रविवार, 22 जून 2008

उषादेवी मित्रा की कहानी 'भूल' का एक जरुरी जिक्र


हिन्दी साहित्य के अध्ययन-अध्यापन की जो परिपाटी हमारे विश्वविद्यालयों में चली आ रही है,जिसकी लगातार आलोचना भी होती रही है ,उसका परिदृश्य कुछ ऐसा है कि मानो बंग महिला के बाद हिन्दी गद्य सहित्य के विस्तार में शिवरानी देवी,सुभद्रा कुमारी चौहान ,महादेवी वर्मा जैसी एक-दो लेखिकाओं के अतिरिक्त मानो स्त्री लेखकों का अभाव और अकाल है और उनका वास्तविक आगमन आजादी के बाद के दौर में ही होता है.जबकि सच्चाई इससे विलग तथा विपरीत है.हिन्दी कथा साहित्य के पहले तथा दूसरे दौर में कथा लेखिकाओं की कमी नहीं है यशोदा देवी, श्रीमती जमुना देवी, श्रीमती रामप्यारी देवी, श्रीमती सु्शीला देवी, श्रीमती कृष्ण कला, श्रीमती सम्प्रिया देवी, श्रीमती गायत्री देवी, श्रीमती हुक्म देवी गुप्ता, श्रीमती विद्यावती, ठकुरानी शिवमोहिनी, तोरन देवी शु्क्ल 'लली', श्यामपियारी सेठ जैसी अनेक लेखिकायें अपनी आमद दर्ज कर रही थीं. यह दीगर बात है कि उसे रेखांकित किये जाने और अलग से पहचाने जाने की पहल को वे पस्तुत कर पाने में सफल नहीं हो सकी थीं.पहली बात तो यह कि तब तक कहानी -उपन्यास को भद्रलोक की स्वीकार योग्य पठनीय स्वीकृति भी कायदे से नहीं मिल सकी थी और दूसरी बात यह कि कथा साहित्य से,विशेषकर स्त्रियों द्वारा लिखे जा रहे कथा साहित्य से 'स्त्रियोपयोगी' होने उम्मीद चरम पर थी जिसका सिरा काफी हद तक 'आर्य्यललना' के चरित्र निर्माण की अपेक्षा से जुड़ता दिखाई देता था तथा उसके 'अंग्रेज रमणी' बन जाने का संकट अब भी आसन्न था. पहले-दूसरे दौर की लेखिकाओं की बनाई जमीन पर ही आगे चलकर सुभद्राकुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, चंद्रकिरण सौनरेक्सा, शिवरानी देवी, होमवती देवी, सुमित्रा कुमारी सिन्हा, कमला चौधरी, हेमलता पंत, उषादेवी मित्रा जैसे अनेक हस्ताक्षर स्पष्ट और उजले रूप में प्रकट होते हैं. यहां पर यह उल्लेखनीय है कि रचनात्मक स्तर पर स्त्री कथालेखन को उस दौर में स्वीकर तो कर लिया गया था किन्तु इतिहास और आलोचना के स्तर पर उसकी सहज स्वीकार्यता निर्मित्त नहीं हो पाई थी.यह एक एक पूरक या सप्लीमेंटरी लेखन भर ही था.आज का परिदृश्य अलग है तो उसकी वजह यह है कि इतिहास और आलोचना के धरातल पर भी स्त्रियों ने केवल अपनी जमीन तैयार की है बल्कि वे बने -बनाये चौखटे को तोड़ते हुए अपनी जमीन की चौकस रखवाली और निरंतर जरूरी निराई-गुड़ाई के काम में भी मुस्तैद हैं..नई जमीन में उनकी खेती तो नई है ही,नये बीज -खाद-पानी-हवा के साथ ही औजार,हरबे-हथियार भी नये,आधुनिक और उम्दा किस्म के हैं.

