शुक्रवार, 18 अप्रैल 2008

'पीढ़ी प्रलाप'- आखिर कितना पढ़ा जाय-कितना लिखा जाय?

इस बीच काफी किताबें एकत्र हो गई हैं जिन पर लिखना है-कुछ पत्रिकाओं के लिए,कुछ मित्रों के आग्रह पर और कुछ अपनी रुचि तथा पसंद की वजह से।हर रोज दो अखबार,हर महीने कई-कई पत्रिकायें,कुछ नेट पर खोजबीन.आखिर कितना पढ़ा जाय-कितना लिखा जाय? जब एक छोटे से गांव में रहने वाला मेरे जैसा एक अदना सा कलमघिस्सू परेशान है तब समझ में नहीं आता कि बड़े-बड़े नगरों-महानगरों में रहने वाले बड़े-बड़े लिक्खाड़ अपने टाइम का मैनेजमेंट कैसे करते होंगे? वैसे शायद मेरा यह सवाल या मेरी उत्सुकता बचकानी हरकत हीमानी जाएगी. भई! वे बड़े लोग हैं, उनकी हर बात बड़ी है .वे छींक दें तो खबर बन जाय और चुप रहें अबोला भी बोल उठे! जहां तक लिखने की बात है लगता है कि उनका हाथ साफ हो गया है. उनके हाथ में कलम आते ही कागज पर फर्र-फर्र चलने लगती है.सुना है उन्हें और भी कई काम करने होते हैं-सभा-सम्मेलन,गोष्ठी-परिचर्चा,पद-पुरस्कार,खान-पान-सम्मान...आदि-इत्यादि.अपना तो ज्यादा वक्त कामकाज और नून- तेल-लकड़ी के जुगाड़ में निकल जाता है.अगर कुछ बाकी बचा तो वही लिखने -पढ़ने और संगीत सुनने-सुनाने के लिए पकड़ में आता है,वह भी अक्सर नींद और आराम की बलि देकर.

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि कि बहुत व्यस्त आदमी हूं।कभी-कभार मौका मिलने पर आलस्य का आनंद उठाने से भी बाज नहीं आता हूं.कभी-कभी दीवार पर चढ़ती चींटी को देर तक देखने का आनंद भी ले लेता हूं.लेकिन लिखने-पढ़ने का काम तो पिछड़ ही रहा है.ऐसा नहीं है कि विषयों की कमी है, ऐसा भी भी नहीं है कि शब्द फिसल जा रहे हों लेकिन कहीं तो कुछ है कि सुई अटक जाती है.समकालीन साहित्यिक परिदृष्य के मुख्य पटल पर सक्रिय मित्र कहते हैं कि तुम व्यावहारिक नहीं हो- यू आर नाट प्रेक्टिकल.तुम्हारा मुहावरा पुराना पड़ गया है, बाजार में उसकी कोई कीमत नहीं हैं.अपने आप को प्रेजेंटेबल और सेलेबल बनाओ,तभी कद्र है ,कीमत है ,काबिलियत है.

हमारे हाईस्कूल की हिन्दी की किताब 'गद्य संकलन' में आधुनिक हिन्दी के निर्माताओं में से एक पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का एक निबंध था-'क्या लिखूं?'वहां सवाल विषयों के चुनाव का था किन्तु यहां तो सवाल कुछ और है विषय भी हैं उन्हें व्यक्त करने भाषा भी लेकिन फिर भी काम है कि सध नही रहा है।क्या जाने मेरी रचना प्रक्रिया में ही कहीं कोई गड़बड़ है.जब कोई अंतरंग कविताओं की डायरी / फाइल देखता है तो कविताओं के नीचे लिखे समय / तारीख को देखकर चौंकता है.वजह- अधिकतर कवितायें आधी रात के बाद लिखी गई हैं, ऐसे वक्त जब सोने का वक्त होता है!

पस्तुत है 'पीढ़ी प्रलाप' शीर्षक अपनी एक पुरानी कविता जो दो पत्रिकाओं में(एक साथ नहीं) प्रकाशनार्थ स्वीकृत हुई थी लेकिन छपी एक जगह भी नहीं ।पता नहीं इसमें कविता जैसा कुछ है भी कि नही? यह अपने विद्यार्थी जीवनकाल का एक कोलाज भी है और पीछे मुड़कर देखने का उपक्रम भी.चलिए लगे हाथ यह तो बता ही दिया जाये कि यह रात के एक बजकर पचपन मिनट पर लिखी गई थी... खैर॥ देखते हैं इसके बारे में ,अब इतने दिनों बाद पाठकों की क्या राय है!

