बुधवार, 12 मई 2010

जब पूरब में उदित होगा सूर्य और आँसुओं में डूब जाएगी यह रात



If there was nothing to regret
there was nothing to desire.
                                             - Vera Pavlova

वेरा पावलोवा ( जन्म : १९६३ ) ने बीस वर्ष की उम्र में अपनी पहली कविता तब लिखी जब वह लेबर रुम में प्रसव पीड़ा से गुजर रही थीं और उनकी बड़ी बिटिया का जन्म होने वाला था। उनकी उम्र का यह वह वक्त था जब संगीत में विधिवत शिक्षा - दीक्षा प्राप्त कर चुकी वेरा को लगने लगा था कि भीतर ही भीतर कुछ उफन रहा है जिसके बाहर आने का सबसे सशक्त माध्यम कविता और केवल कविता ही हो सकती है, इसके सिवा और कुछ भी नहीं। घर - गृहस्थी के राग - विराग - खटराग के बीच उन्होंनें आसपास की चीजों को अलग तरीके से देखना और उन पर अलग मुहावरे में रचना शुरू कर दिया । बत कुछ आगे बढ़ी और धीरे - धीरे वह बड़ी - बड़ी नामी गिरामी पत्र - पत्रिकाओं छपने लगीं। इसी के साथ यह भी हुआ कि रूसी साहित्यिक हलकों में यह माना जाने लगा कि कहीं यह अलग अंदाज की काव्यात्मक उपस्थिति अपनी निरन्तरता में कोई झाँसेबाजी तो नहीं है? खैर, अंतत: एक दिन यह सब झूठ साबित हुआ और आज पन्द्रह कविता संग्रहों के साथ वेरा पावलोवा रूसी साहित्य का एक बड़ा और समादृत- सम्मानित नाम है। संसार की बहुत सी भाषाओं में उनके कविता कर्म का अनुवाद हो चुका है जिनमें से स्टेवेन सेम्योर द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद 'इफ़ देयर इज समथिंग टु डिजायर : वन हंड्रेड पोएम्स' की ख्याति सबसे अधिक है। यही संकलन हमारी - उनकी जान - पहचान का माध्यम भी है। स्टेवेन, वेरा के पति हैं और उनकी कविताओं के ( वेरा के ही शब्दों में कहें तो ) 'सबसे सच्चे पाठक' भी। महाकवि राबर्ट फ्रास्ट भले ही कह गए हों कि Poetry is what gets lost in translation फिर भी सोचिए कि अगर अनुवाद न होता तो दुनिया भर की तमाम श्रेष्ठ कवितायें हम तक क्योंकर पहुँचती ! अनुवाद के बारे में अपने एक साक्षात्कार में वेरा पावलोवा क्या खूब कहती हैं - A good translation is a happy marriage of two languages, and it is just as rare as happy marriages are. ...और... a good translation is the same dream seen by two different sleepers. उनकी कवितायें कलेवर में बहुत छोटी हैं। उनमें कोई बहुत बड़ी बातें भी नहीं हैं । उनकी कविताओं में दैनंदिन जीवनानुभवों की असमाप्य कड़ियाँ हैं जो एक ओर तो दैहिकता के स्थूल स्पर्श के बहुत निकट तक चली जाती हैं और दूसरी ओर उनमें इसी निकटता के सहउत्पाद के रूप में उपजने वाली रोजमर्रा की निराशा और निरर्थकता भी है। उनकी कविताओं को ' स्त्री कविता' का नाम भी दिया जाता है लेकिन वह मात्र इसी दायरे में कैद भी नहीं की जा सकती है। कविताओं पर और बात फिर होगी ..यह क्रम चलेगा अभी कुछ दिन। आइए, आज और अभी वेरा पावलोवा की दो कवितायें देखते - पढ़ते हैं....











वेरा पावलोवा की दो कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

०१-

किरचें

मैंने तोड़ दिया तुम्हारा हृदय
अब चलना है मुझे
(जीवन भर )
काँच के टुकड़ों पर।

०२-

अनिद्रा के निदान हेतु एक नुस्खा

फिलहाल पहाड़ों से उतरकर
आ नहीं रही है कोई भेड़
न ही गिनने को बाकी रह गई हैं छत की दरारें
जिनमें तलाशी जा सकें उनकी निशानियाँ
जिनसे प्रेम किया गया था किसी वक्त।

सपनों के पिछले किराएदार भी नहीं
जिनकी स्मृति जगाए रक्खें सारी रात
और वह दुनिया भी तो नहीं
जिसके होने का खास अर्थ हुआ करता था कभी

अब उन बाँहों की जुम्बिश भी नहीं
जिनमें थर - थर काँपता था प्रेम....

