शनिवार, 30 अगस्त 2008

अब थोड़ा-सा ध्यान लगाओ बूझो एक पहेली


मैं ना किसी को कुछ भी सुझाऊं.
करूं तो तो बस यह पहेली बुझाऊं.
सब हैं अपने दोस्त-सहेली,
अब थोड़ा-सा ध्यान लगाओ बूझो एक पहेली -
******

ना चिड़िया ना चिड़ा,
उड़-उड़ के इंसान से भिड़ा।

*******
( उत्तर मिले तो बताय दीजो
गर पसंद न आय तो मत खीजो ! )

गुरुवार, 28 अगस्त 2008

इस कविता की याद आती रही और मैं उदास होता रहा


पुराने बक्से से खूब पुरानी चीजें निकल रही हैं।पुरानी पीले पड़ गए कागज-पत्तरों के बीच ऐसी-ऐसी अद्भुत चीजें निकल रही हैं कि लगता है कि जैसे कोई जादुई बकुचा हाथ लग है और एक कुशल मदारी की तरह मजमा लगाने का पूरा माल-असबाब इकठ्ठा हो गया है. आज से लगभग अठारह बरस पहले का एक कागज नमूदार हुआ है जिस पर 'बालिका वर्ष' शीर्षक से अपने हस्तलेख में एक कविता है. इस कविता बाबत मैं यह मान चुका था कि इसकी कोई भी प्रति (हस्तलिखित अथवा मुद्रित) मेरे पास नहीं है- न डायरी में न फ़ाइल में.लेकिन यह तो प्रकट हो गई. दरअसल यह कविता १९९० में 'दक्षेस' द्वारा घोषित और मनाए जा रहे बालिका वर्ष को लेकर लिखी गई थी और उस समय के लोकप्रिय साप्ताहिक अखबार 'संडे आब्जर्वर' में प्रकाशित हुई थी. बीच -बीच में इस कविता की याद आती रही और मैं उदास होता रहा. अब जबकि खुद एक बेटी का पिता हूं तब कविता की 'बिट्टो' का दु:ख और परे्शान करता है. आज इस कविता को 'कर्मनाशा' पर प्रस्तुत करने का उद्देश्य बस इतना भर है कि दुनिया भर की तमाम बेटियां अपने जन्म से पहले ही काल के गाल में न समायें, स्वस्थ रहें, खुश रहें, हंसती-खेलती रहें,मासूम गौरैयों की तरह हमारे घर आंगनों में फ़ुदकती रहें और उन्हें देखकर हमारी आंखें जुड़ाती रहें.

बालिका वर्ष

खुश हो जा मेरी मेरी बिट्टो !
यह तेरा वर्ष है.
दक्षेस ने तेरे नाम कर दिया है यह वर्ष
पता है तुझे दक्षेस?
समझ ले कि दुनिया के सात देश
इस वर्ष तेरी ही चिन्ता में डूबे हुए हैं.
उन्हें हर हाल में साल रहा है तेरा दु:ख
वे हर तरफ़ से खोज रहे हैं
तेरे लिए खुशी-तेरे लिए सुख.
सात भाइयों की तरह
तुझे चंवर डुला रहे हैं दुनिया के सात देश !

देश किसे कहते हैं
यह मत जान-मत सोच
छोटे-से बाल मस्तिष्क पर
मत डाल इतना गुरुतर बोझ
इस वर्ष तू मुस्कान बिखेरती रह
कैमरे की आंख तेरी तरफ़ है
तेरी ओर टकटकी बांधे देख रहा है
समूचा प्रचारतंत्र , प्रजातंत्र और राजतंत्र.
इस वर्ष तू भूख की बात मत कर
मत रो कि तेरे कपड़े तार-तार हो गए हैं
गुमसुम मत बैठ कि तेरे पास कोई खिलौना नहीं है
तेरे पास एक वर्ष है बिट्टो ! हर्ष कर !

पूरे तीन सौ पैंसठ दिन
तेरे नाम कर दिए गए हैं
हमारे प्रति कृतज्ञ रह और काम कर.
अपने चेहरे की तरह चमका दे घर के सारे बासन
कोयले से मत लिख क ख ग
फ़र्श पर मत फ़ैला गंदगी.
चूल्हे पर अदहन तैयार है
पूरे कुनबे के लिए भात रांध और माड़ पी
यह तेरा वर्ष है -तुझे तंदुरुस्त दीखना है
बचना है हारी-बीमारी से !

राजधानियों में
दीवारों पर चस्पां हैं तेरे पोस्टर
मेजों पर बिखरी पड़ी हैं
तेरी रंगीन पुस्तिकायें
टेलीविजन के पर्दे पर तू उछल-कूद रही है
देख तो इस वर्ष तुझे कितने फ़ुरसत हो गई है.
नन्हें खरगोशों की तरह
तू एक साथ सात देशों की जमीन पर खेल रही है.

वर्ष बीतने पर
क्या तू सचमुच मांद में दुबक जाएगी मेरी बिट्टो !
या एक वर्ष तक हर्ष मनाकर
बिल्कुल थक जाएगी मेरी बिट्टो !
वर्षान्त करीब है
यह तेरा वर्ष है बिट्टो ! तू खुश रह !

रविवार, 24 अगस्त 2008

जन्माष्टमी, कविता और रहीम


पर्व -त्योहारों के आने पर मैं यथा अवसर बनाए जाने वाले पकवानों का आनंद तो लेता ही हूं , पता नहीं क्यों पर्वों से सम्बद्ध कवितायें याद आने लगती हैं। हो सकता है यह त्योहार मनाने का मेरा अपना तरीका हो या फिर कविता-शायरी में डूबे रहने की आदत के कारण होता हो. खैर, जो भी हो. आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर तरह-तह के पकवान तो हैं जिन्हें आप सब तक पहुचाने की कोई जुगत नहीं है लेकिन कवितायें तो पहुंचाई ही जा सकती हैं.

