बुधवार, 29 सितंबर 2010

नींद और सृजन : वेरा पावलोवा की दो कवितायें


कविता की कोई खास समझ नहीं मुझे । लेकिन जब भी कहीं कुछ अपने मन का , अच्छा - सा पढ़ने को मिल जाता है तो मन करता है कि हिन्दी ब्लॉग की बनती हुई दुनिया में इत - उत ओर फैले असंख्य कविता प्रेमियों के साथ साझा किया जाय। बस यही सोचकर कभी कभार अनुवाद कर लिया करता हूँ। हिन्दी के कुछेक मशहूर विद्वानों ने कहीं कहा है कि अनुवाद और वह भी कविता का अनुवाद , एक नीरस - सा काम है और एक तरह से कविता के मौलिक आस्वाद का विपर्यय भी। खैर जो भी हो अनुवाद मेरे वास्ते एक सेतु है जिस पर चलते हुए अन्य भाषा की कविता - सदानीरा की सरसता से किंचित निकटता बनी रहती है। बहुत आभारी हूँ कि इस ब्लॉग पर और अन्यत्र भी मेरे अनुवाद कर्म को ठीकठाक माना गया है। अतएव , आभार , शुक्रिया दिल से !

वेरा पावलोवा ( जन्म : १९६३ ) की कुछ कवितायें आप कुछ समय पहले 'कर्मनाशा' व 'कबाड़ख़ाना' के पन्नों पर पढ़ चुके हैं । समकालीन रूसी कविता की इस सशक्त हस्ताक्षर से अपना परिचय बहुत पुराना नहीं है किन्तु छोटी - छोटी बातों और नितान्त मामूली समझे जाने वाले प्रसंगों को उन्होंने बहुत ही छोटे  काव्य - कलेवर में उठाने की जो महारत हासिल की है वह एक बड़ी बात है। वेरा का एक संक्षिप्त परिचय यहाँ है। आइए आज बार फिर पढ़ते - देखते हैं उनकी दो कवितायें :

वेरा पावलोवा की दो कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

०१- नींद

कुछ इस तरह
सो रही है एक लड़की
जैसे किसी के सपनों में
चलती चली जा रही हो दबे पाँव ।

एक औरत
कुछ इस तरह सो रही है
मानो आने वाले कल से
शुरू होने जा रहा हो कोई युद्ध।

एक बूढ़ी स्त्री
इस तरह सो रही है
जैसे कि बहाना कर रही हो मृत्यु का
इस उम्मीद में कि उसे बिसार देगी मौत
और चली जाएगी नींद के सीमान्त की ओर।

०२- सृजन

अनश्वर करो मुझे क्षण भर के लिए :
बर्फ़ के फाहे लो मुठ्ठी भर
और उसके भीतर मूर्त करो मेरा स्थापत्य।

अपनी गर्म और खुरदरी हथेलियों से
सँवारो मुझे तब तक
जब तक कि मेरे भीतर से
प्रकट न होने लग जाये प्रकाश।

रविवार, 26 सितंबर 2010

ओह! सहज होना भी कितना कठिन है !


प्रोफेसर शिवदासन से मैं कभी नहीं मिला और अब मिल भी नहीं पाऊँगा क्योंकि वे इस इस नश्वर संसार को छोड़कर अनश्वरता में विलीन हो गए हैं। उनके बारे में इतना सुना / पढ़ा है कि बिना मिले / बिना देखे उनसे 'मिलना' हो चुका है। इस बार कोशिश थी सर्दियों में जब केरल जाना होगा तो उनसे साक्षात मिलना हो सकेगा किन्तु आज २६ सितम्बर २०१० को सामाजिक परम्परा के अनुसार देहावसान के 41वें दिन, आज दिनांक 26 सितम्बर, ‘10 को स्वर्गीय शिवदासन के केरल स्थित निवास स्थल पर शोक-सभा आयोजित है। खबर है कि आज के दिन स्थानीय समाचार पत्रों में उनके बाबत काफी कुछ छपा है और उनके सहयोगियों / सहकर्मियों ने उन्हें , उनके काम को , उनकी मनुष्यता को सच्चे दिल से स्वीकार किया है। यह भी खबर है कि यह सब रस्मी और औपचारिक नहीं है अपितु एक आत्मीय की स्मृति का सहज प्रकटीकरण है। आज की दुनिया में यह सब विरल और अश्चर्य जैसा लगता है।

कौन थे प्रोफेसर शिवदासन ? क्या वे बहुत बड़े आदमी थे ? उनकी कीर्ति - कथा के वाचकों और चुपचाप स्वगत बाँचने वालों के उद्गार देख - पढ़ - सुनकर तो लगता है कि अंग्रेजी भाषा और साहित्य का यह विद्वान अध्यापक समकालीन प्रचलित मुहावरे में 'बहुत बड़ा आदमी' भले ही न रहा हो किन्तु सचमुच में एक 'आदमी' जरूर था - बड़प्पन से से भरा और आदमीयत की वास्तविकता से दीप्त। 

