आजकल सर्दी सब पर भारी है। बीच - बीच में घना कोहरा भी घिर आता है। आज तो पूरे दिन कोहरा बूँद - बूँद कर बरसता रहा। फिर भी सब कुछ अपनी चाल चल रहा है। अभी कुछ देर पहले ही कुछ लिखा है उसी का एक कवितानुमा हिस्सा साझा करते हैं सबके साथ :
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सुन्दर - असुन्दर
जो सहा है
वही तो कहा है
फिर भी
जो अनकहा है
वही तो
कहने को मन कह रहा है।
* *
चलता रहेगा यूँ ही
सहना
कुछ कहना
और कुछ कहे के बावजूद
बहुत - बहुत कुछ बचा रहना।
अभी सर्दियों के दिन हैं
ठिठुरी कठुआई है धूप
मन्द पड़ गया है सूर्य का उत्ताप
कुहरे में समाया हुआ है संसार
फिर भी
साफ देखा जा सकता है-
क्या है सुन्दर और क्या है कुरूप ?
* * *
यह जाड़ा
यह ठंडक
यह सर्दी
पृथ्वी की उर्वरा को निचोड़कर
गेहूँ की फसल के हृदयस्थल में
जरूर ले आएगी सुडौल पुष्ट दाने।
नहरों - ट्यूबवेलों - कुओं का मीठा पानी
उनकी नसों में तेज कर देगा रक्तसंचार।
कुदाल थामे हाथों की तपिश
दिलासा देगी कि अब दूर नहीं है वसन्त।
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चित्र परिचय : अपनी छत से कुछ ऐसे ही दिखते हैं गेहूँ से हरियाए खेत और उनसे सटा जंगल।
8 टिप्पणियां:
". ... ... अब दूर नहीं है वसन्त!"
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एक कवि कैसे करता है -
सबको गुमराह?
बता रही है -
इस कविता की यह अंतिम लाइन!
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मैंने तो अभी-अभी देखा है -
उसके हृदय की घाटी में
दूर-दूर तक महकता-मुस्कराता
अभिनव वसंत!
संग गई सूरज के धूप आज पर्वत पर,
फ्रीज़र की कुल्फी-सा पका हुआ दिन!
हमें पसंद आई..
bahut hi badhiyaa
यह जाड़ा
यह ठंडक
यह सर्दी
पृथ्वी की उर्वरा को निचोड़कर
गेहूँ की फसल के हृदयस्थल में
जरूर ले आएगी सुडौल पुष्ट दाने।
यक़ीनन ......हमें उम्मीद का दामन थामे रखना है ......!!
(कुछ तस्वीरें और लगाई हैं और भाग लेने वाले कवियों के नामों की सूचि भी लगाऊंगी ....!!)
bahut achcha likha hai... Ashavaad... positive...
सुन्दर कविता! चित्र देख गेंहूं के खेत देखने का मन हो आया। फिलहाल तो दिल्ली की सर्दी झेल रहें हैं।
दुख के बाद सुख की परिकल्पना का सुन्दर दृश्य!
सच ही तो है ठिठुरन के बाद ही बसन्त के आगमन के महत्व का भान होता है!
लोहिड़ी पर्व और मकर संक्रांति की
हार्दिक शुभकामनाएँ!
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