आज श्रीकृष्ण और कृष्ण (भक्ति) काव्य परंपरा से जुड़े कई कवि याद आते रहे। विद्यापति, सूर, मीरां, रसखान और तमाम मध्यकालीन कवियों के साथ जयदेव को खूब याद किया, 'गीत गोविन्द' पढा.नजीर अकबराबादी को याद किया. रहीम को आज पूरी दोपहर पढता रहा. रहीम या अब्दुर्रहीम खानखानां हालांकि कृष्ण काव्य परंपरा से उस तरह से सम्बद्ध नहीं माने जाते हैं जैसे ऊपर उल्लिखित कवि.वे तो कलम के धनी होने के साथ तलवार के भी धनी थे. अकबरी और जहांगीरी दरबार से जुड़े रहीम का व्यक्तित्व बहुआयामी रहा है. हिन्दी वालों के लिए रहीम नीतिपरक दोहों के रचनाकार के रूप में जाने जाते हैं लेकिन यह बताना (शायद) कोई नई बात नहीं होगी कि उन्होंने कई भाषाओं में लिखा है. आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर श्रीकृष्ण की विनती में रहीम के लिखे दो श्लोक प्रस्तुत हैं-

आनीता नटवन्मया तव पुर: श्रीकृष्ण ! या भूमिका .
व्योमाकाशखखांबराब्धिवसवस्त्वप्रीत्येद्यावधि ..
प्रीतस्त्वं यदि चेन्निरीक्ष्य भवगन् स्वप्रार्थित देहि मे .
नीचेद ब्रूहि कदापि मानय पुनस्त्वेताद्रिशीं भूमिकाम् ..

( हे श्रीकृष्ण ! आपकी प्रीति की प्रत्याशा में मैं आज तक नट की चाल पर आपके सामने लाया जाने से चौरासी लाख रूप धारण करता रहा हूं। हे भगवन ! यदि आप मेरी इस गति से प्रसन्न हुए हैं तो आज मैं जो कुछ भी मांगता हूं उसे दीजिये और यदि नही तो ऐसी आज्ञा दीजिये कि मैं फिर कभी इस तरह के स्वांग को धारण कर / करने हेतु इस पृथ्वी पर न लाया जाऊं )

***
रत्नाकरोस्ति सदनं गृहिणी च पद्मा,
किं देयमस्ति भवते जगदीश्वराय .
राधागृहीतमनसे मनसे च तुभ्यं,
दत्तं मया निज मनस्तदिदं गृहाण ..

(रत्नाकर या समुद्र आपका सदन या गृह है और लक्ष्मी जी आपकी गृहिणी हैं। तब हे जगदीश्वर ! आप ही बताइये कि आपको देने योग्य बचा ही क्या? राधा जी ने आपके मन मन का हरण कर लिया है, यही एक वस्तु आप के पास नहीं है जिसे मैं आपको देता हूं ,ग्रहण कीजिये.)

शुक्रवार, 22 अगस्त 2008

मधुकर गाजीपुरी की शायरी


पिछली पोस्ट में पुरानी डायरी का उल्लेख कर चुका हूं। उसमें से एक कविता भी प्रस्तुत की थी जिसे पसंद भी किया गया. उसी डायरी में से कुछ और..... किसी जमाने में इस नाचीज ने 'मधुकर' उपनाम धरा था. हालांकि बाद में इस नाम / उपनाम से मोहभंग हो गया था और एक हद तक इश्क - मुश्क की शायरी से भी लेकिन अब जबकि पुरानी डायरी नमूदार हुई है तो (पुरानी) शायरी ने भी करवट बदली है, अपनी आमद रवां-दवां की है। , वैसे इस बंदे का तखल्लुस तो 'मधुकर' था लेकिन यार-दोस्तों ने (खासकर अशोक पांडे ने) 'गाजीपुरी' जोड़ कर ऐसी इज्जत बख्शी की उस दौर के एक उभरते शायर (?) ने आगे चलकर शायरी ( कहने और लिखने) से ही मुंह मोड़ -सा लिया. खैर, वह एक अलग किस्सा है. फ़िलहाल पेश ए- खिदमत हैं दो नमूने -

मधुकर गाजीपुरी की दो गजलें

१.
आइए एक खत लिखें हम जिंदगी के नाम.
उम्र की ना - आशना आवारगी के नाम.

मन की सोई झील में कोई लहर लेगी जनम,
छोट - सा कंकड़ उछालें अजनबी के नाम.

बे-शऊरी से हर इक मसरूफ़ है मयखाने में,
यह सदी क्या बिक गई हैअ मयकशी के नाम.

यह गली अंधी गली, गूंगे यहां के सारे घर,
कैसे दे आवाज कोई रोशनी के नाम.

जब कयामत आएगी तो मैं बचाना चाहूंगा,
उसकी खुशबू, उसके किस्से, उस परी के नाम.

२.
जब तेरे शहर से मैं तनहा चला जाऊंगा.
क्या ये मुमकिन है तुझे याद कभी आऊंगा.

एक पहचान थी जो खो गई है जाने कहां,
अजनबीपन को लिये कैसे मुस्कुराऊंगा.

मैं अपने आप की सरहद को छू नहीं सकता,
मैं तेरे प्यार को कैसे गले लगाऊंगा.

हौसला कायम है सहराओं में गुजरने का,
कारवां हो न हो मैं रास्ता बनाऊंगा.

मेरे रकीब! मेरे दोस्त! मेरे दुश्मन! मेरे अजीज!
तेरा खयाल साथ है तो क्या घबराऊंगा.