उषादेवी मित्रा हिन्दी कथा साहित्य के आरंभिक दौर की एक महत्वपूर्ण लेखिका हैं,मात्र इसलिए नहीं कि उन्होंने अपने समकालीनों से परिमाण मे अधिक लिखा है बल्कि इसलिये कि वह् कहानी लेखन क युगीन मुख्यधारा से अलग और आज के विमर्श में रेखांकित किये जने हेतु आवश्यक लगती हैं. हिन्दी साहित्य को उन्होंने 'वचन का मोल','नष्ट नीड़'और 'सोहनी' जैसे उपन्यासों के अतिरिक्त 'संध्या','पूर्वी','रात की रानी','मेघ मल्हार','महावर''रागिनी' जैसे कहानी संग्रह दिये हैं. उनकी कहानियां भावुकता के द्वन्द्व से विलग नहीं है न तो कथ्य के स्तर पर और न ही भाषा के स्तर पर पर फिर भी वे इस दृष्टि से अलग है कि उनमे स्त्री की नई सोच की आहट है जो स्पष्ट रूप से सुनी जा सकती है.यह अलग प्रश्न है वह आहट अपने नाद- अनुनाद के साथ कुछ दूर चलकर सन्नाटे में तिरोहित हो जाती है किंतु यह क्या कम बड़ी बात है कि है सन्नाटे के विरुद्ध एक प्रश्नवाचक स्वर छोड़ जाती है.बात को स्पष्ट करने के प्रयास में मैं यहां पर उषादेवी मित्रा की एक कहानी 'भूल' का जिक्र कर रहा हूं.

चार पृष्ठों की एक छोटी-सी कहानी 'भूल'के पांच हिस्से हैं.पहले -दूसरे हिस्से में 'हरप्रसाद पांडेय की मंझली पुत्रवधू सुप्रभा जैसी सहनशील कर्मिष्ठ नारी' के वैध्व्य की कथा है जो एकादशी के व्रत में मारे ज्वर के गला तर करने के लिये महरी के हाथ का पानी पीकर अपना धरम बिगाड़ लेती है.जब महरि से पूछा जता है कि 'तूने जान-बूझकर क्यों बहू क धरम बिगाड़ा 'तो उसका उत्तर है-'वह मर जो रही थी.पानी-पानी करके तो उसकी दम निकली जा रही थी.तुम्हारे धरम से मेरा धरम से मेरा धरम लाखगुना अच्छा'. अब प्रायश्चित की बारी है.सुप्रभा का प्रश्न है- 'क्यों,मेरा अपराध क्या है? मैं प्रायश्चित न करूंगी'.सुप्रभा स्वयं को अपराधी नहीं मानती.इसके बाद वह 'वह पूजा-पाठ छोड़ देती है,श्रंगार करती है,एक कहो तो हजार सुनाती है.जो एक दिन बिल्ली जैसी दबी रहती थी ,वह शेर हो जाती है.'कहानी के आखिरी हिस्से में सुप्रभा और दिवाली छुट्टी में आई अपने पति किशोर के साथ आई उसकी देवरानी दयारानी का संवाद है जिसमें एक प्रश्न उभरता है-'क्या भूल को भूल कभी जीत सकती है? 'ऐसे प्रश्न से सुप्रभा अपरिचित थी .वह विस्मय से आकुल होकर सोचने लगी -क्या भूल को भूल कभी जीत सकती है? कहानी यहीं खत्म होती है किन्तु एक प्रश्न के शुरुआत के साथ.मेरी दृष्टि में यह एक युगीन प्रश्न है-एक बनते हुए स्पेस के युग का प्रश्न.सुविधा के लिए चाहें तो इसे उहापोह या दुचित्तापनका प्रश्न भी कह सकते हैं. यह संयोग नही है कि हिन्दी कहानी में यह प्रश्न बार-बार दोहराया जाता रहा है.नई कहानी और उसके बाद की कहानी में भी यह प्रश्न अनुपस्थित नहीं है.इस लिहाज से मैं उषादेवी मित्रा की इस छोटी-सी कहानी को एक बड़ी और विशिष्ट कहानी मानता हूं.

विश्व संगीत दिवस पर प्रकृति के पहले संगीतकार की याद



आज पता चला है कि विश्व संगीत दिवस है. इसके इतिहास-भूगोल अदि-इत्यादि के बारे में कोई जानकारी मुझे नहीं है.यदि किसी को पता है तो बताए.वैसे मैं खुद कुछ पता करने का प्रयास करूंगा. अपना तो रोज ही संगीत दिवस होता है. एक नन्हीं -सी चिड़िया कोयल को मैं विश्व का पहला संगीतकार मानता हूं. कम से कम जिस प्रकृति और परिवेश में मेरा निर्माण हुआ है उसमें तो यही सच है -मेरा अपना सच.