पीढ़ी प्रलाप


मैं एक साथ कई काम करता हूं
अच्छा लगता है
एक साथ कई कामों को निपटाना.

किताबों की दुकान पर
एक ही दिन

'वर्तमान साहित्य','डेबोनेयर','इंडिया टुडे'और 'रोजगार समाचार' खरीदते
कोई संकोच-कोई आश्चर्य नहीं होता.

लोकसेवा आयोग के आवेदन पत्रों पर
अपना फोटो चिपकाते हुए
पत्र-पत्रिकाओं से काटता रहता हूं
नेताओं,भिखारियों और औरतों की तस्वीरें
ताकि 'माई लाइफ' शीर्षक कोलाज बना सकूं.

फिल्म देखते हुए
नाटक के बारे में सोचता हूं
और नाटक करते हुए
जिन्दगी के बारे में - दार्शनिक की तरह.
कमरे का उखड़ता हुआ पलस्तर
गारा-मिट्टी ढ़ोने वाले मजदूरों की तस्वीर नहीं उकेर पाता
और न ही आंखों में चुभती हैं
देर रात गए तक
मेस की किचन में बरतन साफ करने वाले
पहाड़ी किशोर की ठंडी उंगलियां.
बलात्कार की शिकार औरतों की सहानुभूति में
तख्ती उठाकर जुलूस में शामिल होते हुए
मैं देखना चाहता हूं प्रेमिका का शारीरिक सौन्दर्य.
परिचित-अपरिचितों की शोकसभा में
सिर्फ दो मिनट का मौन मुझे अशान्त कर देता है
लाईब्रेरी में बैठते ही
किताबों के शब्द निरर्थक लगने लगते हैं
मैं भाग जाना चाहता हूं
एवरेस्ट या अंटार्कटिका की तरफ़

दिन भर खटने के बाद
लगता है कि आज कुछ भी नहीं किया
प्रभु!
मुझे जीने का बहाना दो
अब तक मैंने कुछ भी नहीं जिया.

सोमवार, 14 अप्रैल 2008

कहां है वसंत:वसंत आते हुए तो दिखा नहीं,क्या आप उसे जाते देख पा रहे हैं?

वसंत यानि मधुऋतु ।वसंत यानि ऋतुओं का राजा,मधुमास,बहार,स्प्रिंग.अरे वही वसंत जिसके आगमन,ठहराव और प्रस्थान को लेकर साहित्य,संगीत,कला के पन्ने के पन्ने रंगे गये हैं.वही वसंत जो मनुष्य की आयु-गणना का मानदंड माना गया है.वही वसंत जिसके आने से आमों में बौर आते हैं,फूल खिलते हैं,कोयल कूकती है,प्रेमियों के ह्र्दय में प्रेम का समुद्र ठाठें मारने लगता है और वे एक दूसरे से पूछते है-'कौन हो तुम वसंत के दूत'! वही वसंत जिसके आने की धमक अब सुनाई नहीं देती और वह अपना रसिया कब कहां ,कैसे कूच कर जाता है पता भी नहीं चलता.

क्या सचमुच वसंत अब भी आता है? या अब ऐसा होता है कि हमारी आंखें उसे देख नहीं पाती हैं? या उसे देख पाने के लिये जिन आंखों की जरूरत होती है वे हमसे छिन गई हैं-छीन ली गई हैं? या कि वे आंखें हमने ही खो दी हैं,या फिर यह भी हो सकता है हमने स्वयं ही मूंद ली हैं अपनी आखें? कहीं कुछ तो गड़बड़ है।लोग कहेंगे सबकुछ दुरुस्त है बस समय नहीं है,फुरसत नहीं है.ठीक भी है, ऐसी चीज के लिए समय कहां जिसका बाजार में कोई मोल नहीं! जिसका न कोई बेचनहार न खरीदने वाला! आज ऐसी चीजों पर बात करने वालों को लोग अजीब-सी निगाह से देखते हैं-गोया किसी लुप्तप्राय प्रजाति के लगभग अंतिम जीवधारी को देखने के भाव से.

वसंत क्या सचमुच 'बस-अंत' की ओर है? या कि मेरा ही दिमाग खराब है जो आज की आपाधापी वाले क्रूर समय में रागात्मकता के तंतुजाल की तलाश कर रहा हूं- इस भयावह समय में एक भावुक उपक्रम? क्या सचमुच कविता और अन्य कला रूपों में ही बचा है वसंत? क्या वही रह गई है उसके सुरक्षित बचे रहने की जगह? क्या जीवन-जगत,प्रकृति-पर्यावरण से उसकी बेदखली का कागज तैयार हो गया है?

