शुक्रवार, 20 मार्च 2009

ताना न मारो ..

बहुत दिन हुए कोई गीत कायदे से नहीं सुना
बहुत दिन हुए
नहीं पढ़ी कोई नई-सी कविता
बहुत दिन हुए चाँद को निहारे
तारों को गिने
निरुद्देश्य भटके
पुरानी किताबों की धूल झाड़े
बहुत दिन हुए नहीं किया कुछ मनमाफिक
बहुत दिन हुए खुद से बतियाये
अब तो बस
बीते जाते हैं दिन
पल -छिन
गिन -गिन ...

आज मन है कि एक पसंदीदा गीत को साझा किया जाय. अब ऐसे समय में जब चारो तरफ लगभग भुस भरा हुआ है और जिसे देखिए वही अपने ही भीतर के हाहाकार से हलकान है और दोष बाहर के दबावों , प्रलोभनों को दिए जा रहा है तब अपने मन की कुछ कर लेना , अपने वास्ते एकांत के दो पल तलाश लेना कितना -कितना कठिन हो गया है ! औरों की बात क्या करूँ ? मैं किसी के मन के भीतर तो पैठा नहीं हूँ !

फिर भी.....

.. तो आइए आज सुनते हैं ज़िला खान का गाया यह गीत - ताना न मारो .. उम्मीद है पसंद आएगा..


रविवार, 15 मार्च 2009

भला कहीं होती भी होगी जल की उलटी दौर..

अपने निकट के इतिहास के बारे में हमारी जानकारी प्राय: कम ही है, बहुत बड़े फलक की बात न करते हुए यह मैं अपनी जानकारी और अध्ययन की सीमा में रहते हुए हिन्दी साहित्य के बारे में कह रहा हूँ. क्या यह सत्य नहीं है कि प्राचीन और मध्यकालीन हिन्दी साहित्य के बारे में हम अगर कुछ जानना चाहें तो वह सहज ही उपलब्ध हो जाता है किन्तु १९वीं -२०सवीं सदी के साहित्य और साहित्यकारों के बारे में यदि कोई संदर्भ चाहिए तो वह आसानी से मिलना मुश्किल ही होता है. अब ऐसे में कोई यह काम थोड़ा आसान कर दे तो अच्छा लगता है. कुछ ऐसा ही काम जगदीश्वर चतुर्वेदी और सुधा सिंह ने 'स्त्री-काव्यधारा' जैसी किताब के माध्यम से किया है. उनके द्वारा संपादित यह संकलन बहुत काम का है.

आज प्रस्तुत है उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जन्मी और बीसवी सदी के आरंभिक दशकों में सक्रिय गोपाल देवी की एक कविता - 'भेड़ और भेड़िया' . याद रहे ऐसे समय में जब तमाम तरह के अवरोधों के बावजूद लगभग सभी स्त्रियाँ रचनात्मक धरातल पर आकर छायावादी मुख्य स्वर के संग चल रहे कोरस का अनाम अंग बनती दिखाई देती हैं तब कुछ नाम अपने काम के कारण अलग से देखे व पहचाने जाते हैं. गोपाल देवी उनमें एक प्रमुख और बड़ा नाम है. प्रस्तुत है 'स्त्री-काव्यधारा' से साभार उनकी एक कविता - 'भेड़ और भेड़िया '....

भेड़ और भेड़िया / गोपाल देवी

नदी किनारे भेड़ खड़ी एक सुख से पीती थी पानी.
एक भेड़िये ने लख उसको मन में पाप बुद्धि ठानी..
बिना किसी अपराध भला मैं इसका कैसे करूँ हनन.
उसे मरने को वह जी में लगा सोचने नया यतन..

कर विचार आकर समीप यों बोला कपट भरी बानी.
"अरी भेड़ तू बड़ी दुष्ट है क्यों करती गँदला पानी.."
क्रोध भरी लख आँख बिचारी भेड़ रही टुक वहाँ सहम.
बोली,"क्यों अपराध लगाते हो चित लाते नहीं रहम..
मैं तो पीती हूँ पानी तुम से नीचे की ओर.
भला कहीं होती भी होगी जल की उलटी दौर.."

