शुक्रवार, 21 मार्च 2008

होली पर दस बदमाशियां :करें जरूर , अगले बरस का क्या ठिकाना


- रंगीन वस्त्र पहनें, दूसरों को सफ़ेद वस्त्र पहनने की सलाह दें और खुद भूल जाने का बहाना करें.
२-मोबाइल पास में न रक्खें. जरूरत महसूस हो तो दूसरों का इस्तेमाल कर लें.
३-बोलें कम चिल्लायें ज्यादा. दूसरों की न सुनें अपनी ही जोतें.
४-गायें , खूब गायें. सुर की परवाह न करें ,सुरा नामक औषधि सुर लगाने के लिये ही निर्मित की गई है.
५-खायें कम ,खिलायें ज्यादा.
६-पीयें कम पिलायें ज्यादा.
७.नहायें नहीं ,नहाये बन्दे को रंग लगायें.
८-अपना वाहन न निकालें ,दूसरे के साथ लद लें.
९-झंडू खां नहीं ,चंडू खां बनें.
१०-........................................
( खाली जगह में दसवीं बदमाशी खुद भर लें)

गुरुवार, 20 मार्च 2008

त्रिशूल,कंप्यूटर,ब्लाग,बच्चा और प्रश्नोत्तर

स्कूल की पढाई के दिनों में लगभग हम सभी ने 'विज्ञानः वरदान या अभिशाप' एवं 'विज्ञान के चमत्कार' जैसे विषयों पर निबंध अवश्य लिखा होगा।इसके प्रस्तावना,विषय-प्रवेश,लाभ-हानि, उपसंहार-निष्कर्ष जैसे शीर्षक-उपशीर्षकों पर अपनी कलम अवश्य चलाई होगी. रोज विज्ञान के नये चमत्कार होते रहते हैं. दुनिया में रोज नई-नई चीजें आती रहती हैं जो एक दिन स्वयं पुरानी पड़ जाती हैं-हमको अपना अभ्यस्त और आदी बनाकर एक और 'नये' के आगमन का रास्ता तैयार करती हुई. कंप्यूटर भी इन्हीं में से एक चीज हुआ करती 'थी'।


प्रश्नः क्या कंप्यूटर आपके लिए अथवा किसी और के लिए एक नया,अनजाना या अपरिचित शब्द है? एक ऐसा शब्द जिसे आप पहली बार सुन रहे हों,सुनकर चौंके हों या फिर सुनकर भी ध्यान देने योग्य न समझा हो?
उत्तरः नहीं।


* अमिताभ बच्चन से आज लगभग सभी परिचित हैं।यह कोई नया या अपरिचित नाम नहीं रह गया है.वह व्यक्ति भी, जो किसी भी रूप में साहित्य-संगीत-कला-सिनेमा से कोई वास्ता नहीं रखता उसके लिये भी यह नाम बहुपरिचित-सुपरिचित है.भला हो राजनीति की टीवी और टीवी की राजनीति का! आज अमिताभ बच्चन को मैं निजी तौर पर दो विशेष वजहों से याद कर रहा हूं-
१- आज से लगभग बीस-बाइस बरस पहले रिलीज हुई 'बच्चन रिसाइट्स बच्चन' नामक आडियो कैसेट के कारण,जो मुझे बहुत पसंद थी किंतु बाद में किसी 'कलाप्रेमी' ने पार कर दी।
२-त्रिमूर्ति फिल्म्स प्रा०लि० की फिल्म 'त्रिशूल' के कारण। ४ मई १९७८ को रिलीज हुई इस फिल्म के निर्देशक यश चोपड़ा थे और लेखक जावेद अख्तर. १६७ मिनट की इस फिल्म का अधिकांश हिस्सा अमिताभ अभिनीत एंग्री यंग मैन 'विजय' नामक चरित्र के इर्द-गिर्द घूमता है.फिल्म मे अमिताभ के अतिरिक्त संजीव कुमार,शशि कपूर,वहीदा रहमान,हेमा मालिनी, राखी गुलजार,प्रेम चोपड़ा,पूनम ढिल्लों,मनमोहन कृष्ण,सचिन, इफ्तेखार,यूनुस परवेज,गीता सिद्धार्थ आदि कलाकारों ने भी काम किया है....लेकिन मेरी निजी राय में इस फिल्म में एक कलाकार और है जिसका क्रेडिट्स में कहीं उल्लेख नहीं हुआ है.वह महत्वपूर्ण कलाकार है कंप्यूटर! जी हां, 'कौन बनेगा करोड़पति' के अमिताभ जी के वही 'कंप्यूटर जी' और बाद में अपने शाहरुख भाई के 'कंप्यूटर साईं' आदि-इत्यादि.आज यत्र-तत्र-सर्वत्र विद्यमान वही कंप्यूटर जो मेरे लिये ,आपके लिये ,किसी के लिये भी अनजाना, अनचीन्हा, अपरिचित नहीं रह रह गया है. लेखन और पत्रकारिता का अभिनव अवतार यह ब्लाग भी तो इसी कंप्यूटर का तिलस्म है, माया है,मोह है ,मोक्ष है!