इस बरस भी वसंत को बहुत खोजा-किताब,कापियों,डायरियों,फाइलों,सीडी-डीवीडी-कैसेटों से बाहर और परे।जानकार लोगों से खोद-खोदकर पूछा,चश्मे का नम्बर फिर से जंचवाया लेकिन वसंत नजर नहीं आया तो नहीं आया.सोचा बाजार चला जाय, अगर वह वहां बिक रहा हो तो तमाम मंहगाई के बावजूद थोड़ा खरीद कर लाया जाय.आखिर अपनी जरूरत का सामान आदमी खरीद ही रहा है.लेकिन क्या आप विश्वास करेंगे-बाजार में सबकुछ था ,सबकुछ है अपनी दमक,दीप्ति, दर्प और दबंगई से दुनिया-जहान को दुलारता-दुरदुराता. नहीं था, नही है तो वसंत नहीं है- वैसा वसंत जैसा कि मैं देखना चाहता हूं.वैसा वसंत जैसा कि कविताओं,किस्सों,कहानियों,कलाओं में देखा सुना पढ़ा है.आज की जमीन पर खड़े होकर इतिहास के पन्ने पलटते हुए 'मेरा रंग दे बसंती चोला' वाले रंग,रौनक और रोशनी वाला वसंत अब नहीं दीखता.लोग कह रहे हैं उसकी जरूरत क्या है? समय बदल गया है, तुम भी बदलो.कहां चक्कर में पड़े हो मौज करो.खाओ,पीओ मस्त रहो,या दिमाग खराब है तो वसंत को खोजो,कुढ़ो और पस्त रहो.

(मित्रो,वसंत पर यह संवाद/पोस्ट लिखते समय कई कवितायें याद आ रही थीं।कुछ डायरी में लिखी हैं ,कुछ किताबों में हैं और कुछ सीधे जेहन के सीपीयू में.सच मानें इनमें से एक भी अपनी, खुद की लिखी नहीं थीं.शैल मेरे संवाद या किसी भी तरह के लेखन की पहली पाठक-श्रोता होती है,संपादक तो वह है ही.उसने ऊपर लिखे अंश को पढ़कर कहा इसके साथ अपनी कोई कविता लगा दो. अपनी...? मैं संकोच में पड़ गया.शायद तमाम कलमघिसाई के बावजूद इसी संकोच के कारण ही अब तक कोई संग्रह नहीं आ सका है. मई-जून १९९५ में 'आजकल' का 'युवा हिन्दी लेखन' विशेषांक आया था उसी में प्रकाशित अपनी दो कविताओं में से एक 'कहां है वसंत' प्रस्तुत है.शैल ने कहा- उस साल हमारे जीवन में सचमुच वसंत आया था,उसी साल हमारी बिटिया का जन्म हुआ था-गर्मी, धूल-धक्कड़ और लाल मुर्रम वाले शहर बिलासपुर में, जिसके एक सिरे पर बहने वाली नदी 'अरपा' के नाम पर बिटिया का नाम रखना चाहा था.मैं याद कर रहा हूं; जैसे-जैसे तपिश बढ़ती जाती है वैसे-वैसे बिलासपुर की सड़कों पर गुलमुहर और अमलतास की आभा बढ़ती जाती है.यह कई बरस पहले की बात है अब तो तीन-चार सालों से बिलासपुर नहीं जा पाया हूं.इस बार जाना होगा. देखूंगा अब कैसे हैं वहां के गुलमुहर और अमलतास! क्या इस बार वहां आया था वसंत? या फिर वहां भी॥?)

कहां है वसंत

कहां है वसंत
आओ मिलकर खोजें
और खोजते-खोजते थक जायें
थोड़ी देर किसी पेड़ के पास बैठें
सुस्तायें
काम भर ऑक्सीजन पियें
और फिर चल पड़ें.

कहीं तो होगा वसंत!
अधपके खेतों की मेड़ से लेकर
कटोरी में अंकुरित होते हुये चने तक
कवियों की नई-नकोर डायरी से लेकर
स्कूली बच्चों के भारी बस्तों तक
एक-एक चीज को उलट-पुलट कर देखें
चश्मे का नम्बर थोड़ा ठीक करा लें
लोगों से खोदखोदकर पूछें
और बस चले तो सबकी जामातलाशी ले डालें.

कहीं तो होगा वसंत!
आज ,अभी, इसी वक्त
उसे होना चाहिए सही निशाने पर
अक्षांश और देशांतर की इबारतको पोंछकर
उभर आना चाहिये चेहरे पर लालिमा बनकर.

वसंत अभी मरा नहीं है
आओ उसकी नींद में हस्त्क्षेप करें
और मौसम को बदलता हुआ देखें.