प्रोफेसर शिवदासन से मैं कभी नहीं मिला और अब मिल भी नहीं पाऊँगा फिर यह सब क्यों और किस आधार पर लिख रहा हूँ ? मेरे पास आधार है। उनके एक निकट सहयोगी / सहकर्मी / साथी का आलेख (अब तो लौट आओ यायावर ! ) जो मेल से मिला है। शिवाजी कुशवाहा राज्य शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद रायपुर (छत्तीसगढ) में अंग्रेजी के प्राध्यापक हैं। इससे पूर्व वह शासकीय शिक्षा महाविद्यालय, बिलासपुर ( छत्तीसगढ़ )  और शिक्षक-प्रशिक्षक के रूप में क्षेत्रीय आंग्ल संस्थान, दक्षिण भारत ( बंगलूरू ) में भी काम कर चुके हैं। आज 'चालीसवाँ' के दिन उन्होंने मूल अंग्रेजी में लिखे और हिन्दी में स्वयं पुनर्सृजित  अपने आलेख में प्रोफेसर शिवदासन को जिस आत्मीयता से याद किया है और अपने अंतस में उपजती रिक्तता को शब्द दिए हैं उसे पढ़कर / महसूस कर रश्क होता है कि उनके साथ (उनके अधीन नहीं) काम कर चुके लोग उम्हें कितना चाहते रहे होंगें / रहे हैं। विश्व - रंगमंच से  प्रस्थान के बाद मंच पर, प्रेक्षागृह में और नेपथ्य में गूँजती - अनुगूँज करती इस 'धुन' को 'सुनते' हुए यही लगता है कि एक इंसान, एक अध्यापक और एक सहकर्मी की 'कीर्ति - कथा' के श्रवण का पुण्य लाभ हम भी करें साथ ही यह भी कि यदि हम प्रोफेसर शिवदासन जैसा न भी बन सकें तो कम से कम हमें उनके जैसा एक साथी जरूर मिले ताकि 'पनघट की कठिन डगर' पर चलना ठीकठाक हो सके ! तो लीजिए प्रस्तुत है शिवाजी कुशवाहा का यह आलेख  या स्मृति लेखा :




अब तो लौट आओ, यायावर!
( प्रोफेसर शिवदासन को याद करते हुए शिवाजी कुशवाहा )

यादों की शक्ल में पिछली बातें कुछ परेशां कर रही है । स्मृति यात्रा की इजाज़त देंगे आप?

अगस्त 27, 2004. शिक्षक-प्रशिक्षक के रूप में क्षेत्रीय आंग्ल संस्थान, दक्षिण भारत, में कार्य करते मुझे जुम्मा-जुम्मा सात दिन ही हुए थे । लम्बे गलियारे में तेज़ कदम भरता हुआ मैं क्लास में जा रहा था कि सामने एक सज्जन पर दृष्टि पड़ी जो अपनी डायरी के पन्ने पलटते अन्यमनस्क से चल रहे थे । अचानक हवा का एक झोंका आया और कुछ क़ागज़ी टुकड़े हवा में तैरने लगे । हड़बड़ाये से उन सज्जन ने सभी टुकड़ों को समेटा और स्वयं को सामान्य करने का असफल प्रयास कर, खिसियानी हँसी के साथ बोले ‘‘दरअसल.... मैं......... मुझे...... ये वे ट्रेन-टिकट हैं जिनका प्रयोग मुझे आने वाले पन्द्रह दिनों में करना है ।‘‘ कुल आठ टिकटें! मैंने उस व्यक्ति को गौर से देखा - साठ से अधिक बसन्त देखा हुआ दुबला पतला, सामान्य कद का व्यक्ति, चेहरे पर ऐसी स्थायी स्मित जो मुर्दों में जान फूँक दे । उनके व्यक्तित्व की सबसे अनोखी बात थी उनके केश का उनकी ऑंखों के साथ बिल्कुल ही तारतम्य न बैठना । सन की तरह धवल केश उनके उम्र की चुगली कर रहे थे, किन्तु आंखों में ऐसी दपदपायी चमक जो आज के किशोरों में भी शायद ही देखने को मिले । स्वाभाविक ही था कि इस व्यक्ति में मेरी रुचि बढे़ ।

‘‘अच्छा, तो ये हैं डॉ. शिवदासन! मलयालम साहित्य प्रेमियों को स्टाइलिस्टिक्स से परिचित कराने वाले अंग्रेजी के भाषाविद!!‘‘ यदि मुझ जैसे अन्तर्मुखी को उनसे नज़दीकी रिश्ता बनाने में ख़ास वक्त नहीं लगा तो श्रेय जाता है उनकी उदात्त प्रवृत्ति और सहजता को । ओह! सहज होना भी कितना कठिन है !

