शनिवार, 31 मार्च 2012

मेज पर रखे तुम्हारे हाथ

निजार क़ब्बानी ( 21 मार्च 1923 - 30 अप्रेल1998 ) केवल सीरिया में बल्कि समूचे अरब के साहित्य में प्रेम, ऐंद्रिकता, दैहिकता और इहलौकिकता के महाकवि माने जाते हैं। उनकी कविताओं में प्रेम और स्त्रियों की खास जगह है। वे लिखते हैं कि 'मेरे परिवार में प्रेम उतनी ही स्वाभाविकता के साथ आता है जितनी स्वाभाविकता के साथ कि सेब में मिठास आती है।' निजार कब्बानी की किताबों की एक लंबी सूची है. दुनिया की कई भाषाओं में उनके रचनाकर्म का अनुवाद हुआ है. उम्होंने अपनी पहली कविता तब लिखी जब वे सोलह साल के थे और इक्कीस बरस उम्र में उनका पहला कविता संग्रह प्रकाशित हुआ था। जिसने युवा वर्ग में खलबली मचा दी थी। दमिश्क की सड़कों पर विद्यार्थी उनकी कविताओं का सामूहिक पाठ करते देखे जाते थे। यह द्वितीय विश्वयुद्ध का समय था और दुनिया के साथ अरब जगत का के साहित्य का सार्वजनिक संसार एक नई शक्ल ले रहा था। ऐसे में निज़ार क़ब्बानी की कविताओं नें प्रेम और दैहिकता को मानवीय यथार्थ के दैनन्दिन व्यवहार के साथ जोड़ने की बात जो एक नई खिड़की के खुलने जैसा था और यही उनकी लोकप्रियता का सबसे प्रमुख कारण बना। 

निजार क़ब्बानी  की कविताओं के मेरे किए बहुत सारे अनुवाद वेब पर और पत्र- पत्रिकाओं में छपे हैं, आगे भी आने वाले हैं। मुझे खुशी है कि इन्हे कविता प्रेमियों द्वारा सराहा गया। आभार सहित आज इसी क्रम में प्रस्तुत हैं उनकी तीन कवितायें :

निजार क़ब्बानी  :तीन कवितायें
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

०१- तुम्हारे हाथ

चुप रहो
कुछ न बोलो।

सबसे सुन्दर ध्वनियाँ हैं
मेज पर रखे तुम्हारे हाथ।

०२- निर्णय

चूँकि शब्दों से ऊँचा है
तुम्हारे प्रति मेरा प्रेम
इसलिए लिया है निर्णय
कि रहूँगा मौन।

०३ - पूर्ववत

पहले से मैं बदल गया हूँ बहुत

कभी चाहा था मैंने
कि विलग कर दो सारे वसन
और बन बन जाओ
संगमरमर का एक नग्न वन।

अब चाहता हूँ
तुम वैसी ही रहो
रहस्य के आवरण में गुम।
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(चित्रकृति : बोल्दिनी, गूगल सर्च से साभार)

गुरुवार, 15 मार्च 2012

स्मृतियों में उपस्थित नील जलराशि

आज प्रस्तुत हैं जर्मन कवि रेनर कुंजे की कुछ कवितायें...

रेनर कुंजे की कवितायें
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

काव्यशास्त्र

असंख्य उत्तर हैं विद्यमान
किन्तु अब तक
हम जान न सके
कि कैसे पूछा जाना चाहिए प्रश्न

कविता है
कवि की जादुई छड़ी

जिससे वह
स्पर्श करता है चीजों को
ताकि पहचान सके उनका होना

नाविक

दो व्यक्ति
खे रहे हैं एक नाव
एक को मालूम है
नक्षत्रों का ठिकाना
और दूसरे को
पता है तूफान  का

पहला
ले जाएगा सितारों की ओर
और दूसरा
तूफ़ान के बीच से निकालेगा राह

और अंत में
बिल्कुल अंत में
दोनो की स्मृतियों में
उपस्थित रहेगी नील जलराशि।

वसंतागम

पक्षियो
बग्घी सवारो
आरंभ करोगे जब तुम गाना
आएगा एक  पत्र
जिस पर लगी होगी नीली मुहर
इस पर लगी टिकटें
विस्फोट करेंगी फूलों का
जिससे बाहर आयेंगे शब्द
और तुम पढ़ना :

कुछ नहीं
कुछ भी नही होता स्थायी
कुछ भी नहीं होता सदा के लिए।

बुधवार, 7 मार्च 2012

होली है और क्या !