गुरुवार, 10 अप्रैल 2008

यह दिन कवि का नहीं , चार कौओं का दिन है

बिना किसी भूमिका, परिचय आदि के अपनी पसंद की एक कविता इस आशा के साथ प्रस्तुत है कि यह आप को भी अच्छी लगेगी.भवानीप्रसाद मिश्र की 'गीत फरोश'और 'सतपुड़ा के जंगल कोई शायद ही भुला सके. 'कविताकोश'नेट पर कवियों का जो डाटाबेस तैयार कर रहा है वह अभी प्रारंभिक अवस्था में है.आज उसकी सैर की.वहां यह कविता बाल कविता के रूप में शामिल है,कोई बात नही!आप भी देखें कि यह सचमुच बच्चों की कविता है? यदि नही , तो बच्चों की कविता कैसी होनी ठीक है? ऐसी भी/ऐसी ही हो तो हर्ज क्या है!

बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले / भवानीप्रसाद मिश्र

बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले ,
उन्होंने यह तय किया कि सारे उडने वाले
उनके ढंग से उडे,रुकें , खायें और गायें
वे जिसको त्यौहार कहें सब उसे मनाएं

कभी कभी जादू हो जाता दुनिया में
दुनिया भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में
ये औगुनिए चार बडे सरताज हो गये
इनके नौकर चील, गरुड और बाज हो गये.

हंस मोर चातक गौरैये किस गिनती में
हाथ बांध कर खडे हो गये सब विनती में
हुक्म हुआ , चातक पंछी रट नहीं लगायें
पिऊ - पिऊ को छोडें कौए - कौए गायें

बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को
खाना - पीना मौज उडाना छुट्भैयों को
कौओं की ऐसी बन आयी पांचों घी में
बडे - बडे मनसूबे आए उनके जी में

उडने तक तक के नियम बदल कर ऐसे ढाले
उडने वाले सिर्फ़ रह गए बैठे ठाले
आगे क्या कुछ हुआ सुनाना बहुत कठिन है
यह दिन कवि का नहीं , चार कौओं का दिन है

उत्सुकता जग जाए तो मेरे घर आ जाना
लंबा किस्सा थोडे में किस तरह सुनाना ?

सोमवार, 7 अप्रैल 2008

'फसल'-अन्न का आख्यान और बाबा का 'सोनिया समंदर'

फसल क्या है?
और तो कुछ नहीं है वह
नदियों के पानी का जादू है वह
हाथों के स्पर्श की महिमा है
भूरी-काली-संदली मिट्टी का गुण धर्म है
रूपांतर है सूरज की किरणों का
सिमटा हुआ संकोच है हवा की थिरकन का!
(नागार्जुन की कविता 'फसल' का एक अंश)

पिछले दो-तीन बारिश हुई.तेज हवायें चलीं.सुना-पढ़ा कछ जगह हल्के ओले भी गिरे.अप्रेल का महीना.होली के बाद सर्दी सरक गई थी और गर्मी ने अपनी आमद दर्ज करानी शुरू कर दी थी,तभी यह बारिश!बे मौसम बरसात!गरम कपड़े एक बार फिर निकल आए.रजाई कंबल फिर भाए.कुछ लोगों को कहते सुना-शिमला,नैनीताल का मौसम हो रहा है;आनंद लो,मौज करो.किसानों के चेहरे उतरे हुए,मौसम की मार का असर-पकी फसल पर बारिश का कहर.कुछ लोगों को कहते सुना-गेहूं का भाव तो काफी ऊपर जायेगा,मंहगाई ने वसे ही कमर तोड़ रक्खी है.आम आदमी कैसे रोटी खायेगा?

मैंने कुछ नहीं कहा.लोगों की बातें सुनता रहा,मन ही मन कुछ उधेड़ता,बुनता रहा.बचपन गांव में बीता है.छोटी जोत के किसान पिता को प्रकृति के परिवर्तित तेवर से प्रसन्न और परेशान होते देखा है.अब भी गांव में ही रहता हूं.मेरे घर के चारों ओर खेत ही खेत हैं,गेहूं की पकी फसल से भरे- भरपूर,अपने भीतर क्षुधा और स्वाद समेटे.जहां तक दृष्टि जाती है वहां तक अन्न का अपरिमित आख्यान उत्कीर्ण दिखाई देता है..कुछ लोगों ने कहा- तुम तो कवि हो,कितना सुहाना मौसम है,कविता लिखो.अब क्या कहूं ऐसे उत्साही काव्य रसिकों को? देश-दुनिया की दूसरी भाषाओं के बारे में तो नहीं जानता लेकिन हिन्दी में यह जरूर लगता है कि 'ऐसे' ही उत्साही काव्य रसिकों,कविता प्रेमियों और सहृदयों ने कवियों की एक बड़ी फौज को तैयार करने के काम का बीड़ा उठा रखा है साथ ही लगे हाथ तारीफ की तत्परता में भी कोई कोर-कसर नहीं. यह कहते हुए क्षमा चाहूंगा कि हिन्दी ब्लाग की दुनिया को मैं जितना भी देख पाया हूं उसका एक बड़ा भाग 'ऐसे' ही सर्जकों और सहृदयों से संकुलित है.

