सोमवार, 31 दिसंबर 2007

कर्मनाशाः एक अपवित्र नदी ?

"काले सांप का काटा आदमी बच सकता है,हलाहल जहर पीने वाले की मौत रुक सकती है ,किन्तु जिस पौधे को एक बार कर्मनाशा का पानी छू ले,वह फिर हरा नहीं हो सकता.कर्मनाशा के बारे में किनारे के लोगों में एक और विश्वास प्रचलित था कि यदि एक बार नदी बढ़ जाये तो बिना मानुस की बलि लिये नहीं लौटती."
"कर्मनाशा को प्राणों की बलि चहिये ,बिना प्राणों की बलि लिये बाढ नहीं उतरेगी....फिर उसी की बलि क्यों न दी जाय, जिसने यह पाप किया....परसाल न के बदले जान दी गई,पर कर्मनाशा दो बलि लेकर ही मानी....त्रिशंकु के पाप की लहरें किनारों पर संप की तरह फुफकार रही थीं."
हिन्दी के मशहूर कथाकार शिवप्रसाद सिंह की कहानी 'कर्मनाशा की हार' के ये दो अंश उस नदी के बारे में हैं जो लोक प्रचलित किंवदंतियों -आख्यानों में एक अपवित्र नदी मानी गई है क्योंकि वह कर्मों का नाश करती है.उसके जल के स्पर्श मात्र से हमारे सारे पुण्य विगलित हो जाते हैं.गंगा में स्नान करने से पुण्य लाभ होता है क्योंकि वह पतितपावनी -पापनाशिनी है,हमारे पापों को हर लेती है और इसके ठीक उलट का जलस्पर्श हमें पुण्यहीन कर देता है.ऐसा माना गया है. लेकिन विन्धयाचल के पहाड़ों से निकलने वाली यह छुटकी-सी नदी चकिया में सूफी संत बाबा सैय्यद अब्दुल लतीफ शाह बर्री की मजार पर मत्था टेकती हुई,मेरे गांव मिर्चा के बगल से बतियाती हुई, काफी दूर तक उत्तर प्रदेश और बिहार की सीमारेखा उकेरती हुई अंततः बक्सर के पास गंगा में समाहित हो जाती है.पुण्य और पाप की अलग - अलग धारायें मिलकर एकाकार हो जाती हैं. कबीर के शब्दों में कहें तो 'जल जलहिं समाना' की तरह आपस में अवगाहित-समाहित दो विपरीतार्थक संज्ञायें .
'कर्मनाशा की हार'कहानी इंटरमीडिएट के कोर्स में थी.हमारे हिन्दी के अध्यापक विजय नारायण पांडेय जी ने( जो एक उपन्यासकार भी थे.उनके लिखे 'दरिया के किनारे'को हम उस समय तक हिन्दी का एकमात्र साहित्यिक उपन्यास मानते थे क्योंकि हमने पढा ही वही था.)कहानी कला के तत्वों के आधार पर 'प्रस्तुत' कहानी की समीक्षा तथा इसके प्रमुख पात्र भैरों पांड़े का चरित्र चित्रण लिखवाते हुये मौखिक रूप से विस्तारपूर्वक कर्मनाशा की अपवित्रता की कथा सुनाई थी जिसमें कई बार त्रिशंकु का जिक्र आया था. इस कथा के कई 'अध्यायों' की पर्याप्त सामग्री पीढी दर पीढी चली आ रही परम्परा का अनिवार्य हिस्सा बनकर हमारे पास पहले से ही मौजूद थी क्योंकि कर्मनाशा हमारी अपनी नदी थी -हमारे पड़ोस की नदी. और मेरे लिये तो इसका महत्व इसलिये ज्यादा था कि यह मेरे गांव तथा ननिहाल के बीच की पांच कोस की दूरी को दो बराबर -बराबर हिस्सों में बांट देती थी.गर्मियों में जब इसमें पानी घुटने-घुटने हो जाया करता था तब उसके गॅदले जल में छपाक-छपाक करते हुये,पिता की डांट खाते हुये उस पार जाना पैदल यात्रा की थकावट को अलौकिक -अविस्मरणीय आनंद में अनूदित-परिवर्तित कर देता था. वर्ष के शेष महीनों में नाव चला करती थी.