सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

एक छोटे - से शब्द की तमाम गिरहें।

बाहर होना
भर देता है भीतर की रिक्तियाँ..

'कविता समय'  से लौटते हुए ग्वालियर के बस अड्डे पर जब घर वापसी के लिए अपनी बस में सवार हुआ तो खिड़की से इस बस पर नजर पड़ी। मन मुदित हो गया। ओह ! तो इस नाचीज के नाम पर भी कोई चीज है जो चलती है! बस फोटो खीच ली उस बस की। लगा कि यात्रा  सुखद होगी । वैसे भी घर वापसी की यात्रा सुखद ही होती है - हमेशा। 



घर वापसी

अनंत आकाश के नीचे
एक छत है
जिससे दीख जाता है
अपने हिस्से का अनंत।

इस विपुला पृथिवी पर
एक बिन्दु  के हजारवें भाग
या उससे कम जगह को घेरता हुआ
एक बिन्दु है
जहाँ विश्राम पाती हैं सारी यात्रायें।

यात्राओं में
अपने आप
पीछे छूटती जाती हैं जगहें
दूरियों को काटते -पाटते हुए।

दूरियाँ बतलाती हैं
निकटताओं के विविधवर्णी अर्थ

और खुलती जाती हैं
घर जैसे
एक छोटे - से शब्द की
तमाम दृश्य - अदृश्य गिरहें।
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बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

रात हुई है मुख - पोथी पर चहल पहल है

तमाम फेसबुकिया मित्रों से क्षमा सहित और इसी दुनिया के यायावरों के  लिए आदर और प्यार के साथ एक (और)अतुकान्त तुक.. अपनी एक और कविता..




फेसबुक -२

रात हुई है
मुख - पोथी पर चहल पहल है।
उलझा - उलझा सा है कुछ - कुछ
और बहुत कुछ सहज सरल है।

जीवन है यह
इसमे बहुत मरुस्थल-ऊसर
और कहीं हरियाई लह- लह पुष्ट फसल है।

आओ थोड़ा ठीक करें चश्मे का नंबर
साफ करें धुँधलाती छवियाँ
औ' पहचानें
कहाँ अमिय है - कहाँ गरल है।

दुनिया है यह रंग बिरंगी
अच्छी भी और कुछ बेढंगी
हमको ही गढ़ना है
हमको कुढ़ना है
हमसे ही पसरेगा इसमें सन्नाटा
हमसे ही है
इसमें भरना रंग नवल है।

रात हुई है
मुख - पोथी पर चहल पहल है।
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(* फेसबुक -१ इसी ठिकाने पर यहाँ )

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

मानो पृथ्वी का एक वैकल्पिक पर्याय

अपनी यह कविता पिछले महीने ८ जनवरी को 'अमर उजाला' के रविवासरीय 'जिन्दगी लाइव' में 'इस ठंड के आगे' शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। अब जबकि जबकि जाड़ा जाने की तैयारी  में है और वसंत जहाँ भी , जैसा भी है अपनी धमक के संकेत दे रहा है तब एक बार ( और) इसे सबके साथ साझा करने का मन है। आइए देखते हैं...



पर्यायवाची

यह जाड़ा
यह ठंडक
यह सर्दी
यह टिपटिप करती बरसात
यही है जो पृथ्वी की उर्वरा को निचोड़कर
गेहूँ की फसल के हृदयस्थल में
जरूर ले आएगी सुडौल पुष्ट दाने।
नहरों - ट्यूबवेलों - कुओं का मीठा पानी
उनकी नसों में  तेज कर देगा रक्तसंचार।
कुदाल थामे हाथों की तपिश
दिलासा देगी कि अब दूर नहीं है वसन्त।

अगर सबकुछ  ठीकठाक रहा तो
एक दिन
खलिहानों - घरों  तक पहुंचेगा उछाह का ज्वार
प्रसन्न होंगे चक्की के पथरीले सपाट पाट
जब उनकी कोख से जन्म लेगा  उजला चमकीला आटा।

