शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

टप - टप चुएला पसिनवा बलम ..



*****आज गर्मी से तनिक राहत है । सुना जा रहा है कि उपर पहाड़ों पर बारिश अच्छी हुई है और उसका खुशनुमा असर यहाँ तलहटी में साफ दीख रहा है आज पसीने से देह चिपचिप नहीं हो रही है और खुद को भला - सा लग रहा है , लेकिन ऐसा कभी - कभी होता है । ऐसा कभी - कभार होना ही भला है, अगर रोज ही जिन्दगी की धूप में किसी का / किन्हीं चीजों का घना साया बना रहे तो मौसम की लय टूट जाएगी और सब नीरस - सा लगने लगेगा अतः परिवर्तन / बदलाव आवश्यक है । हर मौसम का अपना रंग , अपनी खूबी है इस बात को साहित्य और संगीत की दुनिया में खूब समझा गया है !

****चलिए आज सुनते हैं मौसम के विविध रंगों से सराबोर एक बारहमासा जिसे स्वर दिया है पं० विद्याधर मिश्र ने.....




टिप्पणी : इस गीत को आज दोपहर में तब अपलोड किया था जब काम के बीच में थोड़ी फुरसत मिली थी लेकिन वहाँ आफिस में सुनने की सुविधा / गुंजाइश नहीं थी. शाम को घर आकर देखा तो पता चला कि थोड़ी दिक्कत है। अब वह दूर कर दी गई है । सो सुनें और इस बारहमासे की छाँव में तपन से तनिक राहत महसूस करें !आपको हुई असुविधा के लिए क्षमा !

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

प्रेम की पाठ्यपुस्तकें नहीं होतीं

सीरिया के सर्वाधिक प्रसिद्ध कवियों में गिने जाने वाले महान अरबी कवि निज़ार कब्बानी (1923-1998) की कुछ कविताओं के अनुवाद आप पहले भी पढ़ चुके हैं । आज प्रस्तुत है उनकी दो छोटी कवितायें : (अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)


०१- विलग करो वसन

विलग करो
वसन निज देह से
शताब्दियों से
किसी चमत्कार ने
स्पर्श नहीं किया इस पृथिवी का
सो, विलग करो
निज वसन निज देह से।

मैं हो चुका हूँ मूक
किन्तु तुम्हारी काया को
पता है संसार की सभी भाषायें
सो, विलग करो
सब वसन निज देह से ।

०२-मैं कोई शिक्षक नहीं

मैं कोई शिक्षक नहीं हूँ
जो तुम्हें सिखा सकूँ
कि कैसे किया जाता है प्रेम !
मछलियों को नहीं होती शिक्षक की दरकार
जो उन्हें सिखलाता हो तैरने की तरकीब
और पक्षियों को भी नहीं
जिससे कि वे सीख सकें उड़ान के गुर।

तैरो - खुद अपनी तरह से
उड़ो - खुद अपनी तरह से
प्रेम की पाठ्यपुस्तकें नहीं होतीं
और इतिहास में दर्ज
सारे महान प्रेमी हुआ करते थे -
निरक्षर
अनपढ़
अंगूठाछाप।

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

नहीं निगाह में मंजिल

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की यह ग़ज़ल मुझे बहुत प्रिय है।आबिदा परवीन के स्वर में इसे सुनना तो एक अलग ही किस्म का अनुभव होता है। कैसा अनुभव ? अब क्या बताया जाय ! ऐसा किया जाय कि इसे पढ़ा और सुना जाय ..बस्स...




नहीं निगाह में मंजिल तो जुस्तजू ही सही।
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही।