* मेरी अभी तक की जानकारी के अनुसार,हिन्दी सिनेमा में पहली बार कंप्यूटर शब्द का उल्लेख फिल्म त्रिशूल में हुआ था. विदेश से पढ़कर लौटा युवा उद्यमी शेखर गुप्ता(शशि कपूर)अपने दफ्तर में काम करने वाली युवती गीता(राखी) को जब कई दफा कंप्यूटर और मिस कंप्यूटर कहकर संबोधित करता है तो वह एक दिन कुछ खीझकर पछती है कि तुम मुझे बार-बार कंप्यूटर-कंप्यूटर क्यों कहते हो? उत्तर में नायक बड़े उत्साह से बताता है कि विदेशों में एक ऐसी मशीन आई है जो बेहद जल्दी और फुर्ती से बिना कोई गलती किये जोड़-घटाव-टाइपिंग जैसे काम चुटकियों में निपटा देती है,वह भी बिना थके.मेरी अभी तक की जानकारी में यह हिन्दी सिनेमा के कथ्य में कंप्यूटर के उल्लेख की पहली आहट या धमक थी.यह १९७८ और उसके आसपास के समय की बात है .याद करने की कोशिश करें कि उस वक्त हमारे आसपास कितना और किस तरह का कंप्यूटर था तथा उससे हमारी कितनी और किस तरह की जान-पहचान थी? वह हमारे लिये कितना नया-पुराना ,परिचित-अपरिचित था? आज जो परिदृश्य है वह सामने है ,कंप्यूटर की ताकत और तिलस्म को बच्चा-बच्चा जानता है।


* काफी लंबे समय से हिन्दी सिनेमा को देखने-परखने-पढ़ने के अपने अनुभव के आधार पर मैं यह कह सकने की स्थिति में हूं कि हिन्दी सिनेमा की कथा-पटकथा-संवाद-गीत में तकनीक के उल्लेख के सिलसिले पर गंभीरता से पड़ताल किया जाना चाहिए। मैं सिनेमा के तकनीकी पक्ष की नहीं बल्कि लेखकीय पक्ष की बात कर रहा हूं.ऐसी पड़ताल का अर्थ केवल 'मेरे पिया गए रंगून,किया है वहां से टेलीफून' की अनुक्रमणिका निर्माण मात्र नहीं बल्कि तकनीक के साथ सामाजिक-सांस्कृतिक रिश्ते के उत्स और उल्लेख का उत्खनन जरूरी नुक्ता नजर आता है.यदि इस तरह का काम हुआ है या हो रहा है तो यह मेरी अनभिज्ञता है कि मुझे उसकी जानकारी नहीं है और यदि नहीं हुआ है तो होना जरूरी है.जैसा कि ऊपर कहा गया है कि तकनीक की ताकत और तिलस्म को आज बच्चा-बच्चा जानता है।