एक दिन
हाथ और जल की जुगलबन्दी से बनेगी लोई
चूल्हे की कालिख पुती काया में
दीमक लगी लकड़ियाँ भी भरपूर आँच देंगीं
और आश्चर्य की तरह
उदित होगी फूलती हई एक गोल - गोल रोटी
मानो पृथ्वी का एक वैकल्पिक पर्याय

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

एक कवि की कुटुंब कथा

इस ठिकाने पर आप अक्सर हिन्दीतर कविता विशेषकर विश्व कविता  से मेरे निजी  व अनियमित चयन के साझीदार होते रहे हैं। हिन्दी कविता पढ़ते - पढ़ते , लिखते - देखते मन होता है कि दुनिया के दूसरे हिस्सों में लिखे गए / लिखे जा रहे  काव्य को कविता प्रेमियों और अध्येताओं के साथ शेयर किया किया जाय। आज इसी क्रम में प्रस्तुत है स्त्री स्वर की एक  सशक्त  प्रस्तुतकर्ता पुलित्ज़र पुरस्कार से सम्मानित अमरीकी कवि कैरोलिन कीज़र की  यह कविता। कैरोलिन  उन कवियों में से हैं जिन्होंने  प्रत्यक्षत: / परोक्षत: अपने समकालीनों पर बड़ी चुटीली कवितायें भी लिखी हैं....


कैरोलिन कीज़र की कविता


एक कवि की कुटुंब कथा 
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )


मोटी जर्सी में कसी
पुष्ट देहदारी कवि की देह
एक अधेड चोर की तरह
ले रही है पंजों के  बल आश्चर्यजनक उछाल
अरे!  कहीं नन्हे पाखी रोबिन को लग तो नहीं गई चोट?


हंसों को दाने चुगाने  के वास्ते  झुकती है वह
घुघराली केशराशि के नीचे
प्रकट हो उठता है उसकी ग्रीवा का  उजला वक्र
उसके पति को लगता है मानो कुछ दिखा ही नहीं
जबकि उसकी कविताओं  में
वही स्त्री  कर रही  है झिलमिल - झिलमिल।


पूरे घर में व्याप्त है
नीरवता का  समृद्ध साम्राज्य
गुलदान में शोभायमान एक अकेले फर्न की हिलडुल
इसे किंचित भंग कर रही है अलबत्ता।
पोर्च में पसरा प्रचंड कवि
अपने आप से कर रहा है सतत वार्तालाप।


रविवार, 13 फ़रवरी 2011

फैज : जगह-जगह पे थे नासेह तो कू-ब-कू दिलबर

* जन्मशती पर फ़ैज अहमद फ़ैज (१९११- १९८४) को याद करते हुए ..क्या लिखा जाय उस पर जिस पर इतना लिखा गया है लिखा जाएगा कि उम्र छोटी पड़ जाय। इस बड़े रचनाकार के बड़प्पन की अपनी पसंदीदा बानगी के रूप में आज उनकी दो रचनायें ; पहली महाकवि ग़ालिब को समर्पित और दूसरी मख़दूम मोहिउद्दीन (१९०८-१९६९) की स्मृति में जिसे स्वर दिया है आबिदा परवीन ने। साथ में एक साझा तस्वीर शताब्दी के महान कवि पाब्लो नेरुदा (१९०४-१९७३) के साथ। तो लीजिए जन्मशती पर फै़ज को याद करते हुए प्रस्तुत है यह एक कोलाज : 
  

* नज़्रे ग़ालिब :

किसी गुमाँ पे तवक़्क़ो ज़ियादा रखते हैं।
फिर आज कू-ए-बुताँ का इरादा रखते हैं।
बहार आयेगी जब आयेगी, यह शर्त नहीं
कि
 तश्‍नाकम रहें गर्चा बादा रखते हैं।
तेरी नज़र का गिला क्या जो है गिला दिल को
तो हमसे है कि तमन्ना ज़ियादा रखते हैं।
नहीं शराब से रंगी तो ग़र्क़े-ख़ूं हैं के हम
ख़याले-वज्ए-क़मीसो-लबादा रखते हैं।
ग़मे-जहाँ हो, ग़मे-यार हो कि तीरे-सितम
जो आये, आये कि हम दिल कुशादा रखते हैं।
जवाबे-वाइज़े-चाबुक-ज़बाँ में 'फ़ैज़' हमें
यही बहुत है जो दो हर्फ़े-सादा रखते हैं। 