गुरुवार, 7 अगस्त 2008

उड़ न जाये गंध


अभी कुछ दिन पहले पुराने घर से लगभग दस-बारह साल से तालाबंद वह बक्सा उठाकर लाया हूं जिसमें किताबें भरी हुई थीं.कई पुरानी डायरियां भी उनमें थीं और डायरियों में काफ़ी पुरानी कवितायें भी. एक समय इफ़रात में छंदबद्ध कवितायें लिखी थीं . उस समय उम्र और अनुभव की जो समझ और सीमा थी वह सब कुछ इन डायरियों से गुजरते हुए दीख रहा है. आज अपनी ही रचनाओं को पढ़ना नया-नया जैसा लग रहा है. मैं इन कविताओं को डिसऒन कर पुराने दिनों की गमक से वंचित नहीं होना चाहता. प्रस्तुत है एक कविता या गीत या नवगीत ( चाहे जो कह लें) :-

उड़ न जाये गंध

मन की अधबनी
मटीली प्यालियों में
देखो तुम यूं नेह का चंदन न घोलो !

बह न जाये रंग
उड़ न जाये गंध
टूट न जाये कहीं
मौसमी अनुबंध


रहने दो अंकुश
नवागत स्वप्नों की दहलीज पर
उनसे ऐसी रसभरी बातें न बोलो !

मत करो एकान्त के
अवसान का आह्वान
गूंज जायेंगे समूचे प्राण में
देवताओं के मधुरतम गान

इसलिए तुम
उड़ने की इच्छा में भरकर
इस तरह अंगड़ाइयों के पर न तोलो!

मंगलवार, 5 अगस्त 2008

मैं लहर खुद पर टूटती हुई

हमारे समय के सब से ज़रूरी सरोकारों को लेकर वीरेन डंगवाल की अति सचेत कविता इधर के सालों में ज़्यादा पैनी और विस्तृत होती गई है. हिन्दी साहित्य में खूब उद्धृत की जाने वाली "इतने भले नहीं बन जाना साथी, जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी" उनके पहले काव्य संग्रह 'इसी दुनिया में' की एक कविता की शुरुआत है. इस किताब की भूमिका में कवि-अनुवादक-नाटककार नीलाभ जी ने उन्हें "दुर्लभ कविताओं का कवि" बतलाया था. वीरेन डंगवाल अपनी कविताओं को लेकर बेज़ारी की हद तक लापरवाह आदमी हैं. मुझे याद पड़ता है किस तरह स्वयं नीलाभ ने अनेक अन्य साथियों की मदद से वीरेन जी की यहां वहां बिखरी कविताओं को खोज-समेट कर इस किताब की पांडुलिपि तैयार की थी.उनके अगले संग्रह 'दुश्चक्र में सृष्टा' के आने में दस से अधिक साल लगे. अब उनके तीसरे संग्रह की तैयारी है. इस प्रकाशनाधीन संग्रह की तकरीबन सारी कविताएं तमाम साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी हैं. साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित इस बड़े कवि का आज जन्मदिन है. आज ही के दिन १९४७ में टिहरी गढ़वाल कीर्तिनगर में जन्मे श्री वीरेन डंगवाल आज इकसठ बरस के हो गये. वह दीर्घायु हों, स्वस्थ -सानंद रहें , निरंतर रचते रहें और देश-दुनिया-जहान में मौजूद तमाम पाठकों-प्रशंसकों की दुआयें उन्हें लगती रहें. 'कर्मनाशा' की ओर से उन्हें बधाई और जन्मदिन मुबारक !

प्रस्तुत हैं अपने प्रिय कवि वीरेन डंगवाल की दो कविताये-

बांदा

मैं रात, मैं चाँद, मैं मोटे काँच
का गिलास
मैं लहर खुद पर टूटती हुई
मैं नवाब का तालाब उम्र तीन सौ साल।
मैं नींद, मैं अनिद्रा, कुत्ते के रुदन में
फैलता अपना अकेलापन
मैं चाँदनी में चुपचाप रोती एक
बूढ़ी ठठरी भैंस
मैं इस रेस्टहाउस के खाली
पुरानेपन की बात।
मैं खपड़ैल, मैं खपड़ैल।
मै जामा मस्जिद की शाही संगमरमरी मीनार
मैं केदार, मैं केदार, मैं कम बूढ़ा केदार !

तोप

कम्पनी बाग़ के मुहाने पर
धर रखी गई है यह 1857 की तोप
इसकी होती है बड़ी सम्हाल
विरासत में मिले
कम्पनी बाग की तरह
साल में चमकायी जाती है दो बार
सुबह-शाम कम्पनी बाग में आते हैं बहुत से सैलानी
उन्हें बताती है यह तोप
कि मैं बड़ी जबर
उड़ा दिये थे मैंने
अच्छे-अच्छे सूरमाओं के छज्जे
अपने ज़माने में
अब तो बहरहाल
छोटे लड़कों की घुड़सवारी से अगर यह फारिग हो
तो उसके ऊपर बैठकर
चिड़ियाँ ही अकसर करती हैं गपशप
कभी-कभी शैतानी में वे इसके भीतर भी घुस जाती हैं
ख़ासकर गौरैयें
वे बताती हैं कि दरअसल कितनी भी बड़ी हो तोप
एक दिन तो होना ही है उनका मुँह बन्द !