मल्लाह को उतराई देने के लिये अक्सर पिताजी मुझे दो चवन्नियां इस हिदायत के साथ पकड़ा दिया करते थे कि इन्हें पानी में नहीं डालना है.क्यों? पूछने की हिम्मत तो नहीं होती थी लेकिन बालमन में यह सवल तो उठता ही था कि जब हम गाजीपुर जाते वक्त् गंगाजी में सिक्के प्रवाहित करते हैं तो कर्मनाशा में क्यों नहीं? हां, एक सवाल यह भी कौंधता था कि गंगाजी की तर्ज पर कर्मनाशाजी कहने की कोशिश करने से डांट क्यों पड़ती है? इनमें से कुछ प्रश्नों के उत्तर उम्र बढ़ने के साथ स्वतः मिलते चले गये,कुछ के लिये दूसरों से मदद ली, कुछ के लिये किताबों में सिर खपाया और कुछ आज भी,अब भी अनसुलझे हैं-जीवन की तरह्. नीरज का एक शेर आद आ रहा है-
कोई कंघी न मिली जिससे सुलझ पाती वो,
जिन्दगी उलझी रही ब्रह्म के दर्शन की तरह्.
'वृहत हिन्दी कोश'(ज्ञानमंडल,वाराणसी)और 'हिन्दू धर्म कोश'(डा० राजबली पांडेय) के अनुसार सूर्यवंशी राजा त्रिंशंकु की कथा के साथ कर्मनाशा के उद्गम को जोड़ा गया है.राजा त्रिंशंकु को सत्यवादी हरिश्चन्द्र(भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा लिखित नाटक 'सत्य हरिश्चन्द्र' का नायक) का पिता बताया जाता है. 'तैत्तिरीय उपनिषद' में इसी नाम के एक ऋषि का उल्लेख भी मिलता है किन्तु वे दूसरे हैं.त्रिंशंकु दो ऋषियों -वसिष्ठ और विश्वामित्र की आपसी प्रतिद्वंदिता और द्वेष का शिकार होकर अधर में लटक गये. विश्वामित्र उन्हें सदेह स्वर्ग भेजना चाहते थे जबकि वसिष्ठ ने अपने मंत्र बल से उन्हें आकाशमार्ग में ही उल्टा लटका दिया,तबसे वे इसी दशा में लटके हुये पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे हैं.उनके मुंह जो लार-थूक आदि गिरा उसी से कर्मनाशा नदी उद्भूत हुई है.जहां बाकी नदियां या तो प्राकृतिक या दैवीय स्रोतों से अवतरित हुई हैं वहीं कर्मनाश का स्रोत मानवीय है संभवतः इसीलिये वह अस्पृश्य और अवांछित है,कर्मों का नाश करने वाली है. एक अन्य कथा में त्रिशंकु को तारा होना बताया गया है साथ ही कहीं-कहीं यह उल्लेख भी मिलता है कि इंद्र ने त्रिशंकु को स्वर्ग से धकेल दिया था.
खैर,कथा-पुराण-आख्यान-लोक विश्वास जो भी कहें इस सच्चाई को झुठलाने का कोई ठोस कारण नहीं है कि कर्मनाशा एक जीती जागती नदी का नाम है.इसके तट की बसासतों में भी वैसा ही जीवनराग-खटराग बजता रहा है,बजता रहेगा जैसा कि संसार की अन्य नदियों के तीर पर बसी मानव बस्तियों में होता आया है ,होता रहेगा. संभव है और इसका कोई प्रमाण भी नहीं है कि इतिहास के किसी कालखंड में सिंधु-सरस्वती-दजला फरात-नील जैसी कोई उन्नत सभ्यता इसके किनारे पनपी-पली हो ,हो सकता है कि इसने राजाओं-नरेशों, आततायिओं-आक्रमणकारियों के लाव-लश्कर न देखे हों,हो सकता है कि इसके तट पर बसे गांव-जवार के किसी गृहस्थ के घर की अंधेरी कोठरी में किसी महान आत्मा ने जन्म न लिया हो, न ही किसी महत्वपूर्ण निर्माण और विनाश की कोई महागाथा इसके जल और उसमें वास करने वाले जीवधारियों-वनस्पतियों की उपस्थिति से जुड़ी हो फिर भी क्या इतना भर न होने से ही इसे महत्वहीन,मूल्यहीन तथा अपवित्र मान लिया जाना चहिये?

