शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

वसन्त का कोई शीर्षक नहीं

सुन रहा हूँ कि वसन्त आ गया है! आज कुछ यूँ ही लिख दिया है कविता की तरह..इस यकीन के साथ कि यदि निज व निकट के जीवन प्रसंगों में कहीं नहीं दिखता है वसन्त तो कविता में , और सिर्फ कविता में वह तो है मात्र एक स्वप्न ..एक क्षतिपूर्ति..शीत से सिहरे दिनों में उष्णता का स्पर्श भरने वाला एक अग्निहीन अलाव ..शायद..खैर

वसन्त : दो छोटी शीर्षकहीन कवितायें

०१-

तुम्हें निहारता रहा
बस यूँ ही
देर तक।

सहसा
सुनाई दी
वसन्त की धमक।

०२-

फोन पर
लरजता है वही एक स्वर
जिसे सुनता हूँ
दिन भर - रात भर।

छँट रहा है कुहासा
लुप्त हो रही है धुन्ध
इधर - उधर
उड़ - उड़ कर।

मैं कोई मौसमविज्ञानी तो नहीं
पर सुन लो -
आज के दिन
कल से ज्यादा गुनगुना होगा
धूप का असर।

सोमवार, 25 जनवरी 2010

बाहर लगातार बढ़ रहा है सूर्य का ताप


कल दिन भर घर से बाहर रहा। दोपहर में आनेवाला अखबार भी नहीं देख सका। अगर शाम को एक सहकर्मी का एस.एम.एस. न आता तो ध्यान भी न आता कि आज (२४ जनवरी को ) 'नेशनल गर्ल चाइल्ड डे' है। इसके बाद बिटिया ने अखबार सामने धर दिया कि बाँचो। देखा तो अखबार के कुल तीन पृष्ठ इसके बारे में हैं । सुबह आने वाले हिन्दी के अखबार में तो ऐसा कुछ था नहीं ! खैर, यह हिन्दी की दुनिया है ! इसी बीच बिजली चली गई और कंप्यूटर वाले डाक्टर आ गए। अपना पुराना कबाड़ तलाशा गया और पाया गया कि आज से कई बरस पहले 'लड़कियाँ' शीर्षक से कुछ कवितायें लिखी थीं जो 'वैचारिकी संकलन' के नवम्बर - दिसम्बर के अंक में १९९६ 'लड़कियाँ : छह कवितायें' शीर्षक से प्रकाशित हुई थीं। रात में सोचा कि ब्लाग पर कुछ लिखूँ किन्तु आलस्य ने धर दबोचा और अभी सुबह कुछ खटर- पटर चल रही है। 'लड़कियाँ' सीरीज की कुछ अन्य कवितायें भी हैं जो डायरी और फाइलों में बन्द हैं। वे ज्यादातर लम्बी कवितायें हैं उन्हें ब्लाग पर लगाने से बचते हुए आज एक दिन बाद ही सही उन्हीं में चुनिन्दा तीन कवितायें आपके साथ साझा करने का मन हो रहा है:




01- यह मैं हूँ !

यह घर मेरी माँ का है
बाहर की दुनिया
पापा की है
मोटर बाइक भैया की है
और खिलौने छोटू के हैं।

लड़कियाँ घबराकर
दिन में कई - कई बार शीशा देखती हैं
और सोचती हैं
- यह मैं हूँ
- यह मेरा चेहरा है।

02- साक्ष्य

वे सड़क पर हैं
मोबाइल पर बतियातीं
या कि सबके होने को
अस्वीकार करतीं
अपने भीतर ही गड्ड - मड्ड।

वे हैं
हर जगह
हर कहीं
अपने होने को साबित करतीं
उनके होने से ही है इस दुनिया का होना।


03- बेटी

घास पर
ठहरी हुई ओस की एक बूँद
इसी बूँद से बचा है
जंगल का हरापन
और समुद्र की समूची आर्द्रता।

सूर्य चाहता है इसका वाष्पीकरण
चंद्रमा इसे रूपायित कर देना चाहता है हिम में
मधुमक्खियाँ अपने छत्ते में स्थापित कर
सहेज लेना चाहती हैं इसकी मिठास
कवि चाहते हैं
इस पर कविता लिखकर अमरत्व हासिल कर लेना।

मैं एक साधारण मनुष्य
एक पिता
क्या करूँ?
चुपचाप अपनी छतरी देता हूँ तान
गो कि उसमें भी हो चुके हैं कई - कई छिद्र।

बाहर लगातार
बढ़ रहा है सूर्य का ताप
क्या करूँ मैं ?
क्या कर रहे हैं आप ?