( कवि के परिचय में लिखी गई पंक्तियों के लिए अपने दोस्त और 'कबाड़खाना' के मुखिया अशोक पांडे को धन्यवाद )

सोमवार, 4 अगस्त 2008

फ़्रेंडशिप डे और आचार्य रामचंद्र शुक्ल का निबंध- 'मित्रता'


कल शाम को अपने क्स्बे की एक बड़ी दुकान पर राखियां खरीदने गया था. सोमवार को पहली डाक से सालों को पोस्ट जो करनी हैं. तरह- तरह की रखियां, तरह-तरह के कार्ड्स. मैंने अपने मतलब की चीज छांटी. से्ल्समैन बिल बनाने लगा तो इधर-उधर ध्यान दिया. वहां ढेर सारी लड़कियों और कुछ लड़कों को कुछ अलग तरह की राखियां और कार्ड्स खरीदते देखा. सोचा बाज़ार में रोज तरह-तरह की चीजें आ रही हैं यह कुछ नई किस्म की राखियां होंगी. घर आकर शैल को यह बात बताई तो वह बोलीं- कल फ़ेरंडशिप डे है , वह राखियां नहीं फ़्रेंडशिप बैंड्स होंगी.

आज ब्लाग विचरण करते हुए सचमुच लग रहा है कि फ़्रेंडशिप डे है . तरह-तरह की पोस्ट हैं .हम तो ठहरे गांव के मनई. हमारी तो सबसे फ़्रेंडशिप है और रोजाना फ़्रेंडशिप डे. लेकिन पता नहीं क्यों आज 'फ़्रेंडशिप डे के पावन अवसर पर' स्कूल के दिनों मे अपने कोर्स मे पढे एक निबंध की बेतरह याद आ रही है . वह निबंध था - ' मित्रता' और लेखक रामचंद्र शुक्ल. प्रस्तुत है वही निबंध-

मित्रता / रामचंद्र शुक्ल

जब कोई युवा पुरुष अपने घर से बाहर निकलकर बाहरी संसार में अपनी स्थिति जमाता है, तब पहली कठिनता उसे मित्र चुनने में पड़ती है। यदि उसकी स्थिति बिल्कुल एकान्त और निराली नहीं रहती तो उसकी जान-पहचान के लोग धड़ाधड़ बढ़ते जाते हैं और थोड़े ही दिनों में कुछ लोगों से उसका हेल-मेल हो जाता है। यही हेल-मेल बढ़ते-बढ़ते मित्रता के रूप में परिणत हो जाता है। मित्रों के चुनाव की उपयुक्तता पर उसके जीवन की सफ़लता निर्भर हो जाती है; क्योकि संगति का गुप्त प्रभाव हमारे आचरण पर बड़ा भारी पड़ता है। हम लोग ऎसे समय में समाज में प्रवेश करके अपना कार्य आरम्भ करते हैं जबकि हमारा चित्त कोमल और हर तरह का संस्कार ग्रहण करने योग्य रहता है, हमारे भाव अपरिमार्जित और हमारी प्रवृत्ति अपरिपक्व रहती है। हम लोग कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान रहते है जिसे जो जिस रूप में चाहे, उस रूप का करे-चाहे वह राक्षस बनावे, चाहे देवता। ऎसे लोगों का साथ करना हमारे लिए बुरा है जो हमसे अधिक दृढ़ संकल्प के हैं; क्योंकि हमें उनकी हर एक बात बिना विरोध के मान लेनी पड़ती है। पर ऎसे लोगों का साथ करना और बुरा है जो हमारी ही बात को ऊपर रखते है; क्योकिं ऎसी दशा में न तो हमारे ऊपर कोई दाब रहता है, और न हमारे लिए कोई सहारा रहता है। दोनों अवस्थाओं में जिस बात का भय रहता है, उसका पता युवा पुरूषों को प्राय: विवेक से कम रहता है। यदि विवेक से काम लिया जाये तो यह भय नहीं रहता, पर युवा पुरूष प्राय: विवेक से कम काम लेते है। कैसे आश्चर्य की बात है कि लोग एक घोड़ा लेते हैं तो उसके गुण-दोषों को कितना परख लेते है, पर किसी को मित्र बनाने में उसके पूर्व आचरण और प्रक्रति आदि का कुछ भी विचार और अनुसन्धान नहीं करते। वे उसमें सब बातें अच्छी ही अच्छी मानकर अपना पूरा विश्वास जमा देते हैं। हंसमुख चेहरा, बातचीत का ढंग, थोड़ी चतुराई या साहस-ये ही दो चार बातें किसी में देखकर लोग चटपट उसे अपना बना लेते है। हम लोग नहीं सोचते कि मैत्री का उद्देश्य क्या हैं, तथा जीवन के व्यवहार में उसका कुछ मूल्य भी है। यह बात हमें नही सूझती कि यह ऎसा साधन है जिससे आत्मशिक्षा का कार्य बहुत सुगम हो जाता है। एक प्राचीन विद्वान का वचन है- "विश्वासपात्र मित्र से बड़ी भारी रक्षा रहती है। जिसे ऎसा मित्र मिल जाये उसे समझना चाहिए कि खजाना मिल गया।" विश्वासपात्र मित्र जीवन की एक औषधि है। हमें अपने मित्रों से यह आशा रखनी चाहिए कि वे उत्तम संकल्पों मे हमें दृढ़ करेंगे, दोष और त्रुटियों से हमें बचायेगे, हमारे सत्य , पवित्रता और मर्यादा के प्रेम को पुष्ट करे, जब हम कुमार्ग पर पैर रखेंगे, तब वे हमें सचेत करेंगे, जब हम हतोत्साहित होंगे तब हमें उत्साहित करेंगे। सारांश यह है कि वे हमें उत्तमतापूर्वक जीवन निर्वाह करने में हर तरह से सहायता देंगे। सच्ची मित्रता से उत्तम से उत्तम वैद्य की-सी निपुण्ता और परख होती है, अच्छी से अच्छी माता का सा धैर्य और कोमतला होती है। ऎसी ही मित्रता करने का प्रयत्न पुरूष को करना चाहिए।