उनसे सम्बन्धित जो बात मुझे हमेशा परेशान करती रही है, वह है उनका अजीब सा संतुलन-कौशल । समझ में नहीं आता कि एक ओर गम्भीर अध्ययन और दूसरी ओर अनवरत यात्राएं । कैसे संतुलन करते हैं लोग इनके मध्य? शिक्षक-प्रशिक्षण या सम्मेलन के सिलसिले में जब दूरदराज़ जाने की बात आती तो संस्थान के सभी लोग एक सुर में ‘नहीं‘ कह देते । ऐसे अवसरों पर एक ही व्यक्ति संस्थान का प्रतिनिधित्व करता, वे हैं डॉ. शिवदासन - लम्बी यात्राओं या उन स्थानों की असुविधाओं से पूर्णरूपेण परिचित होने के बावजूद । घुमक्कड़ी की दुनिया का सरताज मानता आया था मैं स्वयं को, किन्तु उनसे परिचय प्राप्त करने के बाद अपनी पराजय सहर्ष स्वीकार करने के अलावा चारा ही क्या था? ख़ैर, हम दोनों ने, साथ-साथ - कभी शिक्षक- प्रशिक्षण तो कभी भाषा-सम्मेलन तो कभी यूँ ही - ढेर सारी यात्राएं की, देश के कोने-कोने में । इन यात्राओं की सबसे अविस्मरणीय बात यह रही कि उस दौरान शायद ही कोई लम्हा बीता हो जो उनसे अंग्रेजी व मलयालम साहित्य, भाषा-शिक्षण, और सबसे बढ़कर मानवीयता का पाठ न मिला हो । ज्ञान के विपुल भंडार एवं यायावर प्रवृत्ति के मध्य समानुपातिक सम्बन्ध के प्रति मेरा विश्वास बढ़ा है उनसे मिलने के बाद । इस उक्ति को अक्षरश: जिया है उन्होने ‘यह संसार एक पुस्तक है और हर व्यक्ति उस पुस्तक का पृष्ठ!‘नये लोगों से मिलने और नयी जगहों को देखने की ललक ने उन्हे नियमित कक्षाओं या एजूसेट द्वारा प्रसारित शैक्षिक कार्यक्रमों का ऐसा नायक बना दिया जिसकी मांग सजीव उदाहरणों एवं उद्धरणों के कारण सबसे अधिक रहती है ।

हाल-फिलहाल ही कहीं पढ़ा है मैंने, ‘यदि किसी की मानवीयता की परख करनी है तो उसका उन लोगों के प्रति व्यवहार देखें जिनसे उसे कोई आर्थिक या भावनात्मक लाभ न मिले । ‘ मानवीयता की इस कसौटी पर डॉ. शिवदासन बिल्कुल खरे उतरते हैं । उनके साथ (उनके अधीन नहीं) कार्य किये हुए किसी भी चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से उनकी चर्चा भर कर के देखें, तारीफ़ों का सैलाब मिलेगा डॉ. शिवदासन के प्रति । कैसे भूल सकता हूँ वे रातें जब हितेष, अदिति और मैं देर रात - किसी शिक्षक-प्रशिक्षण के उपरान्त - हॉस्टल पहुँचते भूखे, थके-मांदे और हम पाते डॉ. शिवदासन को हमारे लिए विशेष रूप से स्वयं द्वारा तैयार की गयी आलू की स्वादिष्ट सब्जी और केरल के उसना चावल के भात के साथ, और साथ ही थकान दूर करने वाली उनकी चिर-परिचित मुस्कान!

पिछले 16 अगस्त को डॉ. शिवदासन, अपनी आदत के अनुसार हमेशा की तरह - फ़िर यात्रा पर निकल पड़े । परन्तु इस बार अनोखी बात यह हुई कि इतने दिनों बाद भी वे वापस नहीं लौटे हैं, और न ही कोई फ़ोन, न ई-मेल ! 41 दिन! हद है डॉ. शिवदासन! हम सभी आंखें बिछाए आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं और आप हैं कि......।

अब लौट भी आओ, यायावर!!

रविवार, 19 सितंबर 2010

यह भी हो सकता है कि यह कहा जाय कि बारिश तो हुई ही नहीं थी !


कई दिन हुए बारिश है कि रुकने का नाम नही ले रही है। लगातार पानी , पानी और पानी। इधर - उधर, हर तरफ - चारो तरफ जल ही जल । इतनी बरसात भी अच्छी नहीं। अब मन खिन्न - सा होने लगा लगा है। काम पर निकलो तो इतनी तैयारी करनी पड़ती है कि ऐसा लगता है मानो लाम पर जा रहे हों। बाहर से लौटो तो सब कुछ गीला, सीला। सड़कों पर पानी के बीच अवाजाही करते - करते, लगभग सूने - से बाजार में खरीदारी करते अब बहुत अजीब - सा लगने लगा है। यह कोई एक दिन की बात हो तो इसे देख - समझ - झेल लिया जाय लेकिन पिछले कई दिनों से ( अब तो महीना भर होने जा रहा है ) बारिश - बादल का राग सुहा नहीं रहा है। किताबें खोलो या फिर उनके रखने की जगह की ओर देखो तो लगता है बारिश को लेकर / बारिश पर इतना कुछ जो लिखा गया है वह कितना सच है या कितना झूठ यह तो अलग ही किस्म का मसला है लेकिन यह जरूर ध्यान में आता है कि इनके लिखने वाले क्या सचमुच इसी दुनिया में रहते थे या कि इसी दुनिया में रहते हैं?