न तन मे खून फराहम न अश्क आंखों में,
नमाज़े-शौक़ तो वाज़िब है, बे-वज़ू ही सही।

यही बहुत है के सालिम है दिल का पैराहन,
ये चाक-चाक गरेबान बे-रफू ही सही।

किसी तरह तो जमे बज़्म, मैकदेवालों,
नहीं जो बादा-ओ-सागर तो हा-ओ-हू ही सही।

गर इन्तज़ार कठिन है तो जब तलक ऐ दिल,
किसी के वादा-ए-फर्दा की गुफ्तगू ही सही।

दयारे-गैर में महरम अगर नहीं कोई,
तो 'फ़ैज़' ज़िक्रे-वतन अपने रू-ब-रू ही सही।




सोमवार, 19 अप्रैल 2010

तुम्हारे पाँव

इधर कुछ समय से कई तरह की व्यस्तताओं और यात्राओं के चलते लिखना - पढ़ना लगभग छूटा - सा हुआ है। देह थक जाती है तो दिमाग भी विश्रांति की दरकार करने लगता है और लगता है 'दिल ढूँढता है फिर वही फुरसत के रात दिन' जैसे वाक्यांश कहीं खो से गए हैं लेकिन नींद का उत्सव मनाने से पहले भले ही एकाध पंक्ति ही सही कुछ तो 'देखना' ही पड़ता है। सिरहाने किताब न हो तो लगता है कि कहीं कोई पसंदीदा चीज गायब हो गई है। आज, इस वक्त और कुछ नहीं बस्स सोने के उपक्रम से पहले चिली के महान कवि और नोबेल पुरस्कार विजेता पाब्लो नेरुदा ( १९०४ - १९७३ ) की यह एक कविता :

पाब्लो नेरुदा की कविता
तुम्हारे पाँव
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

जब मैं देख नहीं पाता हूँ
तुम्हारे चेहरे को
तो निहारता हूँ तुम्हारे पाँव
वक्र अस्थियों से निर्मित
तुम्हारे नन्हें- नन्हें पाँव।

मैं जानता हूँ कि वे तुम्हें प्रदान करते हैं आधार
उन्हीं पर टिका रहता है तुम्हारा मधुर भार
उन्हीं के सहारे उभरती है तुम्हारी कटि
उन्हीं के सहारे उभरता है तुम्हारा वक्ष
उन्हीं से उभरते हैं बैंगनीं आभा से दीप्त तुम्हारे कुचाग्र युग्म
उन्हीं से थाह पाती है तुम्हारी आँखों की गहराई ।

फिलवक्त दूर है मुझसे
तुम्हारा मुखारविन्द
तुम्हारी ललछौहीं केशराशि
जो रूपायित कर देती है तुम्हें एक छोटे से आकाशदीप में।

लेकिन मैं
बस तुम्हारे पाँवों को प्यार करता हूँ
क्योंकि वे अनवरत चलते रहे -
जमीन पर
हवा पर
पानी पर
तब तक , जब तक कि उन्हें मिल न गया मैं - मेरा निशान।
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"You can cut all the flowers but you cannot keep Spring from coming"
- Pablo Neruda

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

कितना कठिन और लम्बा है 'प्रेम' जैसे एक छोटे से शब्द का उच्चारण


कई दिन हुए कुछ लिखना हो न सका। नियमित लिखा जाय यह जरूरी तो नहीं। और सिर्फ लिखने के लिए लिखना....! आज अभी कुछ देर पहले ही कुछ यूँ - सा बन गया। अगर यह कविता है तो आज आपके साथा साझा करते हैं चार कवितायें। इनके वास्ते शीर्षक भी कुछ सूझ नहीं रहा है। फिर वही बात हर चीज को हर विचार को , हर भाव को शीर्षक की परिधि में बाँधा ही जाय यह भी तो जरूरी नहीं लेकिन अगर कुछ कहने का मन है तो उसे रोकना संभव भी तो नहीं। अब जो कुछ भी भीतर ही भीतर उमड़ - घुमड़ कर रहा था उसे शब्दों में बाँध दिया है ..बाँध देने की कोशिश की है..... आप देखे.. पढ़ें...


चार ( प्रेम) कवितायें शीर्षकहीन

01-

इस नए दिन में
जो कुछ भी है नयापन
वह तुमसे है।

उस बीते हुए दिन में
जो कुछ भी बचा रह गया है स्मरणीय
वह तुमसे है।

वह जो आने वाला है दिन
उसमें जो भी होगी सुन्दरता
उसे जीवन्त होना है
तुम्हारे ही स्पर्श से।

02-

गर्मियाँ शुरु हो गई है
अब सहा नहीं जाता घाम
उड़ने लगी है धूल।

जब भी देखता हूँ
किसी पेड़ के तले
सुस्ताती हुई छाँव को
सहसा याद आ जाता है तुम्हारा नाम।

03-

कई दिन हुए
शाम को गया नहीं छत पर निरुद्देश्य
गमले के मुरझाते फूलों से
बातचीत भी नहीं हुई कई दिनों से।