छात्रावास में तो मित्रता की धुन सवार रहती है। मित्रता ह्रदय से उमड़ पड़ती है। पीछे के जो स्नेह-बन्धन होते हैं, उसमें न तो उतनी उमंग रह्ती हैं, न उतनी खिन्नता। बाल-मैत्री में जो मनन करने वाला आनन्द होता है, जो ह्रदय को बेधने वाली ईर्ष्या होती है, वह और कहां? कैसी मधुरता और कैसी अनुरक्ति होती है, कैसा अपार विश्वास होता है। ह्रदय के कैसे-कैसे उदगार निकलते है। वर्तमान कैसा आनन्दमय दिखायी पड़ता है और भविष्य के सम्बन्ध में कैसी लुभाने वाली कल्पनाएं मन में रहती है। कितनी जल्दी बातें लगती है और कितनी जल्दी मानना-मनाना होता है। 'सहपाठी की मित्रता' इस उक्ति में ह्रदय के कितने भारी उथल-पुथल का भाव भरा हुआ है। किन्तु जिस प्रकार युवा पुरूष की मित्रता स्कूल के बालक की मित्रता से द्रढ़, शान्त और गम्भीर होती है, उसी प्रकार हमारी युवावस्था के मित्र बाल्यावस्था के मित्रों से कई बातों में भिन्न होते हैं। मैं समझता हूं कि मित्र चाहते हुए बहुत से लोग मित्र के आदर्श की कल्पना मन में करते होगे, पर इस कल्पित आदर्श से तो हमारा काम जीवन की झंझटो में चलता नहीं। सुन्दर प्रतिमा, मनभावनी चाल और स्वच्छन्द प्रक्रति ये ही दो-चार बातें देखकर मित्रता की जाती है। पर जीवन-संग्राम में साथ देने वाले मित्रों में इनसे कुछ अधिक बाते चाहिए। मित्र केवल उसे नही कहते जिसके गुणों की तो हम प्रशंसा करे, पर जिससे हम स्नेह न कर सकें. जिससे अपने छोटे-मोटे काम तो हम निकालते जायें, पर भीतर-ही-भीतर घ्रणा करते रहे? मित्र सच्चे पथ-प्रदर्शक के समान होना चाहिए, जिस पर हम पूरा विश्वास कर सकें, भाई के समान होना चाहिए, जिसे हम अपना प्रीति-पात्र बना सकें। हमारे और हमारे मित्र के बीच सच्ची सहानुभुति होनी चाहिए- ऎसी सहानुभूति जिससे एक के हानि-लाभ को दूसरा अपना हानि-लाभ समझे। मित्रता के लिए यह आवश्यक नही है कि दो मित्र एक ही प्रकार का कार्य करते हों या एक ही रूचि के हो। इसी प्रकार प्रक्रति और आचरण की समानता भी आवश्यक या वांछनीय नहीं है। दो भिन्न प्रक्रति के मनुष्यों मेम बराबर प्रीति और मित्रता रही है। राम धीर और शान्त प्रक्रति के थे, लक्ष्मण उग्र और उद्धत स्वभाव के थे, पर दोनों भाइयों में अत्यन्त प्रगाढ़ स्नेह था। उदार तथा उच्चाशय कर्ण और लोभी दुर्योधन के स्वभावों में कुछ विशेष समानता न थी. पर उन दोनों की मित्रता खूब निभी। यह कोई भी बात नहीं है कि एक ही स्वभाव और रूचि के लोगों में ही मित्रता खूब निभी। यह कोई भी बात नही हैं कि एक ही स्वभाव और रूचि के लोगों में ही मित्रता हो सकती है। समाज में विभिन्नता देखकर लोग एक दूसरे की ओर आकर्षित होते है, जो गुण हममें नहीं है हम चाह्ते है कि कोई ऎसा मित्र मिले, जिसमें वे गुण हों। चिन्ताशील मनुष्य प्रफ़ुल्लित चित्त का साथ ढूंढता है, निर्बल बली का, धीर उत्साही का। उच्च आकांक्षावाला चन्द्रगुप्त युक्ति और उपाय के लिए चाणक्य का मुंह ताकता था। नीति-विशारद अकबर मन बहलाने के लिए बीरबल की ओर देखता था।

मित्र का कर्त्तव्य इस प्रकार बताया गया है-"उच्च और महान कार्य में इस प्रकार सहायता देना, मन बढ़ाना और साहस दिलाना कि तुम अपनी निज की सामर्थ्य से बाहर का काम कर जाओ।" यह कर्त्तव्य उस से पूरा होगा जो द्रढ़-चित और सत्य-संकल्प का हो। इससे हमें ऎसे ही मित्रों की खोज में रहना चाहिए। जिनमें हमसे अधिक आत्मबल हो। हमें उनका पल्ला उसी तरह पकड़ना चाहिए जिस तरह सुग्रीव ने राम का पल्ला पकड़ा था। मित्र हों तो प्रतिष्ठित और शुद्ध ह्रदय के हो। म्रदुल और पुरूषार्थी हों, शिष्ट और सत्यनिष्ठ हों, जिससे हम अपने को उनके भरोसे पर छोड़ सकें, और यह विश्वास कर सके कि उनसे किसी प्रकार का धोखा न होगा।

