शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

कहीं नहीं है आईना

यह  नीचे जो कुछ इस  परिचयात्मक भूमिका  के बाद  अलग से  बेतरतीब पंक्तियों में  लिखा गया  है  ; एक कविता भी है और  इसे  पढ़ने की  सुविधा के लिहाज से अलग- अलग पाँच कवितायें भी कह सकते हैं। बात यह है कि इसी संसार में अपने होने का भास - आभास कराता एक और संसार भी है जो कि अब अपनी उपस्थिति की छवियों  से स्थूल जगत की बनावट को बदल  रहा है व व्यतिक्रमित कर रहा है। इस कविता में जो कुछ भी  दिख सकने में सक्षम है ;  वह इसी व्यतिक्रम को एक क्रम देने भर की कोशिश है बस। तो , आइए , इसे देखें - पढ़ें...:


अकथ कथ : कुछ छवियाँ

०१-

बोलते हैं बतियाते हैं
अव्यक्त को
व्यक्त में छापते
छिपाते।
साथ - साथ चलते हैं
राह
नहीं  किन्तु पाते।

०२-

सुनी जाने लायक
चुप्पी के सहचर।
साथ चलते हैं
देर तक
दूर तक
अक्सर।

०३-

कहीं नहीं है आईना
न ही कहीं
ठहरा हुआ है जल।
खुद की हथेलियों में
देखते है खुद को
पल - प्रतिपल विकल।

०४-

कुहराछन्न संसार
न कहीं इसका ओर - छोर।
डरपाती हैं
विविध रूपधारी छायायें
कभी थमा देतीं
अक्सर छुड़ा लेतीं डोर।

०५-

पथ - पथिक
राहगीर - राह
गति- प्रवाह।
नीयत - नीति - निबाह
सतत सचल
वाह - आह - उफ़ -  हाय ।
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गुरुवार, 30 जनवरी 2014

यह मैं हूँ कागज के खेत में

'रंग' सीरीज की अपनी कुछ कविताओं में से  एक  कविता आप  इसी ठिकाने पर पहले पढ़ चुके हैं। लीजिए आज प्रस्तुत है एक और कविता :


कुछ और रंग

एक कैनवस है यह
एक चौखुटा आकार
क्षितिज की छतरी
मानो आकाश का प्रतिरूप
जिसकी सीमायें बाँधती है हमारी आँख
और मन अहसूस करना चाहता है अंत का अनंत

दिख रहा है
उड़ रहे हैं रंग
उड़ाए जा रहे हैं रंग
फिर भी
घिस रहा है इरेज़र
लकीरें अब भी हैं लकीर

यह मैं हूँ
कागज के खेत में
शब्दों की खुर्पी से निराई करता
भरसक उखाड़ता खरपतवार
और अक्सर
आईने के सामने
समय के रथ  को रोकता - झींकता
अपने बालों में लगाता खिजाब
सफेद को स्याह करता बेझिझक बेलगाम
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( चित्र :  संजय धवन की पेंटिंग ' फोर सीजन्स  VI' , गूगल छवि से साभार )

शनिवार, 25 जनवरी 2014

यह दुनिया है एक

आज  प्रस्तुत है 'रंग' सीरीज की अपनी कुछ कविताओं में से  यह एक  पहली कविता ... । अब क्या कहूँ कि  इसमें क्या है !  पता नहीं कुछ है भी कि...। ...यह आप देखें - पढ़ें....

रंग  

कुछ रंग हैं -
एक दूसरे से अलग
और एक दूसरे में घुलकर
घोलते जाते हुए कुछ और ही रंग
वे रुकते नहीं हैं
चलते हैं सधे पाँव
छोटे - छोटे डग भर कर
लगभग माप लेना चाहते हैं धरती का आयतन

कुछ लकीरें है -
सरल
वंकिम
अतिक्रमित
समानान्तर
और भी कई तरह की
जिनके लिए ज्यामिति सतत खोज रही है अभिधान

कुछ दृश्य हैं -
देखे
अदेखे
और कुछ -कुछ
कल्पना व यथार्थ के संधिस्थल पर समाधिस्थ

यह दुनिया है एक
इसी दुनिया के बीच विद्यमान
यहीं के स्याह - सफेद  में रंग भरती
और यहीं की रंगत को विस्मयादिबोधक बनाती
बारम्बार
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( चित्र :  चित्रा सिंह की पेंटिंग ' रिफ़्लेक्शंस'  , गूगल छवि से साभार)