खैर,सुहाने मौसम और सहृदयों के सुझावों से मेरे भीतर का कवि नहीं जागा और मैं ताल-तलैया,झील,पोखर ,नदी,झरने,जंगल की ओर कागज कलम लेकर नहीं भागा.शायद एक 'महान'कविता बनने से रह गई.मैं खुश हूं कि एक दुर्घटना टल गई.लेकिन कई-कई कवियों की कई-कई कवितायें याद आईं,प्रकृति के सुकुमार कवियों की कवितायें भी और प्रकृति से प्रतिरोध की प्रेरणा प्राप्त करने वाले कवियों की कवितायें भी.इस सिलसिले में अपने बाबा(वैद्यनाथ मिश्र/ यात्री/ नागार्जुन)की कई कवितायें याद आईं.उन्होंने प्रकृति पर नहीं ,प्रकृति के साथ मिलकर खूब-खूब लिखा है.'अमल धवल गिरि के शिखरों पर बादल' तो है ही,'बरफ पड़ी है','मेघ बजे','घन कुरंग','फूले कदंब','बहुत दिनों के बाद','मेरी भी आभा है इसमें','फसल''सिके हुए दो भुट्टे','डियर तोताराम','बादल भिगो गए रातोरात' आदि-इत्यादि.बादल,बारिश और पकी फसल से उपजी चर्चा के बीच राजकमल पेपरबैक्स से प्रकाशित 'प्रतिनिधि कवितायें' (सं० नामवर सिंह) से साभार प्रस्तुत है बाबा की एक कविता 'सोनिया समंदर'-


सोनिया समंदर /नागार्जुन

सोनिया समंदर
सामने
लहराता है
जहां तक नजर जाती है

बिछा है मैदान में
सोना ही सोना
सोना ही सोना
सोना ही सोना

गेहूं की पकी फसलें तैयार हैं
बुला रही हैं
खेतिहरों को
..."ले चलो हमें
खलिहान में-
घर की लक्ष्मी के
हवाले करो
ले चलो यहां से"

बुला रही हैं
गेहूं की तैयार फसलें
अपने-अपने कृषकों को...

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2008

साहित्य अपने समाज तक 'कैसे' पहुंचता है ?.... ऐसे…..!

अमल धवल गिरि के शिखरों पर
बादल को घिरते देखा है...


यह उस कविता की पंक्तियां हैं जो हमने अपनी बेटी को तब सिखाया था जब वह बोलने की शुरुआत भर कर रही थी।तब उसकी आवाज में बाबा (नागार्जुन) की यह कविता एक नया संदर्भ,नया अर्थ बताती-सी लगती थीं या फिर ऐसा रहा होगा कि कविता को जीवन के ज्ररूरी हिस्से के रूप में नई पीढ़ी तक पहुंचते देखने की एक सुखद अनुभूति आह्लाद से भर रही थी.कविता या कि संपूर्ण साहित्य के उत्स और आरोहण को मूर्त देखना कितना सहज है और कितना दुर्लभ,यह अनूभूति 'हमारे साहित्य और समाज में महिलायें' विषय पर आयोजित त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्टी (२६,२७ एवं २८ मार्च २००८/रामगढ़ और नैनीताल)) में जाकर हुआ.यह अपनी तरह का एक अलग आयोजन था.इसमें शामिल होने से पहले बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं थी क्योंकि संगोष्ठियों, समारोहों और और सेमीनारों विपुलता के बावजूद हमारी हिन्दी पट्टी में साहित्य और संस्कृति को लेकर कोई खास उत्साह दिखाई नहीं देता है.ऐसा लगता है कि जैसे बाकी सारे काम चल रहे हैं वैसे ही यह भी,एक रस्मी,रवायती अंदाज में कदमताल कर रहा है॥शायद इसी वजह से लग रहा था कि यहां भी वैसा ही होगा जैसा कि आमतौर पर हर 'राष्ट्रीय संगोष्ठी' में होता है; उद्घाटन-समापन, चर्चा-परिचर्चा,बहस-मुबाहसा ,खाना-पीना,गपशप,पते -फोन नंबरों का आदान-प्रदान,टीए-डीए,नमस्ते-टाटा-बाय-बाय-फिर मिलेंगे....लेकिन इस आयोजन में यह सब होते हुए भी यह सब ही नहीं था.इसके पहले दिन की 'रपट' पिछली पोस्ट में लिख चुका हूं .आज बाकी दो दिनों पर थोड़ी बात कर लेते हैं.

ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद मंद था अनिल बह रहा


नैनीताल क्लब के सभागार में चले इस कार्यक्रम पर अखबारों में काफी कुछ छप चुका है,उसका दुहराव मेरी मुराद नहीं है दरअसल मैं तो इस बात का मुरीद हो गया कि आज ऐसे समय में जबकि साहित्य और समाज के रिश्तों पर बात करना बेमानी -सा माना जाने लगा है तब दूर दराज के गांवों से आई ठेठ-साधारण-सामान्य महिलाओं के रू-ब-रू विद्वतजन और रचनाकारों की मुठभेड़ का ऐसा मौका कम से कम मुझ जैसे एक सामान्य पाठक को लंबे समय तक याद रहेगा.ऐसा नहीं है यह पहली बार हुआ है. इस तरह के या इसी से मिलते जुलते आयोजनों के बारे में सुना-पढ़ा था,खासकर दलित रिसोर्स सेंटर के कार्यक्रमों के बारे में, लेकिन इस प्रकार के आयोजन को देखने,इसमे सहभागी बनने का यह पहला अवसर था. नाटक 'कगार की आग '(हिमांशु जोशी) के मंचन और प्रतिभागियों द्वारा शोधपत्रों के प्रस्तुतिकरण के अतिरिक्त २६ एवं २७ मार्च का मुख्य कार्यक्रम समाज और साहित्य में स्त्री की उपस्थिति तथा उससे संबद्ध विमर्श पर केंद्रित कथाकार-एक्टीविस्ट सुधा अरोड़ा के आधार वक्तव्य बाद तीन कहानियों-'फैसला'(मैत्रेयी पुष्पा),(लड़कियां' (मृणाल पांडे),और 'सुहागिनी '(शैलेश मटियानी) के पाठ तथा उन पर परिचर्चा का था.सुधा अरोड़ा ने अपने वक्तव्य में स्त्री विमर्श के वैश्विक और भारतीय संदर्भों का उल्लेख करते हुए इस बात पर जोर दिया कि स्त्री पर होने वाली हिंसा जितनी दैहिक है उससे कहीं ज्यादा मानसिक है.हिंसा केवल वही नहीं करता जो हाथ उठाता है बल्कि उससे कहीं ज्यादा तीखी और तीव्र हिंसा 'मेज पर झुका हुआ एक घुन्ना आदमी' कर जाता है और कमाल है कि उसकी कहीं कोई रपट दर्ज नहीं होती.

'फैसला',लड़कियां' और 'सुहागिनी' तीन अलग-अलग स्वर की कहानियां है।पहली कहानी में एक विवाहिता के निजी संसार से सार्वजनिक संसार में प्रविष्टि के द्वंद्व और दुचित्तेपन की कथा है जो कथ्य और शिल्प दोनो स्तरों पर जागतिक कम निजी अधिक है.दूसरी कहानी एक बालिका की निजता ,स्वत्व और लैंगिक पहचान के उहापोह की पड़ताल है.कथ्य और शिल्प दोनो स्तरों पर इसकी बेधक मार पहली कहानी से कहीं आगे और अधिक है.तीसरी कहानी सामाजिक,परिवारिक कुलशील के कुचक्र में कैद एक स्त्री के अवास्तविक स्वप्न और स्वत्व की कथा है.ऐसा नहीम है कि इन तीनों कहानियों पर मैं कोई निर्णय दे रहा हूं.इसे एक पाठक की त्वरित टिप्पणी भर समझा जाय तो ठीक है किंतु इसमें कोई दो राय नहीं है कि ये तीनों कहानियां स्त्री द्वारा अपने लिए स्पेस के तलाश की कहानियां हैं; एक ऐसा स्पेस जिससे उन्हें वचित कर दिया गया है ,यथार्थ ही नहीं स्वप्न में भी उस ओर ताकने की मनाही है.इस स्पेस की द्युति कहीं -कभी दीख जाती है कभी महिला आरक्षण के नाम पर,कभी देवी के नाम पर और कभी सौभाग्य के नाम पर. बाकी तो 'दुख ही जीवन की कथा रही'.