जो बात ऊपर मित्रों के सम्बनध में कही गयी है, वही जान-पहचान वालों के सम्बन्ध में भी ठीक है। जान-पहचान के लोग ऎसे हों जिनसे हम कुछ लाभ उठा सकते हो, जो हमारे जीवन को उत्तम और आनन्दमय करनें मे कुछ सहायता दे सकते हो, यद्यपि उतनी नही जितनी गहरे गहरे मित्र दे सकते हैं। मनुष्य का जीवन थोड़ा है, उसमें खोने के लिए समय नहीं। यदि क, ख, और ग हमारे लिए कुछ कर सकते है, न कोई बुद्धिमानी या विनोद की बातचीत कर सकते हैं, न कोई अच्छी बात बतला सकते है, न सहानुभुति द्वारा हमें ढाढ़ास बंधा सकते है, हमारे आनन्द में सम्मिलित हो सकते हैं, न हमें कर्त्तव्य का ध्यान दिला सकते हैं, तो ईश्वर हमें उनसे दूर ही रखें। हमें अपने चारों ओर जड़ मूर्तियां सजाना सजाना नही है। आजकल जान-पहचान बढ़ाना कोई बड़ी बात नही है। कोई भी युवा पुरूष ऎसे अनेक युवा पुरूषों को पा सकता है जो उसके साथ थियेटर देखने जायेंगे, नाच रंग में आयेंगे, सैर-सपाटे में जायेंगे, भोजन का निमन्त्रण स्वीकार करेंगे। यदि ऎसे जान पहचान के लोगों से कुछ हानि न होगी तो लाभ भी न होगा। पर यदि हानि होगी तो बड़ी भारी होगी। सोचो तो तुम्हारा जीवन कितना नष्ट होगा। यदि ये जान-पहचान के लोग उन मनचले युवकों में से निकले जिनकी संख्या दुर्भाग्यवंश आजकल बहुत बढ़ रही है, यदि उन शोहदों मेम से निकले जो अमीरों की बुराइयों और मूर्खताओं की नकल किया करते हैं, गलियों में ठठ्टा मारते हैं और सिगरेट का धुआं उड़आते चलते हैं। ऎसे नवयुवकों से बढ़कर शून्य, नि:सार और शोचनीय जीवन और किसका है? वे अच्छी बातों के सच्चे आनन्द से कोसों दूर है। उनके लिए न तो संसार में सुन्दर और मनोहर उक्ति बाले कवि हुए हैं और न संसार में सुन्दर आचरण वाले महात्मा हुए है। उनके लिए न तो बड़े-बड़े बीर अदभुत कर्म कर गये हैं और न बड़े-बड़े ग्रन्थकार ऎसे विचार छोड़ गये हैं जिनसे मनुष्य जाति के ह्रदय में सात्विकता की उमंगे उठती हैं। उनके लिए फ़ूल-पत्तियों मेम कोई सौन्दर्य नहीं। झरनोम के कल-कल में मधुर संगीत नहीं, अनन्त साहर तरंगों में गम्भीर रहस्यों का आभास नहीं उनके भाग्य में सच्चे प्रयत्न और पुरूषार्थ का आनन्द नहीं, उनके भाग्य से सच्ची प्रीति का सुख और कोमल ह्रदय की शान्ति नहीं। जिनकी आत्मा अपने इन्द्रिय-विषयों में ही लिप्त है; जिनका ह्रदय नीचाशयों और कुत्सित विचारों से कलुषित हैं, ऎसे नाशोन्मुख प्राणियों को दिन-दिन अन्धकार में पतित होते देख कौन ऎसा होगा जो तरस न खायेगा? उसे ऎसे प्राणियों का साथ न करना चाहिए।

मकदूनिया का बादशाह डमेट्रियस कभी-कभी राज्य का सब का सब काम छोड़ अपने ही मेल के दस-पांच साथियों को लेकर विषय वासना में लिप्त रहा करता था। एक बीमारी का बहाना करके इसी प्रकार वह अपने दिन काट रहा था। इसी बीच इसका पिता उससे मिलने के लिए गया और उसने एक हंसमुख जवान को कोठरी से बाहर निकलते देखा। जब पिता कोठरी के भीतर पहुंचा तब डेमेट्रियस ने कहा-ज्वर ने मुझे अभी छोड़ा है।" पिता ने कहा-'हां! ठीक है वह दरवाजे पर मुझे मिला था।'

कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है। यह केवल नीति और सदव्रत्ति का ही नाश नही करता, बल्कि बुद्धि का भी क्षय करता है। किसी युवा-पुरूष की संगति यदि बुरी होगी तो वह उसके पैरों में बंधी चक्की के समान होगी जो उसे दिन-दिन अवनति के गड्डे में गिराती जायेगी और यदि अच्छी होगी तो सहारा देने वाली बाहु के समान होगी जो उसे निरन्तर उन्नति की ओर उठाती जायेगी।