इस मौसम में यह भी एक अजीब - सी बात कि पिछले तीन दिन से डाकिया लगातार आ रहा है। कोई चिठ्ठी नहीं , कोई पत्री नही ..बस पत्रिकायें और अखबार लेकर। और बारिश है रुकने का नाम नहीं ले रही है....

आज इस गीले - सीले मौसम में कुछ यूँ ही कवितानुमा लिखा है। आइए देखते - पढ़ते हैं:
०१- पत्र

आज बहुत दिनों बाद डाकिया दिखाई दिया।
उसके कपड़े बदल गए थे। मैंने सोचा कि उसे रोककर कुछ सवाल पूछूँ । मसलन :

१- तुम्हारी खाकी वर्दी कहीं फट तो नहीं गई?
२- तुम्हारे घर में चोर तो नहीं घुस आए थे?
३- डाकखाने वालों ने कटौती तो नहीं शुरू कर दी।
४-कपड़ा मिल की हड़ताल अभी चल रही है क्या?
५- तुम्हारी नौकरी तो नहीं चली गई?

( यह सब सोचा लेकिन पूछा कुछ और ही )

- मेरी कोई डाक है क्या?
'आज इतवार है!' डाकिए ने कहा और उसकी साईकिल हवा से बातें करने लगी।

मुझे याद आया यूँ टहलना बहुत हुआ।
अब घर चलना चाहिए। कुछ जरूरी फोन करने हैं।

****

०२- बारिश
बारिश के बाद सब कुछ धुल गया था।
धूल , धुआँ , गर्द ..सब कुछ...।
कहीं और चला गया था वह सब जिसकी अब कोई दरकार नहीं थी।

क्या पता यह सब अपने आप हुआ था या कि इसके लिए किसी ने कोई कोशिश की थी। यह भी हो सकता है कि यह कोशिश, अगर सचमुच हुई थी तो; किसी अकेले की नहीं बल्कि एक से अधिक लोगों की रही हो। 'वे' दो भी हो सकते हैं और दो सौ या दो हजार भी। दुनिया की किसी भी भाषा में एक से अधिक जितनी भी संख्यायें हो सकती हैं उन सबका यहाँ पर अनुमान किया जा सकता है। यह भी हो सकता है कि उन 'एक से अधिक' लोगों की तस्वीर बनाई जा सकती है। उन पर कोई किताब लिखी जा सकती है या कोई स्मारक बनाकर उन सबको अमरत्व प्रदान किया जा सकता है। उन सबका कोई 'दिवस' तय किया जा सकता है। होने को कुछ भी हो सकता है। संभावनाओं की कोई कमी नहीं नहीं।

यह भी हो सकता है कि यह कहा जाय कि बारिश तो हुई ही नहीं थी।

क्या आपको गिनती आती है?
यदि हाँ , तो गिनते रहिए।

संभावनायें कभी खत्म नहीं होतीं।

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

अपनी दैनंदिन साधारणता में भुरभुराता हुआ यह जीवन


कल तीज है - हरितालिका तीज। कल ईद है- मीठी ईद। आज शाम घिरते ही पश्चिम के क्षितिज पर उदित होगा द्वितीया का चाँद। अगर बादलों की मेहरबानी रही तो वह दिखेगा भी कुछ देर तक। आज छुट्टी है - कल भी छुट्टी रहेगी । परसों ईतवार है - छुट्टी का घोषित दिन। छुट्टी माने - यदि फुरसत मिले तो खुद से बोलने - बतियाने , खुद से रूठने - मनाते का दिन। आज जब खुद से संवाद - सा किया तो पता चला कि कितने - कितने दिन हो गए कोई कविता नहीं लिखी। ऐसा नहीं है कि इस बीच लिखना - पढ़ना नहीं हुआ लेकिन आत्म- संवाद के रूप में कविता जैसा कुछ बाहर नहीं आया। जीवन वैसा ही अपनी साधारणता में व्यतीत , विगत होता हुआ। दिन - रात के आवागमन में कोई बाधा नहीं है, फिर भी...। अभी यूँ ही बैठे - बैठे मन हुआ कि पिछले कुछ महीनों - वर्षों में लिखी कविताओं को टटोल कर देखा जाय और उनके भीतर की आर्द्रता का तनिक  अनुभव किया जाय। इसी क्रम में पिछले साल की हरितालिका तीज के दिन लिखी गई एक कविता को इस ठिकाने पर आने वाले कविता प्रेमियों के संग साझा करने का मन है।  यह एक तरह से निज का संवाद है चार दीवारों और एक छत नीचे रहने वाले छोटे से घोंसले के बाशिंदों का। आइए , आप इसे देखें पढ़ें...यह कविता जिसका शीर्षक है : आओ चलें...



