शनिवार, 1 मई 2010

हल्का नहीं हुआ है गुलमुहर का लाल परचम


*** आज मई माह की पहली तारीख है। यही वह महीना है जब खूब गर्मी पड़ती है। यही वह महीना है जब लू के थपेड़ों से बचना बहुत भारी पड़ता है। यही वह महीना है जब देर रात गए छत से चाँद को देखना कुछ राहत देता है। यही वह महीना है जिसमे आज से कई बरस जीवन की आपाधापी के बीच कुछ - कुछ खुशनुमा - सा हो गया था जिसकी गमक और धमक से आज तक सब कुछ सुवासित बना हुआ है। यही वजह है कि मौसम सम्बन्धी तमाम तरह की प्रतिकूलताओं के बावजूद यह महीना मुझे बहुत प्रिय है। अपने प्रिय मास की शुरुआत के पहले दिन कल रात सोने से पहले लिखी गईं दो कवितायें आप सबके साथ साझा करने का मन है। आइए इन्हें देखें , पढ़ें और अपने आसपास के संसार में कुछ अनदेखे - अनछुए लिरिकल मोमेन्ट्स खोज कर खुशी के कुछ पल टटोलने , सहेजने की कोशिश करें । याद रहे, यह वही मौसम है .. जब जैसे - जैसे ग्रीष्म का ताप बढ़ता जाता है वैसे - वैसे गुलमुहर आभा द्विगुणित होती जाती है..वह धूप , तपन घाम झेलकर और - और - और शोभायमान होता जाता है। ...तो लीजिए प्रस्तुत हैं 'तुम्हारा नाम' शीर्षक दो कवितायें ...

तुम्हारा नाम

०१-

किसी फूल का नाम लिया
और भीतर तक भर गई सुवास

किसी जगह का नाम लिया
और आ गई घर की याद

चुपके से तुम्हारा नाम लिया
और भूल गया अपना नाम।

०२-

असमर्थ - अवश हो चले हैं शब्दकोश
शिथिल हो गया है व्याकरण
सहमे - सहमे हैं स्वर और व्यंजन
बार - बार बिखर जा रही है वर्णों की माला।

यह कोई संकट का समय नहीं है
न ही आसन्न है भाषा का आपद्काल
अपनी जगह पर टिके हैं ग्रह - नक्षत्र
धूप और उमस के बावजूद
हल्का नहीं हुआ है गुलमुहर का लाल परचम।

संक्षेप में कहा जाय तो
बस इतनी - सी है बात
आज और अभी
मुझे अपने होठों से
पहली बार उच्चारना है तुम्हारा नाम।

5 टिप्‍पणियां:

Apanatva ने कहा…

bahut khoob........

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" ने कहा…

दोनों ही रचना सुन्दर है .. बधाई !

फ़िरदौस ख़ान ने कहा…

बहुत सुन्दर रचनाएं हैं...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

क्या पता?
गरम हवा के थपेड़े खाकर ही
गुलमोहर
गुस्से से लाल है!

बहुत ही सुन्दर है आपकी दोनो रचनाएँ!
बार-बार पढ़ने को मन चाहता है!

Pratibha Katiyar ने कहा…

चुपके से तुम्हारा नाम लिया
और भूल गया अपना नाम।