बुधवार, 20 जनवरी 2010

वसंतागम और 'सब्जी है उपहार प्रकृति का'

शिशिर का हुआ नहीं अन्त
कह रही है तिथि कि आ गया वसन्त !

अभी कुछ देर पहले एक कार्यक्रम से लौटा हूँ। सरस्वती पूजा , वसन्त पंचमी और निराला जयन्ती को लेकर कस्बे में एक आयोजन था जिसमें बहुत कुछ सुनने को मिला। आज सुबह का अख़बार भी ' सखि वसन्त आया' की पंक्ति लेकर नमूदार हुआ था। सुना है , पढ़ा है कि वसन्त आ गया है लेकिन इतनी भयंकर शीत है यकीन नहीं हो रहा है उसके आगमन का। जाड़े की वार्षिक छुट्टियों का आज आखिरी दिन है। इस बीच लगभग दो सप्ताह तक घर में खूब मौज रही। कुछ लिखना पढ़ना भी हो ही गया लेकिन बाकी तो मौजा ही मौजा। अभी १६ जनवरी को बेटे अंचल जी का 'हैप्पी बर्थडे' था सो खूब मस्ती हुई और इसी में वह कविता जैसा कुछ बन गया जो इससे ठीक पहले की पोस्ट के रूप में आप सबके साथा साझा किया गया। बेटा और बेटी की शिकायत थी कि मम्मी के लिए तो कविता लिख दी लेकिन हमारे लिए कुछ नहीं लिखा। हमने कहा कि लो जी, अभी लिख देते हैं जब ठंड में सारी दुनिया सो राही है तो हमरे भीतर का 'कबी' जाग रहा है और कल शाम को एक तुकबन्दी - सी हो गई। आज दोपहर में उसे टाइप भी कर लिया और अब जबकि रात घिरने जा रही है ,सर्दी की रंगत रंग ला रही है और लोगबाग वसन्त की अगवानी में अपनी अभिव्यक्ति कर रहे हैं तब सारी चीजों को दरकिनार करते हुए बेटे अंचल जी के लिए लिखी एक कविता साझा कर रहा हूँ। अंचल जी ने इसी महीने की १६ तारीख को अपना जन्मदिवस मनाया है और वे क्लास थी -बी में पढ़ते हैं। सब्जी तो वे खाते हैं लेकिन कम - कम।उनसे कहा गया है कि अगर लम्बाई बढ़ानी है तो सब्जी खूब खाओ। तो आइए देखिए पढ़िए यह कविता:


सब्जी खाओ अंचल भाई !

सब्जी से बढ़ती लम्बाई।
सब्जी खाओ अंचल भाई।

देखो ये जाड़े के दिन हैं
सब्जी की है आमद भारी।
मंडी कितनी हरी - भरी है
सजी - धजी है तर- तरकारी।

तुम यह याद हमेशा रखना
सब्जी से मिलती गरमाई।

सब्जी में तो गुण अनेक हैं
पौष्टिकता है इनमें सारी ।
तन्दुरुस्त तन सब्जी रखती
दूर रहे इनसे बीमारी।

तुमको बहुत बड़ा है बनना
ऊँची रखनी है ऊँचाई।

तुम तो एक अच्छे बच्चे हो
खाते गोभी मूली शलजम।
पालक से परहेज नहीं है
मेथी बथुआ भाए हरदम।

सब्जी है उपहार प्रकृति का
खाओ इसे और करो पढ़ाई।

सब्जी से बढ़ती लम्बाई।
सब्जी खाओ अंचल भाई।
________

* इस सीरीज की एक किश्त बाकी है बिटिया के लिए कुछ लिखना है वह भी जल्द ही
* क्या लिखा जाय ?