** मख़दूम की याद में:
 
आप की याद आती रही रात भर।
चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर।
गाह जलती हुई, गाह बुझती हुई
शम्मे-ग़म झिलमिलाती रही रात भर।
कोई ख़ुशबू बदलती रही पैरहन
कोई तस्वीर गाती रही रात भर।
फिर सबा साया-ए-शाख़े-गुल के तले
कोई किस्सा सुनाती रही रात भर।
जो न आया उसे कोई ज़ंजीरे-दर
हर सदा पर बुलाती रही रात भर।
एक उम्मीद से दिल बहलता रहा
इक तमन्ना सताती रही रात भर।

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

अपने ही भीतर है इच्छित आनन्द


आज वसंत पंचमी के दिन अपना  लगभग पूरा ही दिन उत्सवमय रहा। आज छुट्टी थी सो सुबह देर से बिस्तर छोड़ने का आनंद लिया गया। नाश्ते में  मनपसंद पूरबिया चूड़ा - मटर और दोपहर के खाने में दिव्य  लोक की सैर कराने वाली तहरी। आज दोपहर बाद का दिन  कविता गोष्ठियों के लिए तय था। दोपहर बाद दो बजे से अपने  ही कस्बे में और शाम चार बजे से ग्यारह किलोमीटर दूर के एक  दूसरे कस्बे में। इसी बीच एक मित्र से वादा था कि दूर  उनके धुर पहाड़ी कस्बे में चल रही निराला जयंती पर आयोजित कवि गोष्ठी में मैं  फोन पर अपनी कविता सुनाउँगा। घर से निकलने से पहले बिटिया हिमानी ने कहा कि आज वसंतपंचमी पर कोई कविता नहीं लिखोगे? मैंने कहा कि मैं तो फरमाईश पर कविता लिखता नहीं हूँ । फिर मन हुआ कि क्यों न  बिटिया के कहने  पर कुछ लिख ही दिया जाय। जल्दबाजी में  सीधे कंप्यूटर पर कुछ यूँ ही - सा लिखा और दूर - बहुत बैठे एक  आत्मीय कवि मित्र को चैट के मार्फत  तुरन्त  पढ़वा भी दिया। कुल मिलाकर आज तीन गोष्ठियों में शामिल हुआ ; दो में सदेह और एक में मोबाइल की माया से। अभी बस  अभी शादी की एक दावत से लौटा हूँ और मन है सोने से पहले आज लिखी  कविता को सबके साथ साझा कर लिया जाय। तो लीजिए प्रस्तुत है आज की यह कविता  और आइए मिल कर खोजें कि अपने आसपास कैसा और कितना वसंत विद्यमान है :
  



वसंतपंचमी पर 

यदि कहीं मिल जाए आपको रितुराज।
फोन मुझको कर देना मिल लूँगा आज।

बचपन में दिखते थे टेसू  और पलाश।
आम्रबौर भरता था जग में उल्लास।
किन्तु आज घट रहा वन का घनत्व,
रामजी कहाँ जायेंगे भोगने वनवास।

बदल रही दुनिया बदल रहा सौंदर्यबोध,
कविता में चल रहा पुरातन रिवाज।

प्रचुरतम साधन हैं समय सबसे कम।
दिपदिपाते मुखड़े हैं आँख लेकिन नम।
लालसा की लालिमा से रक्ताभ नभ है,
पृथ्वी पर पसरा है  वैभव का भ्रम।

कागज के खेतों में कविता की खेती है,
मन का खलिहान खोजे सुख का अनाज।

अपने ही भीतर है इच्छित आनन्द।
जैसे कि पुष्प में रहती  गन्ध बन्द।
वसन्त तो बहाना है आत्मान्वेषण का,
स्वयं हमें रचना है जीवन का छन्द।

आज वसंतपंचमी पर अपने से बात करें,
बदले हम ताकि बदल जाए यह समाज।
यदि कहीं मिल जाए आपको रितुराज।
फोन मुझको कर देना मिल लूँगा आज।