बुधवार, 12 दिसंबर 2007

शुक्र है स्मृतियों पर नहीं जमी है बर्फ

सर्दियों में शहर
(एक दो दिन हुये जब से समाचारों में सुना-पढा-देखा है कि नैनीताल में मौसम का पहला हिमपात हुआ है तब से मन में कुछ्कुछ हो रहा है.वहां की ठंडक अपनी हथेलियों पर नहीं बल्कि ह्रिदय में मह्सूस कर रहा हूं.शायद लगभग पूरा शहर सफेदी की चादर में लिपट कर सो रहा होगा.वैसे कोई भी मौसम हो यह प्रायः शहर ऊंघता-अनमना सा ही रह्ता है. आज से कई बरस पहले सम्भवतः १९८६-८७ में ऐसी ही किसी ठन्डी रात के गुनगुने एकान्त संगीत के साथ यह कविता लिखी थी.पूरा तो याद नहीं लेकिन इतना जरूर याद है कि रात थी,कंपकंपा देने वाली सर्दी थी,बर्फ गिर रही थी और मैं कविता जैसा कुछ लिख रहा था.प्रस्तुत है वही ठन्ड वाली कविता.)

शहर में सर्दियों का मौसम है
हवा में नमी है

धूप में खुशनुमा उदासी है
अभी बस अभी बर्फ गिरने ही वाली है
और शहर चुपचाप सो रहा है।


सो रही है झील
सो रहे हैं पहाड़.
मेरा शहर जागती आंखों में सो रहा है.
शहर की आंखों में एक नींद है
जो जाग रही है
शहर की आंखों में एक सपना है
जो सो रहा है।


आजकल लगभग आधा शहर
हल्द्वानी की तरफ नीचे उतर गया है
बस बच गई है नींद
बच गये हैं सपने.

बच्चे घरों में कैद हैं
उनके स्कूल की युनिफार्म्
छत पर धूप में सूख रही है
और किताब-कापियों के बीच
छुट्टियों की बर्फ भर गई है
जो शायद फरवरी के बाद ही पिघलेगी।


औरतों का वक्त
अब चुप्पी को सुनते हुये गुजरता है
आश्चर्य है कि वे फिर भी जी रही हैं


मर्द लोगों के पास
बातें है,किस्सें है,किताबें हैं,शराब है
और वे अलाव की तरह सुलग रहे हैं

लड़कियां
अपनी कब्रगाहों में निश्शब्द दफ्न हैं
उनके पास देखने के लिये
ग्रीटिन्ग कार्डस और सपने हैं
उनके पास बोलने को बहुत कुछ है
लेकिन वे जाडों के बाद बोलेंगी।


सोने दो शहर को
वह लोरी और थपकियों के बिना भी
लम्बी-गहरी नींद सो सकता है
मेरा शहर कोई जिद्दी बच्चा नहीं है.

शनिवार, 8 दिसंबर 2007

शेष फिर : अभी बस इतना ही

नदी
चली जायेगी

यह कभी न ठहरेगी ।
रुकना तो बस खुद को पड़ता है
झुकना तो बस खुद को पड़ता है
इस दुनिया के जातें के पाटों के बीच
पिसना तो बस खुद को पड़ता है ।

नदी कहाँ सुनती है जग की बात
उसको बस चलना ही है दिन रात
जहाँ जिधर भी मिल जाये इक रह
उसको क्या है इस- उसकी परवाह ।

अपनी यह नदिया भी चलती जायेगी
मन की शायद कुछ बाधा आएगी !