शनिवार, 16 जनवरी 2010

विबग्योर बिखराए प्रेम का यह प्रिज्म


छंदबद्ध, लयबद्ध व तुकान्त कविताओं के लिए मेरे मन में बहुत आदर का भाव है किन्तु जबरदस्ती की तुकमिलावन और त्वरित तुकबन्दी को पढ़ने - गढ़ने के लिए मेरे पास न तो समय है और न जगह। आज यूँ ही फरमाइश पर कुछ लिख रहा था और जब उसका पहला ड्राफ़्ट घर में सुनाया तो हाय - हाय मच गई। सुझाव पर सुझाव कि तुम तो वही लिखो जो तुम्हें लिखना आता है , यह सब तुक - वुक बिल्कुल नहीं सुहाता है। मैं ने कहा क्या करूँ कभी - कभी चुनौती के रूप में लिया गया काम गले पड़ जाता है और अच्छा भला आदमी 'कबी जी' बन जाता है। आज सर्दी चरम पर है। अपनी तो हालत यह है कि रजाई में तसव्वुरे जानां किए औंधे पड़े हैं और मूँगफलियों पर प्यार उमड़ रहा है। आज बच्चों ने भी स्कूल से बंक मार ली किन्तु कोई है जो इस भयंकर ठंड में भी पूरे कुनबे के लिए कुछ न कुछ किए जा रहा है। उसे कभी तीन शब्दों से बना वह छोटा - सा वाक्य नहीं कहा जो पिछली शताब्दी में इस पृथ्वी पर शायद सबसे अधिक बार बोला गया होगा। हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया तरह - तरह की चीजें सामने ला रही हैं। एक बनते हुए संसार में हम सब अपने - अपने स्तर पर योगदान कर रहे हैं और अभिव्यक्ति के भंडार को भर रहे हैं। पता नही मेरी यह अभिव्यक्ति कैसी है! किन्तु पूरा यकीन दिलाता हूँ कि इसमें जबरदस्ती की तुकमिलावन और त्वरित तुकबन्दी तो बिल्कुल नहीं है। यह वही चीज है जिसे मैं अपनी भाषा की तमीज में 'ब्लाग कविता' कहता हूँ। तो आइए देखिए , पढ़िए यह ब्लाग कविता आई मीन एक सीरियस ब्लाग कविता :


लिरिकल रिफ़्लेक्शंस

तू मेरी पेचकस मैं अदना सा स्क्रू
आई लव आई लव आई लव यू।

करती नहीं तुम कभी भी इफ़ आर बट
वैसे हममें भी अक्सर होती है झंझट
अपना यह घर जैसे कोई वर्कशाप है
बच्चे हमारे हैं ये छोटे- छोटे नट ।

विबग्योर बिखराए प्रेम का यह प्रिज्म
बनी रहे दुनिया यह गुड नाइस न्यू।
आई लव आई लव आई लव यू।
**
दुनिया में हर तरह का राग है खटराग भी
बुरी - बुरी साइट्स इसमें अच्छे - अच्छे ब्लाग भी
इसमें ही हँसना है रोना भी इसमें ही
इसमें ही खोजना है जल भी और आग भी।

बात थी मजाक की सीरियस - सी हो गई
चलती रहे गड्डी फारवर्ड एन्ड थ्रू।
आई लव आई लव आई लव यू।

तू मेरी पेचकस मैं अदना सा स्क्रू
आई लव आई लव आई लव यू।
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चित्र परिचय : कोई भी मौसम हो ये कबूतर अपने घर पास की दुकान के पास बिजली के तार पर यूँ ही बैठते हैं , अक्सर लम्बी और ऊँची उड़ान के बाद। उन्हें भी तीन शब्दों वाला वही वाक्य !

सोमवार, 11 जनवरी 2010

पृथ्वी की उर्वरा को निचोड़कर

आजकल सर्दी सब पर भारी है। बीच - बीच में घना कोहरा भी घिर आता है। आज तो पूरे दिन कोहरा बूँद - बूँद कर बरसता रहा। फिर भी सब कुछ अपनी चाल चल रहा है। अभी कुछ देर पहले ही कुछ लिखा है उसी का एक कवितानुमा हिस्सा साझा करते हैं सबके साथ :


सुन्दर - असुन्दर

जो सहा है
वही तो कहा है


फिर भी
जो अनकहा है
वही तो
कहने को मन कह रहा है।
* *
चलता रहेगा यूँ ही
सहना
कुछ कहना
और कुछ कहे के बावजूद
बहुत - बहुत कुछ बचा रहना।


अभी सर्दियों के दिन हैं
ठिठुरी कठुआई है धूप
मन्द पड़ गया है सूर्य का उत्ताप
कुहरे में समाया हुआ है संसार
फिर भी
साफ देखा जा सकता है-
क्या है सुन्दर और क्या है कुरूप ?
* * *
यह जाड़ा
यह ठंडक
यह सर्दी
पृथ्वी की उर्वरा को निचोड़कर
गेहूँ की फसल के हृदयस्थल में
जरूर ले आएगी सुडौल पुष्ट दाने।