आएगी , जरूर आएगी तुम्हें नींद
लेकिन तब
जब पूरब में उदित होगा सूर्य
और आँसुओं में डूब जाएगी यह रात।

रविवार, 9 मई 2010

मातृत्व : तनी हुई रस्सी पर


***  सुन रहा हूँ। आज सुबह से ही अखबार ,इंटरनेट और टीवी पर देख रहा हूँ कि आज 'मदर्स डे' है। इतने - इतने 'डे' हो गए हैं कि हिसाब रखना कठिन हो गया है और असल बात तो यह भी है कि हिसाब तो तभी रखा जाय जब जरूरत हो। दिन में कई बार सोचा कि चलो अपन भी 'मदर्स डे' पर कुछ लिखें लेकिन हो न सका। क्यों ? पता नहीं ! मेरे लिए तो 'मदर्स डे' 'जिऊतिया' के दिन होता है जिसे पढ़े लिखे लोगों की भाषा में 'मातृ नवमी' या 'जीवपुत्रिका व्रत' कहते हैं। खैर , जब सारी दुनिया ( ! ) 'मदर्स डे' सेलीब्रेट कर रही है अपन भी पीछे क्यों रहें। आज और अभी जब यह दिन बीत रहा है तब मातृत्व के प्रति पूरे आदर के साथ रूसी भाषा की प्रमुख कवयित्री वेरा पावलोवा ( जन्म : १९६३ ) की एक बेहद छोटी - सी कविता का अनुवाद प्रस्तुत है :









वेरा पावलोवा की कविता
मातृत्व*
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

चल रही हूँ मैं
तनी हुई रस्सी पर
दोनो हाथों में बच्चे थामे
ताकि बना रहे संतुलन।
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* शीर्षक अनुवादक / पोस्ट लेखक द्वारा दिया गया है। वेरा की कुछ और कवितायें व विस्तृत परिचय अगली पोस्ट में।

बुधवार, 5 मई 2010

गुनगुनी बारिशें


If you are the forest of the clouds
I am the axe that parts it
- Octavio Paz

....... जिन चीजों में मन रमता है उनमें कविता का स्थान सबसे महत्वपूर्ण है. दुनिया जहान की कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि कितना - कितना कहा जा चुका है और कितना - कितना बाकी है फिर भी कविता की संभावना निरंतर है और वह कभी खत्म नहीं होगी . आज और अभी इस अधियायी रात के एकांत में १९९० के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित कवि आक्तावियो पाज़ ( ३१ मार्च १९१४ – १९ अप्रेल १९९८ ) की दो छोटी छोटी कवितायें प्रस्तुत हैं...



दो कवितायें : आक्तावियो पाज़
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

* स्पर्श

मेरे हाथ
खोलते हैं तुम्हारे अस्तित्व के पर्दे।
पहनाते हैं
नग्नता से परे का परिधान।
उघाड़ते हैं
तुम्हारी देह के भीतर की देहमालायें।
मेरे हाथ
अविष्कार करते हैं
तुम्हारी देह के लिए
एक दूसरी देह।

** संयोग

मेरे नेत्र
खोज करते है
तुम्हारी निर्वसनता
और उसे आच्छादित कर देते हैं
दृष्टि की
गुनगुनी बारिशों से।

शनिवार, 1 मई 2010

हल्का नहीं हुआ है गुलमुहर का लाल परचम


*** आज मई माह की पहली तारीख है। यही वह महीना है जब खूब गर्मी पड़ती है। यही वह महीना है जब लू के थपेड़ों से बचना बहुत भारी पड़ता है। यही वह महीना है जब देर रात गए छत से चाँद को देखना कुछ राहत देता है। यही वह महीना है जिसमे आज से कई बरस जीवन की आपाधापी के बीच कुछ - कुछ खुशनुमा - सा हो गया था जिसकी गमक और धमक से आज तक सब कुछ सुवासित बना हुआ है। यही वजह है कि मौसम सम्बन्धी तमाम तरह की प्रतिकूलताओं के बावजूद यह महीना मुझे बहुत प्रिय है। अपने प्रिय मास की शुरुआत के पहले दिन कल रात सोने से पहले लिखी गईं दो कवितायें आप सबके साथ साझा करने का मन है। आइए इन्हें देखें , पढ़ें और अपने आसपास के संसार में कुछ अनदेखे - अनछुए लिरिकल मोमेन्ट्स खोज कर खुशी के कुछ पल टटोलने , सहेजने की कोशिश करें । याद रहे, यह वही मौसम है .. जब जैसे - जैसे ग्रीष्म का ताप बढ़ता जाता है वैसे - वैसे गुलमुहर आभा द्विगुणित होती जाती है..वह धूप , तपन घाम झेलकर और - और - और शोभायमान होता जाता है। ...तो लीजिए प्रस्तुत हैं 'तुम्हारा नाम' शीर्षक दो कवितायें ...

तुम्हारा नाम

०१-

किसी फूल का नाम लिया
और भीतर तक भर गई सुवास

किसी जगह का नाम लिया
और आ गई घर की याद

चुपके से तुम्हारा नाम लिया
और भूल गया अपना नाम।

०२-

असमर्थ - अवश हो चले हैं शब्दकोश
शिथिल हो गया है व्याकरण
सहमे - सहमे हैं स्वर और व्यंजन
बार - बार बिखर जा रही है वर्णों की माला।

यह कोई संकट का समय नहीं है
न ही आसन्न है भाषा का आपद्काल
अपनी जगह पर टिके हैं ग्रह - नक्षत्र
धूप और उमस के बावजूद
हल्का नहीं हुआ है गुलमुहर का लाल परचम।

संक्षेप में कहा जाय तो
बस इतनी - सी है बात
आज और अभी
मुझे अपने होठों से
पहली बार उच्चारना है तुम्हारा नाम।