शनिवार, 18 जनवरी 2014

उसे देखता हूँ जो आँख भर

आप  चाहें तो इसे ग़ज़ल भी कह सकते हैं। चाहें तो , मैं इसलिए कह रहा हूँ कि हर विधा का अपना शास्त्र है। अपने नियम हैं और अपनी एक परिपाटी है। फिर भी बहुत दिनो बाद इस ठिकाने पर कुछ तुकबन्दी - सा साझा करना अच्छा लग रहा है।  ऐसा नहीं है कि जो तुक में नहीं है वह बेतुका है ; फिर भी। बहुत दिनों से यह भी सोच रहा हूँ कि मनभाये संगीत की साझेदारी भी नहीं हुई यहाँ बहुत दिनों से। लग रहा है कि बहुत दिनों से बहुत कुछ नहीं किया। तो क्या किया बहुत दिनों से  ? यह सवाल स्वयं से , आप यह ग़ज़ल देखें...

* * *

उसे देखता हूँ जो आँख भर।
तो आसान लगता है सफर।

वो क्या है मुझको क्या खबर,
क्यों सिर धुनूं इस बात पर।

एक कशिश -सी है घिरी हुई
उसे मान लूँ इक जादूगर ?

मैं पूछता हूँ कभी खुद से ही
क्या मिल गया उसे चाहकर।

अब हिज्र क्या विसाल क्या
मुझे उज्र क्या इस हाल पर !

ये नज़्म कविता ये शायरी
सभी उसके ही हैं हमसफर।
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( चित्र : सत्यसेवक मुखर्जी की कृति, 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' से साभार)

शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

एक पाठक का चुनाव : टेड कूजर

किसी कविता को , कविता की किसी किताब , कवि के कृतित्व को उसका  अपना , अपने किस्म का पाठक मिले  इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है ! पाठक कैसा हो ? उसे कैसा होना चाहिए ? उसे कैसा दीखना चाहिए? उसे  कैसा सोचना चाहिए? इस प्रकार के प्रश्न और उत्तरों की एक सरणि है जो चल रही और चलती रहेगी। आइए , कुछ इसी  तरह  की बात से जुड़ती हुई एक कविता पढ़ते हैं जिसे लिखा है मशहूर अमेरिकी कवि टेड कूजर ने। आज से कई साल पहले 'द न्यूयार्क टाइम्स ' को दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था   कि 'Poetry can enrich everyday experience, making our ordinary world seem quite magical and special.' आइए इस  छोटी - सी कविता के बहाने देखने की  एक कोशिश करते हैं कि हमारी रोज की दुनिया में कविता की कैसी दुनिया है और वह इस दुनिया की  दैनन्दिन साधारणता में कितना और कैसा जादू उपस्थित कर पाती है। तो ,  लीजिए पढ़ते हैं यह कविता :


टेड कूजर की कविता
एक पाठक का चुनाव  
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

सर्वप्रथम , मैं चाहूँगा कि वह सुन्दर हो
और मेरी कविता में  चल रही हो सावधानीपूर्वक
दोपहर बाद के निपट अकेले एकान्त में
धुलाई के बाद  उसकी गर्दन पर चिपके हों गीले बाल
वह पहने हुए हो पुराना मैला रेनकोट
क्योंकि उसके पास फालतू पैसे नहीं है धुलाई करवाने के लिए।
                                                                                                                                         
वह निकालेगी अपना चश्मा
वहाँ किताबों की दुकान में
मेरी कविताओं को उठाकर देखेगी
और बाद में किताब को  रख देगी शेल्फ़ में
वह स्वयं से कहेगी
'इस तरह के पैसों से मैं धुलवा सकती हूँ अपना रेनकोट'
और वह करेगी ऐसा।
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* ( चित्र : शैन्टल जोफ़  की  कृति  'येलो  रेनकोट', गूगल छवि से साभार)