कहीं नहीं दीखते टेसू
कहीं नहीं नजर आता पलाश।

शब्द में , स्वर में , स्वाद में
तलाश रहा हूँ
खोया हुआ - सा मधुमास।

कल से आज तक गुझिया , नमकीन , मिठाई , बेसन पापड़ी,मठरी बनाने का सिलसिला चल रहा है ; साथ में चखने के बहाने खाने का भी. एक खटका यह भी लगा हुआ है कि कहीं गैस सिलिन्डर साहब समय से पहले ही ओके ,टाटा , बाय - बाय, सीयू न कर जायें. अरे , अभी दही बड़े और पूआ-पूड़ी तो बाकी ही है. क्या किया जाय अब आदमी त्योहार मनाना तो नहीं छोड़ देगा. ( मनाना = खाना ). अगल - बगल गाना - बजाना चल रहा है...होली के दिन गुल खिल जाते हैं ..अपनी छत के गमलों में लगे गुल तो मुरझाने की ओर अग्रसर हैं .फिर भी अपन छुट्टी की मौज कर रहे हैं. अब तो बच्चों का अगला पेपर भी एक सप्ताह के बाद है सो वे भी होलिया गए हैं. अभी - अभी एक मदारी बंदरों का करब दिखा कर गया है..कुल ...मिलाकर होली है और क्या !
यह मार्च महीना बड़ा जालिम होता है साठ -सत्तर के दशक के हिन्दी फिल्मी गानों में वर्णित बेदर्दी बालमा की तरह . हर महीने जो भी जित्ता बँधा - बँधाया नामा आता है उसका एक अच्छा -खासा हिस्सा इसी महीने 'आय' नहीं अपितु 'जायकर' में तब्दील हो जाता है. पहली अप्रेल अर्थात अंतराष्ट्रीय मूर्ख दिवस के दो दिन बाद से बच्चॊ के स्कूल का नया सत्रारम्भ होने वाला है , माने किताब -कापी, नया बस्ता - पानी की नई बोतल - नया लंच बाक्स - नये स्कूल यू्निफार्म , बिजली - टेलीफोन के बिल , बीमा - लोन इत्यादि की किस्तें ,राशन - पानी -कपड़े - लत्ते -जूते -चप्पल....अगड़म -बगड़म...फिर भी गुनगुना रहे हैं.. हिम्मत न हार चल चला चल...क्योंकि होली है और क्या !

'एक बरस में एक बार ही जलती होली की ज्वाला ' ऐसा सबसे बड़के बच्चन जी कह गए हैं. यह अलग बात है कि हम सब साल भर लगभग जलते रहने के लिए ही रह गए हैं. अपने आसपास जो भी घटायमान हो रहा है उसे निरन्तर देखायमान करते हुए चटायमान होते रहना और अपने मुखारविन्द पर विराजमान झींकायमान भाव को शोभायमान किए गड्डी को चलायमान किए रहना ही अपनी गति - दुर्गति है. होली के दिन मुदित - क्षुधित - द्रवित होकर यह केंचुल थोड़ी देर के लिए उतर जाती है और एक अदद दिन भर के वास्ते मौजा ही मौजा ,बाकी तो साल भर (अपना सर और) जुत्ता ही जूत्ता..अतएव एक दिन के लिए ही सही..... क्योंकि होली है और क्या !

कल अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है. अपन ने तो अभी पूरा राष्ट्र भी दे देख्या -वेख्या नहीं अंतर - राष्ट्र की बात तो बहुत दूर की है.स्त्रियन - नारियन - औरतन के हाल -हालात की बात पर तो बड़े -बड़े विद्वान ही सभा - सेमीनारों में बोले हैं ; कभू - कभू लब खोले हैं. अपन तो घर में विराजती अकेली महिला की पाक कला के कौशल और ज्ञान - विज्ञान के प्रेक्टिकल को सिर्फ स्वाद तक सीमित कर प्रशंसा के पकवान पकाते रहे और उसके श्रम में वांछित - यथोचित -किंचित साझा सहयोग करने के बजाय शर्मसार होते रहे. मेज पर झुके हुए एक घुन्ने आदमी की तरह फाग - राग, गीत - संगीत में डूबे उभ - चुभ करते रहे हैं....क्योंकि होली है और क्या !

अगर फुरसत हो और मन करे तो आप इसे पढ़ लेवें .मन न होय तो आगे बढ़ लेवें क्योंकि हर तरफ होली हुड़दंग छाय रही है. भंग का रंग अब कम ही चकाचक हुआ करे है. जियादा पढ़ -लिख लिए सो गावन - बजावन से भी मन डरे है.बस दूर से तमाशा - थोड़ी आशा थोड़ी निराशा .हाट - बाजारों में माल बहुतायत है पर गाँठ में पीसे पूरे ना हैं फिर भी होली तो मनानी है ; अजी मनानी क्या रसम निभानी है.....क्योंकि होली है और क्या !

फिर भी
छोटा - सा टीका चुटकी भर गुलाल
आप रहें राजी-खुशी और खुशहाल
मुबारकबाद !
बधाई !

.....क्योंकि 
होली है और क्या !