रांसट्रोमर

टॉमस ट्रांसट्रोमर विश्व  के सर्वाधिक  प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित कवियों में से एक हैं। १९३१ में जन्मे  स्वीडन  के  इस ८० वर्षीय कवि  को २०११ के साहित्य के नोबेल  पुरस्कार से सम्मानित किए जाने की घोषणा हुई है।  उनकी कवितायें दुनिया भर की तमाम भाषाओं में अनूदित होती रही हैं।  आइए आज पढ़ते - देखते हैं उनकी कुछ  कवितायें :


टॉमस ट्रांसट्रोमर की कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

अप्रेल और चुप्पियाँ

बिसर गया है वसंत
गाढ़ी मखमली वंचनायें
रेंग रही हैं मेरी ओर
बिना किसी परावर्तन के।

अगर चमक रही हैं
कुछ चीजें
तो वे हैं बस पीताभ पुष्प।

अपने ही प्रतिबिंब में
ले लिया गया हूँ मैं
जैसे कोई  वायलिन बंद हो जाती है
अपने खोल के भीतर।

कोई एक बात
जिसे कहना चाहता हूँ मैं
वह यह कि  पहुँच से दूर है दीप्ति
जैसे रेहन की दुकान से
चमकते हैं चाँदी के जेवर ।

तीन हाइकू

खिला है वनपुष्प
फिसल रहे हैं तेल - टैंकर्स परे
और चाँद है पूर्ण।
*
मध्यकालीन दुर्ग
पराया शहर, अडोल सिंह - मानव
निचाट रंगभूमि।
 *
और प्रवाहमान है रात
पूरब से पच्छिम की ओर
समय में यात्रारत चाँद के साथ।
----
टॉमस ट्रांसट्रोमर की  कुछ कवितायें  'कबाड़ख़ाना' पर )

शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

बिन बुलाए आयेंगी चीटियाँ

इधर कुछ समय से ब्लॉग की दुनिया में आवाजाही बहुत कम हुई है। लिखने - पढ़ने के क्रम में भी व्यवधान हुआ है, फिर भी  कुछ न कुछ भीतर घुमड़ता ही रहता है । आज अपनी एक कविता 'बनता हुआ मकान' की याद हो आई है। इसे आज से पाँच - छह बरस पहले लिखा गया था। हिन्दी ब्लॉग की बनती हुई दुनिया के  पाठकों के साथ इसको साझा करने का मन है। आइए  देखते - पढ़ते है यह कविता :
  

बनता हुआ मकान
                           
यह एक बनता हुआ मकान है
मकान भी कहाँ
आधा अधूरा निर्माण
आधा अधूरा उजाड़
जैसे आधा - अधूरा प्यार
जैसे आधी अधूरी नफरत।

यह एक बनता हुआ मकान है
यहाँ सबकुछ प्रक्रिया में है- गतिशील गतिमान
दीवारें लगभग निर्वसन है
उन पर कपड़ॊं की तरह नहीं चढ़ा है पलस्तर
कच्चा - सा है फर्श
लगता है जमीन अभी पक रही है
इधर - उधर लिपटे नहीं हैं बिजली के तार
टेलीफोन - टीवी की केबिल भी कहीं नहीं दीखती।
अभी बस अभी पड़ने वाली है छत
जैसे अभी बस अभी होने वाला है कोई चमत्कार
जैसे अभी बस अभी
यहाँ उग आएगी कोई गृहस्थी
अपनी संपूर्ण सीमाओं और विस्तार के साथ
जिसमें साफ सुनाई देगी आलू छीलने की आवाज
बच्चॊं की हँसी और बड़ों की एक खामोश सिसकी भी।

अभी तो सबकुछ बन रहा है
शुरू कर कर दिए हैं मकड़ियों ने बुनने जाल
और घूम रही है एक मरगिल्ली छिपकली भी
धीरे - धीरे यहाँ आमद होगी चूहों की
बिन बुलाए आयेंगी चीटियाँ
और एक दिन जमकर दावत उड़ायेंगे तिलचट्टे।

आश्चर्य है जब तक आउँगा यहाँ
अपने दल बल छल प्रपंच के साथ
तब तक कितने - कितने बाशिन्दों का
घर बन चुका होगा यह बनता हुआ मकान।
---