* हिन्दी ब्लाग के उद्भव,विकास,परंपरा,प्रयोग और प्रासंगिकता के सवाल पर ब्लाग-संसार में बहुत कुछ लिखा गया है और निरंतर लिखा जा रहा है।अभी कुछ समय पहले तक इससे हमारी पहचान भी लगभग वैसी ही थी जैसी कि १९७८ कुछ-कुछ त्रिशूल में दिखाई देती है.हिन्दी ब्लाग से जुड़े हम लोगों को एक बड़ी हिन्दी भाषी जमात को ब्लाग के बारे में वैसे ही बताना है जैसे शशि कपूर ने राखी को बताया था,संभवतः उससे कुछ आगे बढ़कर भी.मेरा बेटा अंचल सिद्धार्थ अपनी कक्षा एक की परीक्षा देने के बाद कक्षा दो में जाने बीच के वक्फे की छुट्टियों की मौज लेते हुए आजकल एक सवाल करता है-
प्रश्नः आप रात में इतनी देर तक कंप्यूटर पर बैठकर क्या करते हो? क्या गेम खेलते हो?


* मित्रो !अंचल जी के प्रश्न का उत्तर अपनी-उसकी समझ के हिसाब से तो मैंने दे तो दिया लेकिन दोनो ही पक्ष संतुष्ट नहीं हैं.इसमें आप मदद कर सकें तो बेहतर होगा. हम क्या कर रहे हैं? क्या गेम खेल रहे हैं? बच्चे कंप्यूटर के बारे में हमसे ज्यादा और उम्दा जानकारी रखते हैं.उन्हें ब्लाग के बारे में क्या-कैसे-कितना बताया जाय प्रश्न यह है? रही बात हिन्दी की 'विद्वान बिरादरी' की उदासीनता ,उपहास और उपेक्षा की तो वह कोई नई बात नहीं हैं.भवभूति को याद कर बढ़ते चलें- 'कालोह्यं निरवधि विपुला च पृथ्वी....

बुधवार, 19 मार्च 2008

कविता की (पतली गली )में क्यों विचर रहे हैं ब्लागिए ?


'कबाड़खाना' की शुरुआत के दिनों में आनलाइन कंपोजिंग की कसरत में हाथ साफ करने के इरादे से जब मैंने एक दिन अपने प्रिय कवि वीरेन डंगवाल की कविता 'समोसे' लगा दी थी तो अशोक पांडे ने तत्काल फोन पर खूब हड़काया कि तुम आलसी हो ,चिरकुटई कर रहे हो ,गद्द लिखो -गद्द॥आदि-इत्यादि।अशोक को कविता पर उज्र नहीं था.यह एक श्रेष्ठ कविता है-हमारे दौर के एक बड़े कवि की कविता.उज्र यह था कि गद्य लेखन अधिक श्रम,संदर्भ और समय की मांग करता है.मेरे मित्र की चिन्ता यह थी कि मैं श्रम,संदर्भ और समय से भागने की पतली गली के रूप में कविता-प्रस्तुति का इस्तेमाल न करूं.चिन्ता मौजूं थी और वाजिब भी.

इधर हाल में कई पत्र-पत्रिकाओं में हिन्दी ब्लाग लेखन को लेकर लेख ,टिप्पणियां आदि खूब प्रकाशित हुई हैं।कुछ वरिष्ठ-बुजुर्ग साहित्यकारों की प्रतिक्रियायें भी आई हैं.जेंडर का सवाल उठा है.फिर मैं जितना पढ पाया हूं उससे एक बात तो सामने यह है कि हिन्दी ब्लाग्स पर कविताओं की प्रस्तुति कुछ ज्यादा है और इसमें भी खुद की लिखी कविताओं की संख्या तो बहुत ही ज्यादा.इस बात को कभी-कभार कुछ इस तरह भी पेश किया जाता है कि गोया यह कोई गुनाह हो .इसके पीछे तो सतही तौर पर मुझे यह लगता है कि अभिव्यक्ति के प्रकटीकरण की आजादी का जो ब्लाग-औजार मिला है उसका भरपूर उपयोग करने का आरंभिक उत्साह ही प्रमुख कारण है.दूसरी बात-हिन्दी में आज भी कविता मात्र को ही संपूर्ण साहित्य का पर्याय मानने वालों की गिनती में कमी नहीं आई है. हम लोग इस सामान्य सामाजिक समझ से ऊपर नहीं उठ सके हैं कि अगर कोई साहित्य से जुड़ व्यक्ति है तो वह जरूर 'कबी 'होगा. बड़े शहरों -नगरों का हाल तो मुझे नहीं मालूम लेकिन छोटे कस्बों तक में होने वाले 'अखिल भारतीय' कवि सम्मेलनों और मुशायरों में काफी कमी आई है.अखबारों में साहित्य के पन्नों पर सबसे पहले गाज गिरी है.किताबों के संस्करण घटकर आधे -से रह गए हैं.इसके ठीक उलट एक परिदृश्य यह भी है कि हिन्दी में गुरु और लघु पत्रिकाओं की संख्या बहुत अधिक है,बढ भी रही है.ऐसे में ब्लाग कैसे अछूता रह सकता है.कविता तो वहां आयेगी ही.