आओ चलें
( कविता जैसा एक संवाद) 


तुम -
सितारों की ज्यामितीय कला से प्रेरित
अनंत व्योम की उज्जवलता में
व्यवस्थित - गुंथित
बेहिसाब - बेशुमार - बेशकीमती रेशम.

मैं -
इस पृथिवी के चारों ओर
उपजी - बिलाती वनस्पतियों की साँस से संचालित
हवा में उड़ता - भटकता हुआ
एक अदना - सा गोला भर कपास.

यह एक दूरी है
जो खींच लाई है कुछ निकट - तनिक पास
अपनी दैनंदिन साधारणता में
भुरभुराता हुआ यह जीवन
लगने लगा है कुछ विशिष्ट - तनिक खास.

इसी में छिपी है निकटता
इसी में है एक दबी - दबी सी आग
इसी में है सात समुद्रों का जल
इसी में हैं वाष्प - ऊष्मा - ऊर्जा के सतत स्रोत
इसी में हैं सात आसमानों की प्रश्नाकुल इच्छायें
इसी में रमी है पंचतत्वों से बनी यह देह
जिसमें विराजती हैं कामनाओं की असंख्य अदृश्य नदियाँ
अपने ही बहाव में मुग्ध -अवरुद्ध
एक तट पर विहँसता है राग
और दूसरे पर शान्त मंथर विराग.

फिर भी भला लगता है
अगर रोजाना बरती जा रही भाषा में
तुम्हें कहा जाय रेशम
और स्वयं को कपास.

अपने करघे से एक धागा तुम उठाओ
मैं अपनी तकली से अलग करूँ जरा -सा सूत
बुनें दो - चार बित्ता कपड़ा
और तुरपाई कर बना डालें
दो फुदकती गिलहरियों के लिए नर्म- नाजुक मोजे.

मौसम के आईने में
कोई छवि नहीं है स्थिर - स्थायी
आँख खोल देखो तो
सर्दियाँ सिर पर सवार होने को हैं
पेड़ों से गिरने लगे हैं चमकीले -चीकने पात
आओ चलें
थामे एक दूजे का हाथ
चलते रहें साथ - साथ .

शनिवार, 4 सितंबर 2010

जैसे कि कोई सजल सरिता समुद्र की विशालता में हो जाती है विलीन


रानी जयचंद्रन मलयालम और अंग्रेजी की युवा कवि हैं जो केरल के एक छोटे से कस्बे वर्कला  में रहती हैं। पिछले बरस उनकी अंग्रेजी कविताओं से परिचय हुआ था और इसके माध्यम बने थे बड़े भाई शिवाजी कुशवाहा जो  आजकल रायपुर में अंग्रेजी पढ़ाते हैं। रानी जी ने बड़ी उदारता से अपनी किताब 'ईकोज आफ़ साईलेंस' भिजवाई और उसमे संकलित कविताओं को पढ़कर लगा कि समकालीन भारतीय अंग्रेजी कविता, मैं जितनी भी, जैसी भी  पढ़ पाता हूँ, उसमें यह एक नया और अलग - सा स्वर है जिसे हिन्दी कविता के पाठकों और प्रेमियों से अवश्य परिचित कराया जाना चाहिए। रानी जयचंद्रन की इस कविता - पुस्तक में कुल 22 कवितायें संकलित हैं जो कवितायें समकालीन भारतीय अंग्रेजी कविता के उस रूप - स्वरूप से परिचित कराती हैं जो अपनी जड़ों से गहराई तक संबद्ध है. ये कवितायें अपने निकट की प्रकृति तथा परिवेश से मात्र रागात्मकता और रुमानियत ही ग्रहण नही करतीं बल्कि जीवन - जगत की चुनौतियों व संघर्षों से टकराने के लिए भरपूर ऊर्जा और उत्साह भी हासिल करती दिखाई देती हैं और ऐसा करते हुए वे न तो सपाटबयानी पर उतरती नजर आती हैं और न ही कोई वक्तव्य या सूत्रवाक्य बन कर रह जाती हैं. लयात्मकता , सीधी सरल भाषा , आत्मपरक कहन शैली और लाउड हो जाने से बचने का सचेत आत्म - अनुशासन इस संग्रह की कविताओं की कुछ अन्य खूबियां हैं जो इसे रेखांकित करने योग्य बनाती हैं.  तो इस तरह शुरू हुआ रानी जी की कविताओं के चयन और अनुवाद का क्रम जो अब भी छिटपुट तरीके से चल ही रहा है। इस सिलसिले की शुरूआत में जब एकाध जगह अटकना हुआ तो स्वयं कवि ने आगे बढ़कर मदद की। इस मोड़ पर पता चला कि कवि को कामचलाऊ हिन्दी ठीक से नहीं आती, हालाँकि सामान्य हिन्दी वार्तालाप वे समझ - बूझ लेती हैं  और अनुवादक को मलयालम की बिल्कुल जानकारी नहीं। हमारे संवाद के माध्यम के रूप में अंग्रेजी भाषा का एक पुल है जिस पर कविता के पाँवों के चमकीले निशान हैं जिन्हें देखते - पहचानते- परखते भाषा के अवरोध को परे करने का उपाय किया गया  है।