नहरों - ट्यूबवेलों - कुओं का मीठा पानी
उनकी नसों में तेज कर देगा रक्तसंचार।
कुदाल थामे हाथों की तपिश
दिलासा देगी कि अब दूर नहीं है वसन्त।

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चित्र परिचय : अपनी छत से कुछ ऐसे ही दिखते हैं गेहूँ से हरियाए खेत और उनसे सटा जंगल।

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

अब मैं अनुपस्थित इच्छाओं की एक चमकीली राख हूँ


आधुनिक पोलिश कविता के बड़े नामों -विस्वावा शिम्बोर्स्का और हालीना पोस्वियातोव्सका की कवितायें आप पहले पढ़ चुके हैं। ये वे नाम हैं जिनके कारण पोलैंड के साहित्य के जरिए एक नई दुनिया से परिचित होते हैं और अपनी दुनिया को एक नई निगाह से देखने के लिए कोशिश की एक धूप , रोशनी और हवा को भरपूर जगह देने वाली एक खिड़की खुलती - सी दीखती है। इसी क्रम में आज ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का की दो कवितायें प्रस्तुत हैं।ग्राज़्यना का जन्म २१ अक्टूबर १९२१ को लुबलिन में हुआ था और नाज़ी जर्मनी के काल में वह भूमिगत संगठन के० ओ० पी० की सक्रिय सदस्य थीं। उन्हें और उनकी बहन को ८ मई १९४१ को गेस्टापो ने गिरफ़्तार कर लिया गया और कुछ महीनों के बाद खास तौर पर महिला बंदियों के लिए बनाए गए रावेन्सब्रुक ( जर्मनी ) के यातना शिविर में डाल दिया गया था और वहीं १८ अप्रेल १९४२ को उनकी दु:खद मृत्यु भी हुई। मात्र इक्कीस बरस का लघु जीवन जीने वाली इस कवयित्री की कविताओं से गुजरते हुए साफ लगता है कि वह तो अभी ठीक तरीके से इस दुनिया के सुख - दु:ख और छल -प्रपंच को समझ भी नहीं पाई थी कि अवसान की घड़ी आ गई। इस युवा कवि की कविताओं में सपनों के बिखराव से व्याप्त उदासी और तन्हाई से उपजी की तड़प के साथ एक सुन्दर संसार के निर्माण की आकांक्षा को साफ देखा जा सकता है। तो लीजिए प्रस्तुत हैं ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का की दो कविताओं के हिन्दी अनुवाद :





ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का की दो कवितायें

( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

०१- पत्थर

अच्छा लगता है मुझे पत्थरों को निहारना
वे होते हैं नग्न और सच की तरह साधारण
वे होते हैं रूखे चुप्पा अस्तित्व।
उनके पास आँसू नहीं होते
न ही प्यार
और कोई शिकायत भी नहीं
इस वृहदाकार और चौरस पृथ्वी पर
वे होते हैं यूँ ही धरी हुई कोई चीज।

वे होते हैं चाहनाओं से परे
आशाओं से आजाद
निश्चेष्ट
रिश्तों से विलग
- हालांकि उनमें भी दु:ख शेष होता है अभी
कठोर वास्तविकता से भरे होने का -
वे होते हैं भ्रम से विमुक्त
और अपनी निरर्थकता में अकेले।

और मैं किसी चीज के मारे
दु:ख से भरी हुई हूँ मूर्खता की हद तक
जो मूक पत्थरों के मध्य किए जा रही हूँ विलाप
और सोच रही हूँ कि हवायें उन्हें चूर - चूर कर देंगीं।

तूफान गुजर जाते हैं चुपचाप
और कुछ नहीं बिगड़ता पत्थरों का
वे वैसे ही बने रहते हैं
और उन पर नही चलता किसी का जोर
क्योंकि उनमें जीवंत हो गया है जीवन
और वे परिवर्तित होकर बन गए हैं मनुष्यों का हृदय।

( रावेन्सब्रुक ,१९४१)
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०२- अग्निमयी*

बहुत पहले ही
दु:ख ने मुझे अपनी गिरफ़्त में ले लिया था
मैंने स्वयं को झुलसा लिया था बहुत पहले ही
अब मैं अनुपस्थित इच्छाओं की एक चमकीली राख हूँ।