३० अप्रेल २००८ को खूब तपन थी - लू,उमस ,गर्मी,पसीना॥चिपचिप। झुलसाती हुई दोपहर थी लेकिन काम था तो घर से बाहर निकलना ही था. सड़क के दोनो ओर गुलमुहर के कई पेड़ हैं,कुछ अमलतास के भी.लाल-लाल आभा बिखरी हुई थी. ऐसे में नमक के गोदाम वाले उजाड़ के पास से गुजरते हुए अचानक कोयल की कूक सुनाई दी थी. मुझे रुकना पड़ा था. कितने दिनों बाद सुनी थी यह आवाज. इस आवाज से कितना गहरा नाता है-सीधे बचपन में उतार देती है यह आवाज जब गर्मियों के भिनसार में चू पड़ने को आतुर महुए की मादक गंध और अंधेरे में टपकते आम के अन्वेषण का आनंद उठाते-उठाते हमारी एक पीढ़ी जवान हो गई थी.

थोड़ी फुरसत मिलने पर कवितानुमा कुछ लिख मारा था। वही प्रस्तुत है शायद आप को ठीकठाक लगे-

उजाड़ में कोयल



उजाड़ में कूक रही है कोयल
कू॥ऊ..कू..ऊ..



क्या कोई सुन रहा है तुम्हारा गाना
सभी खुद में अस्त-व्यस्त हैं
गरमी के मारे बुरा हाल है
झुलस रहा है सबकुछ
धू॥ऊ..धू..ऊ..


प्यारी कोयल
अब तो साहित्य-संगीत-कला में ही
सुरक्षित बचा है तुम्हारा गान
हम जैसे लोगों के पास कहां बचे हैं कान
आंखें तो कबकी मुंदी पड़ी हैं
और मुंह पर जड़ा है बड़ा-सा ताला
हमें तो बस दिखाई देता है
अपना हिस्सा - अपना गस्सा - अपना निवाला।


कूको! कोयल जी भर कूको!
चाहे गरियाओ, चाहे मुंह पर थूको
हम न सुनेंगे
तुम्हारी रोज-रोज की कू..ऊ..कू..ऊ..
उमस,तपन,गरमी के मारे बुरा हाल है
झुलस रहा है सबकुछ
धू॥ऊ..धू..ऊ..



धूप में चुपचाप खड़ा है गुलमुहर
गजब का लाल-लाल है
रोज-ब-रोज बढती जाती है उसकी दीप्ति
क्या पता उसका भी बुरा हाल है
या सबकी ऐसी तैसी फेरता हुआ
शान से झल रहा है अपना पंखा
सट्ट सू॥ऊ..सट्ट सू..ऊ..



उजाड़ में कूक रही है कोयल
कू..ऊ..कू..ऊ..

गुरुवार, 19 जून 2008

झमाझम बारिश में लखनऊ की भूलभुलैया







पिछली १६ जून को लंबी यात्रा के बीच थोड़ा विराम-विश्राम मिला तो हम अपना माल-असबाब रेलवे वालों के हवाले कर लखनऊ के बड़े इमामबाड़े की ओर लपक लिये ।
खूब जोर की झमाझम बारिश हो रही थी और अपन मस्ती के मूड में थे. महीने भर की आवाजाही से जी चटा हुआ था और उस दिन हमारी बिटिया का ''हैपी बर्थ डे' था सो मस्ती तो होनी ही थी.

रविवार, 1 जून 2008

मोबाईल

सुबह उठा
कोई कविता पढी
सुना पसंदीदा संगीत

दिन भर के युद्ध के लिए
चार्ज हुई बैटरी।

आज रंग है री...
मेरे मौला!
यूं ही चलाए राखियो
अपनी कम्पनी की बैटरी
बै

री
ताकि कानॊं में
रोज बाबा खुसरो कहते रहें -आज रंग है री..