इंग्लैण्ड के एक विद्वान को युवावस्था में राज-दरबारियों में जगह नहीं मिली। इस पर जिन्दगी भर वह अपने भाग्य को सराहता रहा। बहुत से लोग तो इसे अपना बड़ा भारी दुर्भाग्य समझते, पर वह अच्छी तरह जानता था कि वहां वह बुरे लोगों की संगति में पड़ता जो उसकी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक होते। बहुत से लोग ऎसे होते हैं जिनके घड़ी भर के साथ से भी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है; क्योंकि उतने ही बीच में ऎसी-ऎसी बातें कही जाती है जो कानों में न पड़नी चाहिए, चित्त पर ऎसे प्रभाव पड़ते है जिनसे उसकी पवित्रता का नाश होता है। बुराई अटल भाव धारण करके बैठती है। बुरी बातें हमारी धारणा में बहुत दिनों तक टिकती है। इस बात को प्राय: सभी लोग जानते है, कि भद्दे व फ़ूहड़ गीत जितनी जल्दी ध्यान पर चढ़ते हैं. उतनी जल्दी कोई गम्भीर या अच्छी बात नही एक बार एक मित्र ने मुझसे कहा कि उसने लड़कपन में कहीं से एक बुरी कहावत सुन पायी थी, जिसका ध्यान वह लाख चेष्टा करता है कि न आये, पर बार-बार आता है। जिन भावनाओं को हम दूर रखना चाहते हैं, जिन बातों को हम याद नहीं करना चाहते वे बार-बार ह्रदय में उठती हैं और बेधती है। अत: तुम पूरी चौकसी रखो, ऎसे लोगों को कभी साथी न बनाओ जो अश्लील, अपवित्र और फ़ूहड़ बातों से तुम्हें हंसाना चाहे। सावधान रहो ऎसा ना हो कि पहले-पहले तुम इसे एक बहुत सामान्य बात समझो और सोचो कि एक बार ऎसा हुआ, फ़िर ऎसा न होगा। अथवा तुम्हारे चरित्र-बल का ऎसा प्रभाव पड़ेगा कि ऎसी बातें बकने वाले आगे चलकर आप सुधर जायेंगे। नहीं, ऎसा नहीं होगा। जब एक बार मनुष्य अपना पैर कीचड़ में डाल देता है। तब फ़िर यह नहीं देखता कि वह कहां और कैसी जगह पैर रखता है। धीरे-धीरे उन बुरी बातों में अभयस्त होते-होते तुम्हारी घ्रणा कम हो जायेगी। पीछे तुम्हें उनसे चिढ़ न मालूम होगी; क्योंकि तुम यह सोचने लगोगे कि चिढ़्ने की बात ही क्या है! तुम्हारा विवेक कुण्ठित हो जायेगा और तुम्हें भले-बुरे की पहचान न रह जायेगी। अन्त में होते-होते तुम भी बुराई के भक्त बन जाओगे; अत: ह्रदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि बुरी संगत की छूत से बचो। यही पुरानी कहावत है कि-

'काजर की कोठरी में कैसो हू सयानो जाय,
एक लीक काजर की, लागिहै, पै लागिहै।'

(आचार्य शुक्ल का निबंध http://hi.wikipedia.org से और पोस्ट के साथ लगा चित्र http://www.sajha.com से साभार)

शनिवार, 2 अगस्त 2008

अकिला बुआ की उपस्थिति और उनके तीन किस्से

यह कहना गलत होगा कि एक थीं अकिला बुआ। सही तो यह कहना होगा कि एक हैं अकिला बुआ. वैसे उत्तर प्रदेश और बिहार के भोजपुरी भाषी इलाके में बुआ के लिए फ़ुआ शब्द प्रचलित है लेकिन आज जिस अमर,अनश्वर चरित्र के किस्से पेश किए जा रहे हैं वह तो बुआ हैं ,सबकी बुआ,जगत बुआ- अपनी अकिला बुआ. यह संभव है कि वह कभी, कहीं पैदा होकर, अपने हिस्से का जीवन जीकर मर-खप गई होंगी लेकिन उनके किस्से,उनके कारनामे जीवित हैं और हमेशा बने रहेंगे. अकिला बुआ भोजपुरी इलाके के मौखिक सांस्कृतिक इतिहास का एक ऐसा चरित्र हैं जिनके बारे में कोई भूले से भी यह सवाल नहीं करता कि कि उनका गांव-गिरांव कौन-सा था ,उनका जात-धरम कौन-सा था और सबसे बड़ी बात तो यह है कोई यह संदेह व्यक्त नहीं करता कि वे सचमुच थीं भी या कि यह कोरी गप्प है!

अकिला माने अक्किल वाला और अक्किल माने अकल यानि समझ।अकिला बुआ अपने इलाके की सबसे अधिक अक्किल वाली स्त्री मानी जाती हैं. जिस मुकाम पर आकर सबकी अकल घास चरने चली जाती है उसी बिंदु से अकिला बुआ काम शुरु होता है. वह सबकी समझ को धता बताते हुए अपनी अक्लमंदी का ऐसा मुजाहिरा करती हैं कि बड़े-बड़े समझदारों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती और वे अपनी अद्र्श्य दुम दबाकर खिसक लेने में ही भलाई समझते हैं. यह अलग बात है कि अकिला बुआ की समझदारी प्राय: हर बार हास्यास्पद स्थितियां पैदा कर देती है.लोग-बाग उनके इसी गुण के कारण ही तो कोई पेंच फंसने पर उन्हें बुलाते हैं.

हर सांस्कृतिक इलाका अपनी समझदारी,श्रेष्ठता,बुद्धिमानी और अकल का नगाड़ा बजाने में पीछे नहीं रहता साथ ही अक्सर ऐसा भी होता है कि अपने बौड़मपने और बेवकूफ़ियों को उत्सव में बदलकर आनंदित-प्रमुदित होने की कला भी मनुष्यता का एक गुण है. संभवत: इसी उत्सवधर्मिता की उपज हैं अपनी अकिला बुआ. जिस तरह मिथिलांचल में गोनू झा के किस्से मशहूर हैं लगभग वैसे ही भोजपुरी अंचल में अकिला बुआ के किस्से यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरे पड़े हैं. जब कोई बेवकूफ़ी भरी समझदारी वाला कारनामा अंजाम देता है तो उसे अकिला बुआ कहने की रवायत है- वह चाहे स्त्री हो या पुरुष. अकिला बुआ का आख्यान एक ऐसे चरित्र का आख्यान है जो शायद कभी था ही नहीं और जो कभी खत्म नही होगा. तमाम अवरोधों,अड़चनों और आशंकाओं के बावजूद जब तक भोजपुरी भाषा और संस्क्रिति की अविराम धारा प्रवहमान है तब तक अकिला बुआ हैं, रहेंगी और उनसे जुड़े किस्से कहे-सुने जाते रहेंगे. चलिए आप भी पढ़िये- सुनिये उनके तीन किस्से-