जाने दो वह कवि कल्पित था
मैंनें तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है।


वे स्त्रियां जिनका साहित्य से उस तरह वास्ता नहीं है जैसा कि हम जैसे लिखने-पढ़ने वाले लोगों का है,जो हाशिये पर रहते हुए अपने स्वत्व की तलाश ही नहीं कर रह रही हैं बल्कि उसे अपने स्तर पर हासिल करने की जद्दोजहद में अपने खुरदरे जीवन को एक आकार दे रही हैं,उन स्त्रियों के समक्ष अन्य के द्वारा लिखी गई उनके स्व की कहानियों का पाठ और और मुख्यतः उन्हीं के द्वारा परिचर्चा को देखना-सुनना मेरे लिए एक अद्भुत अनुभव था.कहानी कैसे बनती है और कैसे अपने पात्रों,अपने समाज तक पहुंचती है इसका प्रत्यक्ष साक्षात्कार उन्हें भी हुआ जो कहानियां लिखते हैं ,उन्हें भी जो कहानियां पढ़ते-पढ़ाते हैं और उन्हें भी जो न तो कहानियां लिखते हैं,न पढ़ते हैं,न पढ़ाते हैं बल्कि जिनका संपूर्ण जीवन ही एक असमाप्त कथा हैं. इस परिचर्चा में कहानियों का एक ऐसा पाठ उभर कर आया जो हिन्दी साहित्य और हिन्दी एकेडेमिक्स में हाशिये पर भी नहीं आता.पद ,पैसा और पुरस्कार के प्रवहमान पाखंड में आकंठ डूबती-उतराती, उभचुभ करती था कभी कभार इनसे निरपेक्ष एक वायवी संसार में विचरण कर मुग्ध-मुदित होती, कभी इनकी निस्सारता से खीझती-खिसियाती हमारी इस छोटी-सी साहित्यिक बिरादरी के लिये यह आयोजन काबिले गौर है. सवाल वही है,अगर गौर करना चाहें तो....

मंगलवार, 1 अप्रैल 2008

देवीधार की 'दीपशिखा' के घर में यह मन्दिर का दीप इसे नीरव जलने दो!

पिछले दिनों 26 मार्च को महदेवी वर्मा (1907-1987) का जन्मदिन था।उनकी स्मृति की छांव में एक बहुत ही सादगी से भरा उल्लेखनीय कार्यक्रम रामगढ़(नैनीताल)के उनके निवास 'मीरा कुटीर'में संपन्न हुआ.यह उनकी जन्मशती वर्ष के संपन्न होने का कार्यक्रम भी था.

यों तो इस तरह का आयोजन हर साल होता है लेकिन इस साल के कार्यक्रम में एक अतिरिक्त सहजता और गरिमा थी जो देश भर से आए साहित्य प्रेमियों की उपस्थिति के कारण लंबे समय तक याद की जाएगी। महदेवी सृजन पीठ,हिन्दी विभाग,कुमाऊं विश्वविद्यालय और महिला समाख्या के इस संयुक्त कार्यक्रम कवि केदारनाथ सिंह ने आधार वक्तव्य में महादेवी के साहित्य के पुनर्पाठ की जरुरत पर बल दिया.कथाकार सुधा अरोड़ा ने उनके शब्दचित्र 'बिट्टो'का पाठ किया.कवि मंगलेश डबराल ने महादेवी के संस्मरण और रेखाचित्रों के नये आयाम खोले.'आधारशिला'(संपादकः दिवाकर भट्ट) के महादेवी वर्मा पर केंदित अंक 'इतिहास में महादेवी' (अतिथि संपादकः बटरोही) का महादेवी के घर में विमोचन इस आयोजन की एक ऐसी घटना है जो बहुत लंबे समय तक याद रहेगी. इस अवसर पर कथाकर विजयमोहन सिंह,दयानंद अनंत,पंकज बिष्ट, क्षितिज शर्मा,कवि वीरेन डंगवाल, जितेन्द्र श्रीवास्तव,अनिल त्रिपाठी,शिरीष कुमार मौर्य,आशुतोष,पल्लव,अनुवादक अशोक पांडे,मधु जोशी,छायाकार कमल जोशी,प्रदेश महिला आयोग की अध्यक्ष राज रावत के साथ बड़ी संख्या प्राध्यापकों,विद्यार्थियों,पत्रकारों और साहित्यप्रेमी जनता की थी.कुमाऊं विश्वविद्यालय के महादेवी सृजन पीठ के निदेशक प्रोफेसर बटरोही,हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर नीरजा टंडन,महिला समाख्या की उत्तराखंड राज्य निदेशक गीता गैरोला और उनकी कर्मठ टीम के कारण यह आयोजन सफल और सार्थक हो सका.