शनिवार, 11 जनवरी 2014

मैं कहता हूँ एक चूहे को छोड़ दो कविता के अंदर : बिली कालिंस

पिछली पोस्ट के रूप में  आपने पढ़ चुके हैं  प्रसिद्ध अमेरिकी कवि बिली कालिंस की एक कविता ' लेखकों को सलाह'। इसी क्रम में आज प्रस्तुत  करते हैं उनकी एक और कविता जिसका शीर्षक  है 'कविता की शिनाख्त'। यह कविता , पढ़ने - पढ़ाने  , रचने - बाँचने  वाली  बड़ी  बिरादरी के समक्ष सतत विद्यमान उस यक्ष प्रश्न को उठाती है  कि  कविता  आखिर क्या है ? कविता के होने को हम कैसे  अनुभव करते हैं ? हम कैसे कविता  को बरतते है तथा उससे क्या  , कितनी  और किस किस्म की उम्मीद रखते हैं...? आइए , साझा करते है इस कविता को :


बिली कालिंस की कविता
कविता की शिनाख्त
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

मैं कहता हूँ उनसे कि एक कविता लो
और  रोशनी की ओर कर उसे देखो
एक रंगीन स्लाइड की तरह।

या फिर अपना कान सटाओ इसके छत्ते से।

मैं कहता हूँ एक चूहे को छोड़ दो कविता के अंदर
और देखो कि कैसे खोजता है वह बाहर आने की राह।

या घुसकर घूमो कविता के कक्ष के भीतर
और महसूस करो दीवारों को बिजली के स्विच की खातिर।  

मैं चाहता हूँ कि वे वाटर- स्की करें
किसी कविता की सतह के ओर - छोर
और तट पर लिखे रचयिता के नाम की ओर हिलाते रहें हाथ।

लेकिन वे जो करना चाहते हैं वह  है यह
कि रस्सी से बाँधकर कविता को कुर्सी संग
उससे करवाना चाहते हैं कुछ कुबूल।

वे शुरू करते हैं उसे एक पाइप से पीटना
ताकि जान सकें कि क्या है इसका सचमुच का अर्थ।
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* ( चित्र : क्रिस लोकार्ट  की  कृति  'स्ट्राबेरी  पोएम', गूगल छवि से साभार)

गुरुवार, 9 जनवरी 2014

लेखकों को सुझाव : बिली कालिंस

अध्ययन और अभिव्यक्ति की साझेदारी के  इस मंच पर नए बरस की पहली पोस्ट के रूप में विश्व कविता के सुधी पाठकों - प्रेमियों -कद्रदानों के लिए  आज प्रस्तुत है अमेरिकी  कवि  बिली कालिंस की यह एक कविता जो  मेरी समझ से हर देश - काल  में रचनाप्रक्रिया और रचनात्मक ईमानदारी  की राह - रेशे खोलती - सुलझाती  - सिखाती हमे साथ - साथ लिए जाती है...


बिली कालिंस की कविता
लेखकों को सुझाव
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

भले ही खप जाए इसमें सारी रात
मगर एक हर्फ़ लिखने से पूर्व
धो डालो दीवारें और रगड़ डालो अपने अध्ययन कक्ष का फर्श।

साफ कर दो सब जगहें
गोया इसी राह से  गुजरने वाले हैं पोप आदि
प्रेरणाओं की सुहृद हैं दाग -धब्बाहीन जगहें।

तुम जितनी सफाई करोगे
उतनी ही प्रतिभावान होगी तुम्हारी लिखावट
इसलिए संकोच मत करो
छान डालो खुली जगहें
माँज डालो शिलाओं के कोने आँतरे
घने जंगलों की ऊँची शाखाओं पर फेर आओ फाहे
जिन पर लटके हैं अंडों से भरे हुए तमाम घोंसले।

जब तुम राह पाओगे अपने घर की
और झाड़न व झाड़ुओं को सहेजोगे सिंक के नीचे
तब तुम निहार सकोगे भोर के उजास में
अपने डेस्क की बेदाग वेदिका
एक साफ दुनिया के मध्य एक निर्मल सतह।

नीली आभा से चमक रहे
एक छोटे से गुलदान से
जिसकी हो सबसे धारदार नोक
उठाओ एक पीली पेंसिल
और भर दो कागज को छोटे- छोटे वाक्यों से
कुछ इस तरह
जैसे कि समर्पित चींटियों की लम्बी कतार
जंगलों से चली आ रही हो  तुम्हारे पीछे - पीछे - पीछे।