बुधवार, 18 जनवरी 2012

मेरी नींद अटकी हुई है बीच हवा में

इस बीच लिखत - पढ़त बहुत कम हुई। यूँ भी कहा जा सकता है कि पढ़ा ज्यादा, लिखा न के बराबर। मुझे बार - बार ऐसा लगता है कि एक अंतराल में / के लिए न लिखा जाना कुछ और / आगे लिखे जाने की तैयारी है। इस  बीच एक उपन्यास पढ़ रहा हूँ जिसे पिछले विश्व पुस्तक मेले से खरीद लाया था लेकिन वह अब तक अनपढ़ा ही रह गया और अब अगले महीने जब फिर एक बार दुनिया भर की किताबों के मेले में जाने की तैयारी है तो उस किताब पर प्यार उमड़ आया है।  काम धाम के बीच - बीच में कविताओं से गुजरना प्राय: रोज होता ही है।आज और अभी  सोने से पहले ,मन है कि एक छोटी-सी फ़िन्निश कविता  इस ठिकाने पर सबके साथ साझा की जाय  - कवि हैं आरो हेलाकोस्की  (1893-1952) ;उनकी कुछ और कवितायें और  संक्षिप्त परिचय बहुत जल्द ही यहीं , इसी जगह... अभी तो बस यह कविता...


आरो हेलाकोस्की की कविता
जंगल में चाँदनी
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

उनींदी शाखाओं के तले
चमक रही है
एक अजानी रोशनी

वन प्रांतर के जादुई पथ पर
न कहीं से आती
न कहीं को जाती हुई

उड़ गई है मेरी परछाईं
मैं हूँ अब
अदेह
और चाँदनी में घुलनशील

मेरी नींद
अटकी हुई है
बीच हवा में
और मेरे हाथ छू रहे हैं शून्य।
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(चित्र : जीना रेनॉल्ड्स की पेंटिंग , साभार)

शनिवार, 7 जनवरी 2012

'कर्मनाशा' की किताब 'कर्मनाशा'

'कर्मनाशा 'के सभी पाठकों , प्रेमियों  और शुभचिंतकों  को  नए साल की  बहुत - बहुत शुभकामनायें। इस नए साल की शुरुआत में एक  छोटी - सी सूचना सबके साथ साझा करने का मन  हो रहा है। इसी सप्ताह  मेरा कविता संग्रह 'कर्मनाशा' शीर्षक से  अंतिका प्रकाशन से छप कर आया है। इसमें कुछ पुरानी और कुछ इधर की लिखी कवितायें संग्रहीत है। इसका आवरण सुपसिद्ध चित्रकार रवीन्द्र व्यास ने बनाया है और फ़्लैप का मैटर हमारे समय के दो सुपरिचित युवा कवियों अशोक कुमार पांडेय और अजेय ने  लिखा है। किताब अब  कविता  प्रेमियों के लिए उपल्ब्ध है और बहुत जल्द ही फ़्लिपकार्ट पर भी  उपल्ब्ध हो जायेगी। इसके  प्रकाशन के बारे में कविता प्रेमियों  के संग सूचना  साझा करते हुए  तीनो मित्रों रवीन्द्र, अजेय , अशोक  और प्रकाशक भाई गौरीनाथ के साथ सभी पाठकों के  प्रति आभार व्यक्त करता हूँ  साथ ही बहुत संकोच व विनम्रता के साथ फ़्लैप पर छपे मैटर के  छोटे - से अंश को  प्रस्तुत कर रहा हूँ :

अजेय लिखते हैं:

ये कविताएं आप को एक एसेंशियल यायावरी पर ले जाती हैं . यह यायावरी कर्मनाशा और तमसा के घाटों से ले कर कौसानी और शिमला  की पहाड़ियों तक चलती है. इस यायावरी मे आप हिमालय की तराईयों से ले कर विध्याँचल के पार तक पहुँच जाते हैं....  बल्कि  ट्राँस हिमालय के अकूत-अकथ  तिलिस्म तक का आस्वाद ले लेते हैं  . अँधेरा इस यात्रा का स्थायीभाव है. जहाँ अँधेरा नही है, वहाँ धुँधलका तो है ही और बार बार यह धुँधलका छँटता है, कभी चकाचौँध की स्थिति भी आती है . उस कौँध मे आप को कुछ ऐसे 'लोकेल'  मिलेंगे जिन से   आप  का सामना अक्सर ही होता रहा होगा ,  लेकिन आप की असावधान आखों ने जिन्हे बेतरह “मिस” कर दिया होगा  . यही कारण है कि  यह यायावरी एक पर्यटक की यायावरी क़तई नही है. सिद्धेश्वर सिंह का कवि  इस पूरी यात्रा मे  एक सहज साधारण आम आदमी की नज़र से चीज़ों को देखता हुआ ; कभी अचम्भित,  कभी प्रफुल्ल और कभी आहत होता हुआ ;  कहीं एक दम उस लोकेल मे खो जाता हुआ और कहीं सहसा उस मे ‘छूट’  सा जाता हुआ चलता है........ बड़ी बात यह है कि  साथ ही साथ बहुत ज़रूरी टिप्पणियाँ करता चलता है . उस से भी बड़ी  बात यह है कि इन टिप्पणियों मे न तो बड़े बड़े दावे हैं, न ही कोई बड़ा नारा. इन कविताओं को पढ़ कर पता चलता है कि सिद्धेश्वर सिंह एक सजग और बहुश्रुत कवि हैं. लेकिन कहीं भी कविता पर  अपनी विद्वता को हावी नही होने देते  और न ही स्थानिक या  वैश्विक   उथल पुथल और मारा मारी के प्रति अपनी सजगता को अपनी कविता का मुद्दा बनाते हैं .बल्कि इस सब के प्रति वे बहुत *कूल*, स्थिर और परिपक्वता पूर्ण तरीक़े से रिएक्ट करते हैं .
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अशोक कुमार पांडेय लिखते हैं:

बाज़ार के मुनाफे और सत्ता के लगातार केंद्रीयकृत होते जाने की पहचान और इसका प्रतिकार उनकी कविताओं में बार-बार आता है. बाज़ार के इस विराट तिलिस्म के बरक्स वह मनुष्य और उसके इर्द-गिर्द की उन बेहद मामूली चीजों को कविता के केन्द्र में ले आते हैं जिन्हें बाज़ार ने बहिष्कृत कर दिया है. गधे, कुत्ते, शेर, सियार जैसे जानवर उनकी कविताओं के विषय हैं तो उनके सपनों में आडू, सेब, काफल  और खुमानी के पेड़ हैं, पेड़ों के नीचे सुस्ताती गायें हैं, सीढ़ीदार खेत हैं, रस्सियों वाले पुल और उनसे गुजरते हुए बच्चे हैं और ऎसी ही तमाम मामूली चीजें जिन्हें बचा ले जाना आज पूरी मानवता को बचा ले जाने का पर्याय है. इन सबके साथ मिलकर प्रेम और प्रकृति सिद्धेश्वर सिंह  का एक समृद्ध काव्यसंसार रचते हैं जिसे ईंट दर ईंट रचने में उन्होंने एक ऎसी भाषा और शिल्प का सहारा लिया है जो बाहर से बहुत सादी और साधारण लगती है लेकिन जिसमें प्रवेश करने पर अर्थों और व्यंजनाओं का एक विराट मानवीय संसार खुलता है. अपनी शीर्षक कविता ‘कर्मनाशा’ में उनका यह सवाल कि ‘भला बताओ/ फूली हुई सरसों/ और नहाती हुई स्त्रियों के सानिध्य में/ कोई भी नदी/ आखिर कैसे हो सकती है/ अपवित्र’ उनकी इस ताक़त के साथ उनकी संवेदनाओं के स्रोतों का भी पता देता है. यही ‘धोखादेह सादगी’ उनकी कविताओं की सबसे बड़ी ताक़त है. 
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'कर्मनाशा'
( कविता संग्रह)
- सिद्धेश्वर सिंह


प्रकाशक :

अंतिका प्रकाशन 
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