पहला किस्सा - कलकत्ते का सफर

अकिला बुआ का मन हुआ कि कलकता घूम आया जाय. गांव - गिरांव के बहुत सारे लोग वहां रहते हैं .वे जब भी होली-दीवाली-, ईद-बकरीद की छुट्टियों में आते हैं तो उनका इसरार रहता है- ' ए बुआ ! एक बार कलकत्ता घूम लो. बहुत बड़का शहर है कककत्ता ' . इस बार बुआ ने सोचा कि चलो देख ही लें कैसा है कलकत्ता. सो वे दो-चार और लोगों के साथ रेलगाड़ी पर सवार होकर चल पड़ीं.दूसरे दिन जब एक बड़े-से स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो लोगों ने कहा आ गया कलकत्ता, चलो उतरो. बाहर लाल-लाल कपड़े पहने कुली चिल्ला रहे थे : हबड़ा-हबड़ा . अकिला बुआ ने अपनी साड़ी घुटनों तक उठाकर कछान मार ली और अपने साथियों को हिदायत देने लगी - ' सब लोग धोती-लुंगी ऊपर उठा लो लगता है यहां तो बहुत हबड़ा है.' साथी घबरा गए- ' अरे गांव में हबड़ा और यहां भी हबड़ा.' बुआ ने कहा -' देखा ! मैं इसी मारे न आती थी , अब भुगतो सब जने.' धन्य हैं हमारी अकिला बुआ. उन्हें किसी ने बताया ही नहीं था हाबड़ा स्टेशन का नाम है, वे तो भोजपुरी भाषा के 'हबड़ा' शब्द से घबरा गई थीं . हबड़ा माने -कीचड़, दलदल.

दूसरा किस्सा - कान का झब्बा

गांव में किसी का गौना हुआ. दुलहिन घर आई. औरतों का जमघट लग गया. किसी ने खुले आम तो किसी ने दबी जुबान में बतकुच्चन की कि दुलहिन ऐसी है तो वैसी है. किसी को वह खूबसूरत लगी तो किसी को भैंगी. किसी ने उसके मुखड़े की तारीफ़ की तो किसी ने तलवों की. दुलहिन बेचारी चचिया सास, ददिया सास ,ममिया सास आदि -इत्यादि के पैर छूते-छूते पस्त हो चली थी. खैर, दुलहिन का बक्सा खोला गया . बाकी सारी चीजें तो सासों, गोतिनों और ननदों को समझ में आ गईं लेकिन एक जोड़े चमकीली- रंगीन चीज किसी की समझ में नहीं आई कि इसका क्या इस्तेमाल है? सब हलकान- परेशान. बहू से पूछें तो नई रिश्तेदारी में जगहंसाई का डर कि देखो कैसे भुच्चड़ हैं ससुराल वाले. अब एक ही उपय था कि अकिला बुआ को बुलाया जाय. वही बतायेंगी कि यह क्या बला है. अकिला बुआ आईं, सामान पर नजर दौड़ाई और हंसने लगीं .बोलीं - 'अरी बेवकूफ़ों ! हम ना रहें तो तुम लोग तो गांव की नाक कटवा दोगी. इतना भी नहीं जानतीं यह तो नई चलन का गहना है- कान का झब्बा. आजकल कलकत्ते में खूब चल रहा है . लाओ , सुई-डोरा दो . हम अपने हाथ से पहनायेंगे दुलहिन को.' दुलहिन बेचारी ! लाज के मारे कुछ न बोल पाई, चुपचाप पहन लिया -कान का झब्बा . अब वह नई बहुरिया क्या कहती कि ए बुआ यह कान का झब्बा नहीं पांवों में पहनने की सैंडल है !

तीसरा किस्सा - हाथी के पांव

सुबह- सुबह गांव में शोर था. कुछ लोग दिशा- फ़रागित से फ़ारिग होकर दतुअन करते हुए खड़े थे. औरतें घूरे पर झाड़न- बहारन फ़ेंक कर कमर पर टोकरी टिकाए खड़ी थीं. बच्चे घुच्ची और ओल्हा -पाती का खेल छोड़कर अकबकाये खड़े थे. सबकी निगाह पगडंडी पर बने पैरों के निशानों पर थी कि आखिर ये निशान किस जानवर के पैरों के हैं. आदमी के तो हो नहीं सकते और भूतों के तो पैर ही नहीं होते ,सो निशान का सवाल ही नहीं उठता . ये गाय, बैल,भैंस, ऊंट, घोड़े, गदहे, भेड़,बकरी, कुत्ते, बिल्ली, सियार,खरगोश के हैं नहीं. बाघ के भी नहीं, तो आखिर किस जानवर के पैरों के निशान हैं इतने बड़े-बड़े. जवाहिर चा की राय मांगी गई. उन्होंने सुलेमान खां से मशविरा किया और घोषित किया कि ये हाथी के पैरों के निशान हैं क्योंकि हाथी के पैरों के निशान ऐसे ही होते हैं हाथी के पैरों जैसे बड़े-बड़े . संदेह फ़िर भी नहीं मिटा. अब एक ही उपाय था, अकिला बुआ जो कह दें वही ठीक. अकिला बुआ आईं, निशान देखे , अभी तक की कयासआराई की बेवकूफ़ी पर मुस्कुराईं. सबको प्यार से गरियाते हुए बोलीं - ' नतिया के बेटों ! पता नही मेरे बाद तुम लोगों का क्या होगा? अरे ! ये तो हिरन के पैरों के निशान हैं, इतना भी नहीं पहचानते.' सबने मान लिया लेकिन जवाहिर चा मिमियाये- ' पर, बुआ ! इतने बड़े? हिरन के पैर तो----- ' बुआ ने तत्काल डपटा- 'चुप जाहिल ! चार जमात पढ़कर तू क्या मुझसे गियानी हो गया . हिरन अपने पैरों में जांता बांधकर कूदा होगा. जांता माने चक्की. देखो तो गांव मे किसी के घर से जांता तो गायब नही है?'