यहां यह खुलासा जरूरी है कि मैं हिन्दी ब्लाग जगत के संदर्भ में पद्य और गद्य की बहुचर्चित बहस को कुरेदने के बजाय श्रम,संदर्भ और समय से बचने के चोर दरवाजे के रूप में कविता की प्रस्तुति का हिमायती नहीं हूं.जैसे-जैसे जीवन कविताहीन और गद्यमय होता जा रहा है वैसे-वैसे सहित्य-ब्लाग लेखन में कविता की मौजूदगी बढी है. हिन्दी में गद्य की बहुत तगड़ी जरूरत है; ऐसे गद्य लेखन की जो कहानी -उपन्यास से इतर और अन्य हो.

(फोटो- tribuneinda से साभार)

रविवार, 16 मार्च 2008

'मुर्गाः एक दिन जरूर'- एक कविता-जुगलबंदी का दूसरा सिरा



* 'वे दिन'निर्मल वर्मा का पहला उपन्यास था जिसे मैंने दिसंबर-जनवरी की हाड़ कंपा देने वाली रातों के एकांत में पढ़ा था. बीच-बीच में कभी बर्फ भी गिर जाती थी-रुई के फाहों-सी नर्म किंतु बेहद मारक,बेधक और अवसाद तथा उत्तेजना से भरकर भाग जाने वाली.लगता था कि उपन्यास में वर्णित यूरोप या प्राहा या प्राग की ठंडक शायद ऐसी ही होती होगी जैसी कि चारों ओर से पहाड़ियों से घिरे अपने कस्बे नैनीताल में इस समय उतरी पड़ी है. वे अपनी 'गदहपचीसी' के दिन थे .हर तरफ कुछ न कुछ ऐसा-वैसा बिखरा था जिसे बदलना और बुहारना जरूरी लगता था.अपने पास इस काम के लिये औजार नहीं थे,अगर थे भी तो भोथरे,जंग खाए और दूसरों द्वारा इस्तेमाल किए हुए।

* तब कविता एक बेहतर और बड़ा औजार लगती थी .हमारी मित्र मंडली कविता ओढ़ती-बिछाती-पहनती थी उन दिनों.एक खास बात यह थी इसमें अपनी या 'स्वरचित'कविताओं की मिकदार बहुत कम होती थी.देश-दुनिया-जहान की कवितायें,जो उस छोटी-सी जगह में उपलब्ध हो पाती थीं, हमें बांधने से ज्यादा हमारी अदृश्य गिरहें खोलने का काम कर रही थीं.अब यह अलग मसला है कि आज इतने सालों बाद कितनी गिरहें खुली हैं ,कितनी नई पैदा हुई है और कितना माद्दा बचा है उन्हें निरंतर खोलने की कोशिश के बाबत. फिर भी, 'वे दिन' जब याद आए हैं तो उन दिनों और उन दिनों की अपनी कविताओं का जिक्र कर ही लिया जाय।