इस बात की बहुत खुशी है रानी जयचंद्रन  जी ने मेरे द्वारा किए गए अनुवादों को मलयालम - अंग्रेजी के जरिए अपने संस्थान के एक हिन्दी जानने वाले साथी के माध्यम से समझा है और सराहना की है । उनकी कविताओं के   अनुवाद 'कबाड़ख़ाना' पर आए हैं  , पसंद किए गए थे  और एक दिन पता चला कि इंदौर वासी हमारे मित्र मशहूर युवा चित्रकार रवीन्द्र व्यास ने 'जादुई प्यार' शीर्षक कविता से प्रेरित होकर एक पेंटिंग बनाई है और इस कविता में / कविता के जरिए प्रेम के झीने - गझिन, दृश्य - अदृश्य तंतुओं की तलाश करते हुए एक बहुत ही सुन्दर आलेख 'वेब दुनिया' के पन्नों पर लिखा है। यह सब मेरे लिए बहुत अद्भुत और अनोखा -सा अनुभव है क्योंकि मैं तो बस हिन्दी की साहित्यिक दुनिया की हलचलों - गतिविधियों- उठापटक से बहुत दूर चुपचाप हिमालय की तलहटी में बसे एक छोटे - से गाँव के अपने घोंसले में रहकर एक साधारण - सा जीवन जीते हुए, नून - तेल - लकड़ी की चिन्ताओं व जीवन के राग - विराग - खटराग के बीच समय निकाल कर  अपनी पसंद की कुछ चीजों से बतियाते हुए इक्का - दुक्का कागज काले करता रहता हूँ। बीती शाम आज की पीढी़ के बहुत ही समर्थ व संभावनाशील कवि मित्र केशव तिवारी का फोन आया और उन्होंने रानी जी कविताओं के मेरे अनुवादों की तारीफ की । लगभग दो सप्ताह पहले इन्हीं अनुवादों का जिक्र इस साल के प्रतिष्ठित 'सूत्र सम्मान' से सम्मानित किए गए कवि - मित्र महेश पुनेठा ने भी किया था। यह जानकर अच्छा लगा कि दो अच्छे लोग मेरे काम को अच्छा जैसा कुछ  कह रहे हैं नहीं तो अपनी हिन्दी की साहित्यिक दुनिया में तो अनुवादक नामक जीव तो प्राय: नेपथ्य में ही रह जाता है और अक्सर उसका उल्लेख आधे - अधूरा शब्द 'अनु०' लिखकर निपटा जैसा दिया जाता है।

आज की डाक में 'पांडुलिपि' पत्रिका का प्रवेशांक आया है जिसमें मेरे द्वारा अनूदित रानी जयचंद्रन की तीन कवितायें प्रकाशित हुई हैं। प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान , रायपुर ,छतीसगढ़ द्वारा प्रकाशित इस त्रैमासिक पत्रिका ( प्रमुख संपादक ; अशोक सिंघई / कार्यकारी संपादक ; जयप्रकाश मानस / पता : 'सिंघई विला' , ७-बी, सड़क : २०, सेक्टर : ५, भिलाईनगर , छतीसगढ़ , पिन : ४९०००६, भरत/ ई मेल : pandulipipatrika@gmail.com) का प्रवेशांक वृहदाकार है पौने चार सौ पृष्ठों का और मूल्य है २५ रुपये मात्र। क्या ही अजीब बात है कि पच्चीस रुपये की यह किताब ३५ रुपये के डाकखर्च पर मेरे ठिकाने तक पहुँची है! इस अंक को अभी तो बस उलट - पुलट कर देख पाया हूँ । धीरे- धीरे इसे पढ़ा जाएगा और इस पर कुछ लिखा भी जाएगा। इसका आवरण आकर्षक है - गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की पेंटिंग से सुसज्जित। 'पांडुलिपि' का उल्लेख अभी केवल इसलिए कि इसमें रानी जयचंद्रन की कविताओं के मेरे तीन अनुवाद प्रकाशित हुए है जिनका उल्लेख ऊपर किया गया है। हिन्दी कविता के पाठकों और प्रेमियों के लिए एक सूचना और हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया में अपने लिखे - पढ़े को साझा करने के उपक्रम में आज और अभी रानी जयचंद्रन की तीन कवितायें प्रस्तुत कर रहा हूँ :