अब तो सन्नाटा और सूनापन ही
करता है मुझे सहन व लुटाता है मुझ पर प्यार।
न जाने कब से
मैं अब भी
मैं अब तक
खड़ी हूँ आग के बीचोंबीच स्थिर - अडोल।

( रावेन्सब्रुक ,१३ अप्रेल,१९४२)
* कविता शीर्षकहीन। यह शीर्षक अनुवादक द्वारा दिया गया है।

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*** ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का की एक अन्य कविता 'कबाड़खाना' पर देखें।
*** ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का की कुछ और कविताओं के अनुवाद शीघ्र ही।

शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

हैप्पी - हैप्पी के हर्षातिरेक में उभ-चुभ कर रहा है सारा संसार


आज नए साल का पहला दिन है। सभी को नया साल मुबारक! हैप्पी न्यू ईयर ! नए वर्ष की मंगलकामनायें !

परसों एक नया कैलेण्डर खरीदकर लाया था और कल एक नई कविता लिखी गई जो शाम को जाते हुए साल की विदाई और नए साल की अगवानी में आयोजित में आयोजित एक कवि गोष्ठी में सुनाई गई। आज ,अभी , इस वक्त जब नए कैलेन्डर ने पुराने की जगह ले ली है तब वह कविता ( जो दरअसल एक कविता के तीन टुकड़े हैं या फिर तीन अलग - अलग कविताओं की एक कविता है ) सबके साथ साझा करने का मन है। सो , आइए इसे देखें , पढ़ें और नए साल में खुद के लिए तथा देश - दुनिया के लिए कुछ नया गढ़ें :


नया साल : तीन बेतरतीब अभिव्यक्तियाँ

01-

हर बार कैलेन्डर आखिरी पन्ना
हो जाता है सचमुच का आखिरी
हर बार बदलती है तारीख
और हर बार आदतन
उंगलियाँ कुछ समय तक लिखती रहती हैं
वर्ष की शिनाख्त दर्शाने वाले पुराने अंक।

हर बार झरते हैं वृक्ष के पुराने पत्ते
हर बार याद आती है
कोई भूली हुई - सी चीज
हर बार अधूरा - सा रह जाता है कोई काम
हर बार इच्छायें अनूदित होकर बनती हैं योजनायें
और हर बार विकल होता है
सामर्थ्य और सीमाओं का अनुपात।

हर बार एक रात बीतती है -
कु्छ - कुछ अँधियारी
कुछ - कुछ चाँदनी से सिक्त
हर बार एक दिवस उदित होता है -
उम्मीदों की धूप से गुनगुना
और उदासी के स्पर्श क्लान्त।

02-

हर बार
बार - बार ऐसा होना आखिरी बार लगता है
क्या कहा जाय इसे?

अगर कबीर का एक शब्द उधार लूँ
तो कहना पड़ेगा - 'माया'
और अगर निराला के निकट जाऊँ
तो 'जलती मशाल' जैसे दो शब्दों में कही जा सकेगी बात।

छोड़ो भी
ये सब किताबी बातें हैं शायद
नाकारा लोग इनसे करते हैं अपना दिमाग खराब
आओ खराब शब्द का तुक शराब से मिलायें
नाचें
गायें
पीयें
खायें
अघायें
उल्टियायें
गँधायें
दिखा दें अपनी सारी कलायें
और भूल जायें कि बाहर काली रात कर रही है सायँ - सायँ।

03-

स्वयं के अस्तित्व से
भारी हो गई है शुभकामनाओं की खेप
हैप्पी- -हैप्पी के हर्षातिरेक में
उभ-चुभ कर रहा है सारा संसार।
सर्दियों की रात है ओस और कुहासे से भरी
ऊँचे पहाड़ों पर शायद गिरी है बर्फ़
तभी तो कड़ाके की ठंडक यहाँ तक आ रही है नंगे पाँव।

ग्लोबल वार्मिंग की बहस और बतकही के बावजूद
अभी बचा हुआ है बहुत सारा सादा पानी
आओ पौधों को थोड़ा सींच दें
नही तो उन्हें मार डालेगा पगलाया हुआ पाला।

माना कि जश्न की रात है
मगर इतना तो मत करो शोर
कि उचट जाए
घोंसले में दुबके ( बचे खुचे) पक्षियों की नींद
उन्हें सुबह काम पर जाना है
और नए साल में नए घोंसले के लिए नया तिनका लाना है।