* प्रस्तुत कविता 'मुर्गाः एक दिन जरूर' वस्तुतः एक कविता-जुगलबंदी का दूसरा सिरा है.इसका पहला सिरा मेरे मित्र अशोक पांडे की कविता 'मुर्गा बूढ़ा निकला' से जुड़ता है जिसे आप हमारे ब्लाग 'कबाड़खाना' http://kabaadkhaana.blogspot.com/ पर देख सकते हैं.इसकी शुरुआत खिलड़ंदेपन में हुई थी. यह निर्मल वर्मा की 'डायरी के खेल' जैसा कुछ था.बाद में कुछ 'समझदार' लोगों ने कहा कि यह तो सीरियस कविता हो गई है.कुछ 'और समझदार' लोगों ने कहा कि इसमें कविता जैसा क्या है ? अब आप ही देखें और जरूरी समझें तो राय दें-

मुर्गाः एक दिन जरूर

मुंडेर पर बांग देता हुआ मुर्गा
मुझे बहुत सुंदर लगता है
अभिव्यक्ति के एक अबूझ
लेकिन अर्थवान प्रतीक की तरह
लगता है बांग देता हुआ मुर्गा

बांग देते समय
तन जाती है मुर्गे की गरदन
रक्त से उफनती हुई नसें दीखने लगती हैं
ऊपर मुंह उठाते ही
खुले आकाश के नीचे लहराने लगती है
लाल-लाल कलगी

मुर्गे की टांगों के कसाव से
धसकने लगती है छत
चर्र-मर्र करने लगती हैं बल्लियां
उजागर होने लगते है दीवारों के दरार
धरती और आकाश के बीच
मुंडेर पर बांग देता हुआ मुर्गा
हमें सुबह के संकेत से परिचित कराता है

पहरेदार जानता है-
मुर्गे के बांग देने से होती है सुबह
टूटती है नींद की सम्मोहक खुमारी
और हथेलियां रगड़ते हुए लोग
नये दिन को बेहतर बनाने के बारे में सोचने लगते हैं

तभी
खाने की तश्तरियों में सजता है मुर्गा
लाल- तेल मसालों से तर स्वादिष्ट
उसकी टांग चबाते हुए
हम एक नए दिन के अजन्मे नएपन को चबा जाते हैं
तश्तरी में तर मुर्गे के खिलाफ
षडयंत्र लगने लगता है बांग देता हुआ मुर्गा

मुझे यकीन है
एक दिन जी उठेंगे तश्तरी में तर मुर्गे
तले-भुने-जले मिर्च-मसालों में लिथड़े मुर्गे
एक दिन जरूर बांग देंगे
वे नहीं खोजेंगे मुंडेर की निरापद ऊचाई
य रात का आखिरी प्रहर
या फिर कुछ और
ऐन हमारी आंखों के सामने
तश्तरियों से धड़ाधड़ उठते हुए मुर्गे
पूरी मेज पर कब्जा कर लेंगे

यकीन है
एक दिन जरूर बांग देंगे मरे हुए मुर्गे.

सोमवार, 3 मार्च 2008

यात्रा से लौटकर शब्दों की दुनिया में कुछ बेतरतीब


कई दिनों की लंबी यात्रा के बाद घर लौटा हूं।


इस बीच कई चीजें बदल-सी गई हैं।अपने छोटे-से बगीचे के पौधे कुछ अधिक हरे और ताजे दिखाई दे रहे हैं.सर्दी कम होते देख अब तक अलसाई दूब ने सिर उठाना शुरू कर दिया है. कुछ बेमतलब की खरपतवार भी उग आई है.निराई-गुड़ाई की जरूरत जान पड़ती है. गमलों में कुछ नए फूलों ने अपनी आमद दर्ज की है.कुछ फूल पुराने पड़कर चला-चली की तैयारी में हैं.सड़क के किनारे लगे आम के वृक्षों पर बौर आ गए हैं.उनके नीचे से गुजरने पर एक ऐसी खशबू आती है जो सीधे बचपन में खींच ले जाती है.जिस रास्ते पर शाम को हम टहलने जाते हैं उसके किनारे के खेतों में लगी गेहूं की फसल पुष्ट हो गई है.दाने अन्न बनने की दिशा में तेज रफ्तार से कूच कर रहे हैं.बाजार में अंगूर की रंगदारी चल रही है.उसे पछाड़ने वाला फिलहाल तो कोई नहीं दिखाई दे रहा है.फलों के राजा कहे जाने वाले आम! मुझ प्रजा के द्वार तक चलकर कब आओगे तुम?


