पर्व -त्योहारों के आने पर मैं यथा अवसर बनाए जाने वाले पकवानों का आनंद तो लेता ही हूं , पता नहीं क्यों पर्वों से सम्बद्ध कवितायें याद आने लगती हैं। हो सकता है यह त्योहार मनाने का मेरा अपना तरीका हो या फिर कविता-शायरी में डूबे रहने की आदत के कारण होता हो. खैर, जो भी हो. आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर तरह-तह के पकवान तो हैं जिन्हें आप सब तक पहुचाने की कोई जुगत नहीं है लेकिन कवितायें तो पहुंचाई ही जा सकती हैं.
आज श्रीकृष्ण और कृष्ण (भक्ति) काव्य परंपरा से जुड़े कई कवि याद आते रहे। विद्यापति, सूर, मीरां, रसखान और तमाम मध्यकालीन कवियों के साथ जयदेव को खूब याद किया, 'गीत गोविन्द' पढा.नजीर अकबराबादी को याद किया. रहीम को आज पूरी दोपहर पढता रहा. रहीम या अब्दुर्रहीम खानखानां हालांकि कृष्ण काव्य परंपरा से उस तरह से सम्बद्ध नहीं माने जाते हैं जैसे ऊपर उल्लिखित कवि.वे तो कलम के धनी होने के साथ तलवार के भी धनी थे. अकबरी और जहांगीरी दरबार से जुड़े रहीम का व्यक्तित्व बहुआयामी रहा है. हिन्दी वालों के लिए रहीम नीतिपरक दोहों के रचनाकार के रूप में जाने जाते हैं लेकिन यह बताना (शायद) कोई नई बात नहीं होगी कि उन्होंने कई भाषाओं में लिखा है. आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर श्रीकृष्ण की विनती में रहीम के लिखे दो श्लोक प्रस्तुत हैं-
आनीता नटवन्मया तव पुर: श्रीकृष्ण ! या भूमिका .
व्योमाकाशखखांबराब्धिवसवस्त्वप्रीत्येद्यावधि ..
प्रीतस्त्वं यदि चेन्निरीक्ष्य भवगन् स्वप्रार्थित देहि मे .
नीचेद ब्रूहि कदापि मानय पुनस्त्वेताद्रिशीं भूमिकाम् ..
( हे श्रीकृष्ण ! आपकी प्रीति की प्रत्याशा में मैं आज तक नट की चाल पर आपके सामने लाया जाने से चौरासी लाख रूप धारण करता रहा हूं। हे भगवन ! यदि आप मेरी इस गति से प्रसन्न हुए हैं तो आज मैं जो कुछ भी मांगता हूं उसे दीजिये और यदि नही तो ऐसी आज्ञा दीजिये कि मैं फिर कभी इस तरह के स्वांग को धारण कर / करने हेतु इस पृथ्वी पर न लाया जाऊं )
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रत्नाकरोस्ति सदनं गृहिणी च पद्मा,
किं देयमस्ति भवते जगदीश्वराय .
राधागृहीतमनसे मनसे च तुभ्यं,
दत्तं मया निज मनस्तदिदं गृहाण ..
(रत्नाकर या समुद्र आपका सदन या गृह है और लक्ष्मी जी आपकी गृहिणी हैं। तब हे जगदीश्वर ! आप ही बताइये कि आपको देने योग्य बचा ही क्या? राधा जी ने आपके मन मन का हरण कर लिया है, यही एक वस्तु आप के पास नहीं है जिसे मैं आपको देता हूं ,ग्रहण कीजिये.)
रत्नाकरोस्ति सदनं गृहिणी च पद्मा,
किं देयमस्ति भवते जगदीश्वराय .
राधागृहीतमनसे मनसे च तुभ्यं,
दत्तं मया निज मनस्तदिदं गृहाण ..
(रत्नाकर या समुद्र आपका सदन या गृह है और लक्ष्मी जी आपकी गृहिणी हैं। तब हे जगदीश्वर ! आप ही बताइये कि आपको देने योग्य बचा ही क्या? राधा जी ने आपके मन मन का हरण कर लिया है, यही एक वस्तु आप के पास नहीं है जिसे मैं आपको देता हूं ,ग्रहण कीजिये.)
3 टिप्पणियां:
Antim shlok bahut hi sunder hai.
बहुत सुन्दर, हृदय स्पर्शी
रत्नाकरोस्ति सदनं गृहिणी च पद्मा,
किं देयमस्ति भवते जगदीश्वराय .
राधागृहीतमनसे मनसे च तुभ्यं,
दत्तं मया निज मनस्तदिदं गृहाण ..
रहीम के इस स्वरुप से तो हम परिचित ही नहीं थे ! आभार ! विशेष सचमुच विशेष है
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