इधर बढ़ गया है काम- धाम
शाम होते - होते थक जाती है देह
कई दिन हुए तुम्हें ध्यान से देखे
कई दिनों से आधा - अधूरा लग रहा है
अपना ही वजूद।

04-

लोगों में रहता हूँ अकेला
कोरे कागजों को निहाराता हूँ ध्यान से
अख़बार बासी लगता है आते ही।

अक्सर लिखता हूँ एस.एम.एस.
और सेन्ड नहीं कर पाता।
कितना आसान है
सभा संगोष्ठियों में व्याख्यान देना
किन्तु
कितना कठिन और लम्बा है
'प्रेम' जैसे एक छोटे से शब्द का उच्चारण ।

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

एक स्त्री की कर्मकथा


विश्व कविता के पाठकों और प्रेमियों के लिए आज एक और महत्वपूर्ण कविता का अनुवाद। स्त्री स्वाधीनता आन्दोलन के सौ बरस पूरे होने के उपलक्ष्य में भारत और पूरी दुनिया में स्त्री के संघर्ष और सृजन को रेखांकित करने के उद्देश्य से तमाम तरह के कार्यक्रमों का सिलसिला चल रहा है । इस तरह के एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम में पिछले सप्ताह ही भाग लेकर लौटा हूँ , उस पर अलग से एक विस्तृत रपट लिखनी है किन्तु आज और अभी तो बस एक कविता जो मुझे बहुत पसंद है।विश्व कविता के पाठकों और प्रेमियों के लिए माया एंजीलोऊ कोई नया व अपरिचित नाम नहीं है। 'स्टिल आइ राइज' , 'आल गाड्स चिल्ड्रेन नीड ट्रेवेलिंग शूज' ,'आइ नो व्हाई केज्ड बर्ड सिंग्स' जैसी किताबों की रचनाकार इस स्त्री का जीवन सिर्फ एक कवि होने के दायरे में सीमित न होकर बहुरूपी व विविधवर्णी है जिसमें संगीत , सिनेमा , अभिनय , अध्यापन और बहुत कुछ है। उनकी कविताओं में मुखर स्त्री स्वर को देखना एक सहज , सजग , सचेत स्त्री अनुभव से गुजरना होता है। तो आइए देखते - पढ़ते हैं अमेरिकी कवि डा० माया एंजीलोऊ की यह कविता और एक स्त्री के रोजमर्रा के काम को देखें परखें......


माया एंजीलोऊ की कविता
एक स्त्री की कर्मकथा
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

मुझे करनी है बच्चों की देखभाल
अभी कपड़ों को तहैय्या करना है करीने से
फर्श पर झाड़ू - पोंछा लगाना है
और बाज़ार से खरीद कर ले आना है खाने पीने का सामान।

अभी तलने को रखा पड़ा है चिकन
छुटके को नहलाना धुलाना पोंछना भी है
खाने के वक्त
देना ही होगा सबको संग - साथ।

अभी बाकी है
बगीचे की निराई - गुड़ाई
कमीजों पर करनी है इस्त्री
और बच्चों को पहनाना है स्कूली ड्रेस।

काटना भी तो है इस मुए कैन को
और एक बार फिर से
बुहारना ही होगा यह झोंपड़ा
अरे ! बीमार की तीमारदारी तो रह ही गई
अभी बीनना - बटोरना है इधर उधर बिखरे रूई के टुकड़ों को।

धूप ! तुम मुझमें चमक भर जाओ
बारिश ! बरस जाओ मुझ पर
ओस की बूँदों ! मुझ पर हौले - हौले गिरो
और भौंहों में भर दो थोड़ी ठंडक ।

आँधियों ! मुझे यहाँ से दूर उड़ा ले जाओ
तेज हवाओं के जोर से धकेल दो दूर
करने दो अनंत आकाश में तैराकी तब तक
जब तक कि आ न जाए मेरे जी को आराम।

बर्फ़ के फाहों ! मुझ पर आहिस्ता - आहिस्ता गिरो
अपनी उजली धवल चादरें उढ़ाकर
मुझे बर्फीले चुंबन दे जाओ
और सुला दो आज रात चैन से भरी नींद।

सूरज , बारिश , झुके हुए आसमान
पर्वतों , समुद्रों , पत्तियों , पत्थरों
चमकते सितारों और दिप - दिप करते चाँद
तुम्हीं सब तो हो मेरे अपने
तुम्हीं सब तो हो मेरे हमराज़।