अगर घर से बाहर की यात्रा पर नहीं जाता तो ये सब परिवर्तन कैसे देख पाता!


घर के भीतर मकड़ियों ने कुछ नए जाल बुने हैं.कल सुबह उनकी कारीगरी के शानदार नमूने को झाड़ू से साफ कर दिया जाएगा.हमें अपनी दीवार पर कोई भी धब्बा मंजूर नहीं है.बाहर की दुनिया में बहुत जाला है.क्या इस जाले को कविता से साफ किया सकता है? पता नहीं कितनी शताब्दियों से कितनी-कितनी भाषाओं के कितने-कितने कवि इस कोशिश में लगे हैं और लगे रहेंगे.


एक शब्दों की दुनिया है जो हमें जोड़ती है।


हजारों मील दूर बैठे बुरी तरह् घायल एक अनदेखे कहानीकार का हालचाल फोन पर पूछता हूं तो भावुक होकर वह शब्दों की दुनिया की बात करता है।एक युवा नारीवादी और लेखिका पहली ही मुलाकात में अपने आसपास सुने एक ऐसे जुमले को उछाल देती है कि पास बैठे विद्वान सन्न रह जाते हैं.यह भी शब्दों की एक दुनिया है.अपने आस पास जिसे देख रहा हूं वह शब्दों की दुनिया में या तो बहस में है या फिर बहस से बाहर,परे और सुरक्षित।

अपने अंदर की यात्रा के लिए घर से बाहर की यात्रा करना कितना जरूरी है यह अब समझ में आ रहा है।इस यात्रा में एक कवि से मुलाकात हुई, वह भी बहुत हड़बड़ी और आपाधापी में.कवियों से फुरसत से मिलना चाहिए किन्तु इस अकवितापुर्ण समय में न तो कवियों के पास और न ही पाठकों के पास इफरात का समय है फिर भी शब्दों की दुनिया वाले हम सब रोज नई कवितायें न केवल लिख रहे हैं बल्कि पढ़ और सुन भी रहे हैं.


इस बार की यात्रा में मिले एक संकोची कवि ने बिना किसी संकोच के अपनी एक प्रकाशित कविता की ब्लॉग प्रस्तुति की अनुमति दी है.प्रस्तुत है १९९३ मे 'अयोध्या १९९१'कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित कवि अनिल कुमार सिंह की एक कविता 'जैसाकि कहा था उन्होंने उस दिन'. उनका एक संग्रह ' पहला उपदेश' २००१ में राधाकृष्ण से छपकर खासा चर्चित हुआ था.

जैसाकि कहा था उन्होने उस दिन


अनन्त भीड़ में
अलग से पहचानना मुश्किल है
किसी खास चेहरे को

चिंता की लकीरों ने एक से
अक्स बनाये हैं उन पर
स्वास्थ्य और यौवन का
दप -दप तेज नहीं है उन पर
जैसा कि कहा था उन्होंने उस दिन

मेज पर रखी किताबों की तरह
धूल से अटी हैं आंखें उनकी
उनकी शोखी तो कबकी खो चुकी

लगातार पुराने पड़ते जाने
त्रासदी है स्थायित्व
जैसेकि झील की तरंगों पर वलयित
अपने ही चेहरे को
देखे कोई स्थिर होने तक

वहॉ झील की गहराई नहीं है
सुखे हुए होथों पर उगे हैं पपोटे
आंखें हैं अनिद्रा के शाप से
धंसी हुई अंदर को
दुःख है चेहरे को थामे
अपने दोनों हाथों पर

और शायद आकांक्षांओं का जंगल है
आर-पार .

(कविता 'उर्वर प्रदेश' संग्रह से साभार और ऊपर की तस्वीर कक्षा ७ में पढ़ने वाली छायाकार हिमानी सिंह की अनुमति से.तस्वीर फूल-पौधों की है उनसे अनुमति कैसे ली जाए,कोई तो बताए!)