रानी जयचंद्रन की तीन कवितायें                       
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )
             
०१-अनंत जीवन 
                                                
घाटी की ढलानों पर                                                 
ऐश्वर्य के मुकुट की तरह       
फिर खिला है कुरिन्जी*
बारह बरस के बाद.
नर्म - नाजुक फुहार और
मंद - मंथर हवा के सानिध्य में
डोल रही हैं
जामुनी- नीले रंग के फूल की चपल आँखें.

खूब गहरे तक धँसकर
पंखुड़ियों को चूमती हैं सूरज की किरणें
और उनमें भर देती हैं सुर्ख रंगत की सजावट .
चंद्रमा की रोशनी से नहाई हुई रात में
फैलता ही जा रहा है
ढलानों पर धीर धरी धरती का खिंचाव.

प्रेम की ऊष्मा से छलछलाती हवा
फुसफुसाहटों में करती आ रही है कोई बात
ठगी ठिठकी गंभीर हो ठहर जाती है
देर तक इस जगह.
और शान्त तैरता हुआ बादल
गाने लगता है
एक अकेले दिवस का
कभी न खत्म होने वाला गौरवगान .

बारह बरस के बाद.
फिर खिला है कुरिन्जी
मंद - मंथर हवा के सानिध्य में
डोल रही हैं
जामुनी - नीले रंग के फूल की चपल आँखें.

०२- जादुई प्यार

अस्ताचल के आलिंगन में आबद्ध
डूबता सूरज
समुद्र से कर रहा है प्यार
इस सौन्दर्य के वशीकरण में बँधकर
देर तक खड़ी रह जाती हूँ मैं
और करती हूँ इस अद्भुत मिलन का साक्षात्कार.

प्यार की प्रतिज्ञाओं और उम्मीदों से भरी
भीनी हवा के जादुई स्पर्श से
अभिभूत और आनंदित मैं
व्यतीत करती हूँ अपना ज्यादातर वक्त
यहीं इसी जगह
और मुक्त हो देखती हूँ
जल में काँपते चाँद को बारम्बार.

इस अद्भुत मिलन के दृश्य से
भीगकर भारी हुई पृथ्वी
खड़ी रह गई है तृप्त -विभोर.
और चाँदनी की रश्मियों से चित्रित
बनी - अधबनी छायायें
फैलती ही जाती हैं वसुन्धरा के चित्रपट पर
यहाँ वहाँ हर ओर.

०३- एक दिव्य जलयात्रा

जब प्रसन्नता से परिपूर्ण मैं
अग्रसर हूँ खेती हुई एक नाव
तो सुनाई दे रही है एक लयबद्ध ताल
क्या यह प्रवाह से भरे जल की ध्वनि है ?
अथवा आवाज है मेरे भीतर हिलोरें मारते आह्लाद की ?
क्या यह स्पंदन है मेरे हृदय का ?
या फिर
कोई आलाप है हाँफते हुए मन - मस्तिष्क का ?

मन्द शीतल हवा
जो संदेशवाहि्का है
पुष्पित होते चंपक की भीनी सुवास की
वही इस क्षण उर्ध्वमान किए जा रही है अंतरात्मा को
स्वर्गिक ऊँचाइयों की ओर
और जिसने मेरे मस्तक पर सजा दिया है
सुबह - सुबह की धुन्ध का दिपदिपाता मुकुट।

घास चरते मृग , चह - चह करते विहग
गीत गाती कोकिल , प्रस्फुटित होते पुष्प
नर्म - नाजुक तृण , छाया बाँटने वाले वॄक्ष
कुमुद की पंखुड़ियों पर जमे हुए तुहिन कण..
समूचे दृश्य को बना रहे हैं देवताओं का उपवन - देवोद्यान
जिसमें अवतरित हो रहा है
स्वर्गिक आभा का सहज सतत समुच्चय।

कोहरे में स्नात सघन वन प्रान्तर से
झाँक रहे हैं सुनहले किरणों के पुंज
रुपहली ढलानों पर फिसल रहा है रश्मित आलोक
जिसकी छुवन से पिघल रही है जमी हुई ओस
और छितरा रही है छोटी- छोटी बूँदें
जो समीरण के वेग में प्रशान्ति भर कर
इस सुन्दर दृश्य को बनाए जा रही हैं एक रहस्यपूर्ण संसार।

मैं सुन रही हूँ...सुन रही हूँ
मन्द हवा की आहट - सरसराहट
बहुत स्पष्ट है
अपनी ही लहरों से भरी यह लोरी
जो मेरे अशक्त अंतस में आह्लाद कर
उसे हिरन की तरह
चौकड़ियाँ भरने को प्रेरित कर रही है लगातार।

क्या मैं लम्बे समय तक खेती रह सकूँगी यह नाव ?
क्या मैं अकेले ही देखती रहूँगी
प्रकृति का यह अनुपम उपहार
यह दृश्य
जिसमें समाहित हुआ है दिव्यता का दिव्य भाव ?