नैनीताल से २५ कि।मी. दूर मल्ला रामगढ़ के देवीधार में महादेवी जी ने 1934 में बदरीनाथ की यात्रा के समय विश्राम किया था और बाद में इसी स्थान पर 'मीरा कुटीर'बनवाया जहां सातवें दशक वे निरंतर आती थीं.यही उनकी कई गद्य और काव्य रचनाओं के अतिरिक्त 'दीपशिखा' की समस्त कवितायें लिखी गई हैं.१९९६ में शासन,स्थानीय जनता और साहित्यकारों के सहयोग से इसे 'महादेवी साहित्य संग्रहालय' का रूप दिया गया.बाद में यह कुछ समय के लिये महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,वर्धा का विस्तार केन्द्र भी रहा .अब यह कुमाऊं विश्वविद्यालय ,नैनीताल का 'महादेवी सृजन पीठ' है जिसके निदेशक कथाकर प्रोफेसर बटरोही हैं.यह पीठ सृजन और संवाद के सेतु के रूप में विकसित होने का लक्ष्य लेकर चल रही है.इस कड़ी में 'शैलेश मटियानी पुस्तकालय की स्थापना हो चुकी है.इस केन्द्र में राष्ट्रीय स्तर के कई कार्यक्रम हो चुके हैं.पीठ के सुचारू संचालन हेतु कुलपति की अध्यक्षता में एक कार्यकारिणी का गठन किया गया है जिसमें कुलपति और विश्वविद्यालय के अन्य प्राध्यापकों के अतिरिक्त अशोक वाजपेयी,केदारनाथ सिंह,दयानंद अनंत,राजीव लोचन साह जैसे साहित्यकार और पत्रकार हैं.रामगढ में ही मीरा कुटीर से कुछ दूर टैगोर टाप है जहां पर गुरुदेव ने काफ़ी लंबा अरसा अपनी बीमार बेटी के साथ व्यतीत किया था .'गीतांजलि' के कुछ अंश यहीं पर लिखे गये थे. अब वह स्थान खंडहर है,वहां जीवन नहीं वीरानी है,सन्नाटा है.पता नहीं हम लोग अपने साहित्य और उससे संबद्ध धरोहरों को संभालना कब सीखेंगे. 'महादेवी सृजनपीठ के साथ ही अगर टैगोर टाप को भी बचाया-संवारा जा सके तो क्या कहने!

हिन्दी में संस्थाओं के बनने ,बिगड़ने और संवरने का एक लंबा इतिहास रहा है.ऐसे लोगों की कमी नहीं है जिन्हें इस खेल में मजा आता है; बनाने में भी और बिगाड़ने में भी.इससे अन्य किसी को नफ़ा-नुकसान जो भी होता हो लेकिन कोई शक नहीं है साहित्य की दुनिया से गहरे लगाव वाले लोगों को तकलीफ़ जरूर होती है.आज के इस क्रूर समय में उसे तो तकलीफ़ होनी ही है जो संवेदनशील है,शब्दों की खेती करता है,हर मौसम में शब्दों को सही और सच्चे अर्थों में बचाए रखने की जुगत में लगा रहता है.तरह-तरह की अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं से उबर कर यह संस्था अब इस स्थिति में आ गई है कि कुछ नया किया जा सकता है.इस संस्था के पास अब अच्छा आर्थिक आधार होने के साथ ही अच्छी टीम भी है. इस बार का आयोजन आश्वस्त करता है कि हम सबकी उम्मीद रंग लाएगी.महादेवी वर्मा ने अपने संपूर्ण जीवन में कुछ नया ही तो करना चाहा था,तमाम अवरोधों-विरोधों के बावजूद.आज उनकी स्मृति को ताजा कर हुए एक कविता प्रस्तुत है-

यह मन्दिर का दीप / महादेवी वर्मा

यह मन्दिर का दीप इसे नीरव जलने दो!

रजत शंख-घड़ियाल, स्वर्ण वंशी, वीणा स्वर,
गये आरती बेला को शत-शत लय से भर;
जब था कल-कण्ठों का मेला
विहँसे उपल-तिमिर था खेला
अब मन्दिर में इष्ट अकेला;
इसे अजिर का शून्य गलाने को गलने दो!

चरणों से चिह्नित अलिन्द की भूमि सुनहली,
प्रणत शिरों को अंक लिये चन्दन की दहली,
झरे सुमन बिखरे अक्षत सित
धूप-अर्घ्य नैवेद्य अपरिमित
तम में सब होगे अन्तर्हित;
सबकी अर्चित कथा इसी लौ में पलने दो!