अब जबकि बिन माँझी की मेरी नौका
सौन्दर्य से भरे तट तक पहुँचने से है बस थोड़ी ही दूर
देखती हूँ कि नाविक तो बैठा है बिल्कुल पास
अपनी थपकियों से मेरी व्याकुलता का शमन करता
धीरे - धीरे पतवार चलाता
जैसे रची जा रही हो कोई शोभाकृति चुपचाप.
मेरे ह्रूदयस्थल में अंकुरित होने लग गई हैं
कोमल भावनायें अकस्मात
और पंखों को फैलाकर गंतव्य की ओर भरने लगी हैं उड़ान
मैं स्वयं को समर्पित कर देती हूँ
जैसे कि कोई सजल सरिता
समुद्र की विशालता में हो जाती है विलीन।

प्रेम की वाणी से पूरित चुप्पी और एकान्त ने
प्रार्थनाओं से भर दिया हैं मेरे अंतर्मन को
इस उदात्त ऊष:काल में बह जाने दो मुझे
हो जाने दो मग्न मुग्ध मुदित बेपरवाह।

कोई विघ्न न डाले
वरदान से आप्लावित इस मन:लोक में
कोई नष्ट न कर दे
इस स्वर्गिक संसार को
प्रेम के शाश्वत प्रतीक
कृष्ण की तरह और राधा की तरह
अनश्वरता से सहेज लेने दो इस अद्भुत जलयात्रा को
जो मुझे बनाए जा रही है
तुम्हारा एक सच्चा साथी और एक प्रसन्नचित्त दोस्त।

*



* कुरिन्जी : दक्षिण भारत की नीलगिरि पर्वतमाला और केरल के कुछ इलाकों में पाया जाने वाला फूल है जो बारह वर्ष में एक बार खिलता है और विस्तृत पहाड़ी ढ़लानों को स्वर्गिक आभा से भर देता है. 'नीलगिरि' नामकरण वस्तुत: इस जामुनी - नीले रंग के फूल की ही महिमा का ही मूर्त रूप है. कुरिन्जी दक्षिण भारत के साहित्य , चित्रकला , संगीत, सिनेमा और लोक जीवन से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है.

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

सब मिल के यारो कृष्न मुरारी की बोलो जै !



आज हमारे घर में , पड़ोस में और  अपने आसपास जन्माष्टमी है। कुछ लोगों ने कल भी मनाई थी। आज अपन मना रहे हैं। मन्दिर में सजावट है। अभी पड़ोस का बालक बालकृष्ण का रूप धरकर मिलने आया था। हमने उसके दर्शन किए और खुश हुए। आज दिन में नज़ीर अकबराबादी की कालजयी रचना 'कन्हैया का बालपन' पढ़ा और खुश हुए। अभी थोड़ी देर पहले इसी रचना के चुनिंदा अंशों को संगीतबद्ध रूप में सुना और खुश हैं। आइए अपनी खुशी सबके साथ साझा करते है और जन्माष्टमी की खुशियों को साहित्य - संगीत की जुगलबंदी के साथ द्विगुणित करते हैं :

शब्द : नज़ीर अकबराबादी
स्वर: उस्ताद अहमद हुसैन व उस्ताद मोहम्म्द हुसैन




क्या - क्या कहूं मैं कृष्न कन्‍हैया का बालपन।
ऐसा था, बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या- क्या कहूँ .......

उनको तो बालपन से ना था काम कुछ जरा।
संसार की जो रीत थी उसको रखा बचा।
मालिक थे वो तो आप ही, उन्‍हें बालपन से क्‍या।
वाँ बालपन जवानी बुढ़ापा सब एक सा।
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या - क्या कहूँ .......

बाले हो ब्रजराज जो दुनिया में आ गये।
लीला के लाख रंग तमाशे दिखा गये ।
इस बालपन के रूप में कितनों को भा गये।
इक ये भी लहर थी जो जहाँ को दिखा गये ।
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या - क्या कहूँ .........

सब मिल के यारो कृष्न मुरारी की बोलो जै।
गोबिन्द छैल कुंज बिहारी की बोलो जै।
दधिचोर गोपीनाथ बिहारी की बोलो जै।
तुम भी 'नज़ीर' कृष्न मुरारी की बोलो जै।
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन ।

क्या - क्या कहूँ .....
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( जन्माष्टमी पर अपना  एक संस्मरणात्मक आलेख 'स्मृतियों का राग मद्धम ' वेब पत्रिका ' अभिव्यक्ति' पर प्रकाशित हुआ है .)