सुन कर उसके बचन भेड़िया फिर बोला उससे ऐसे -
"पारसाल उस पेड़ तले तूने गाली दी थी कैसे ?"

डर कर भेड़ विनय से बोली मन में उसको जालिम जान.
"मैं तो आठ महीने की भी नहीं हुई हूँ कॄपानिधान !..

"कहाँ तलक तेरे अपराधों को दुष्टा मैं कहा करूँ.
तू करती है बहस वॄथा मैं भूख कहाँ तक सहा करूँ..
तू न सही तेरी माँ होगी" यों कहकर वह झपट पड़ा.
भेड़ बिचारी निरपराध को तुरत खा गया खड़ा -खड़ा.

जो जालिम होता है उससे बस नहीं चलता एक.
करने को वह जुल्म बहाने लेता ढूँढ़ अनेक..

और अगर अब हिन्दी साहित्य के इतिहास में ही उतरने का मन है देख लें कि तो एक तरह से इसी बोधकथा- कविता की एक आधुनिक काव्य प्रस्तुति गोरख पांडेय (१९४५ - १९८९) के यहाँ भी मौजूद है उनकी प्रसिद्ध कविता 'भेड़िया' में पेश है इसी का एक अंश -

पानी पिये
नदी के उस पार या इस पार
आगे-नीचे की ओर
या पीछे और ऊपर
पिये या न पिये
जूठा हो ही जाता है पानी
भेड़ गुनहगार ठहरती है
यकीनन भेड़िया होता है
ख़ून के स्वाद का तर्क.

(तस्वीर में है क्लोनिंग के जरिए बनाई गई भेड़ डॉली - चित्र बीबीसी से साभार)

सोमवार, 9 मार्च 2009

क्योंकि होली है और क्या !

होली पर क्या है ?
होली है और क्या !

कल से आज तक गुझिया , नमकीन , मिठाई , बेसन पापड़ी,मठरी बनाने का सिलसिला चल रहा है ; साथ में चखने के बहाने खाने का भी. एक खटका यह भी लगा हु है कि कहीं गैस सिलिन्डर साहब समय से पहले ही ओके ,टाटा , बाय - बाय न कर जायें. अरे , अभी दही बड़े और पूआ-पूड़ी तो बाकी ही है. क्या किया जाय अब आदमी त्योहार मनाना तो नहीं छोड़ देगा. ( मनाना = खाना ). अगल - बगल गाना - बजाना चल रहा है...होली के दिन गुल खिल जाते हैं ..अपनी छत के गमलों में लगे गुल तो मुरझाने की ओर अग्रसर हैं .फिर भी अपन छुट्टी की मौज कर रहे हैं. अब तो बच्चों का अगला पेपर भी एक सप्ताह के बाद है सो वे भी होलिया गए हैं. कुल ...मिलाकर होली है और क्या !

मार्च महीना बड़ा जालिमहोता है साठ -सत्तर के दशक के हिन्दी फिल्मी गानों में वर्णित बेदर्दी बालमा की तरह . हर महीने जो भी जित्ता बँधा - बँधाया नामा आता है उसका एक अच्छा -खासा हिस्सा इसी महीने 'आय' नहीं अपितु 'जायकर' में तब्दील हो जाता है. पहली अप्रेल अर्थात मूर्ख दिवस के दो दिन बाद से बच्चॊ के स्कूल का नया सत्रारम्भ होने वाला है , माने किताब -कापी, नया बस्ता - पानी की नई बोतल - नया लंच बाक्स - नये स्कूल यू्निफार्म , बिजली -टेलीफोन के बिल , बीमा - लोन इत्यादि की किस्तें ,राशन - पानी -कपड़े - लत्ते -जूते -चप्पल....अगड़म -बगड़म...फिर भी हिम्मत न हार चल चला चल...क्योंकि होली है और क्या !

'एक बरस में एक बार ही जलती होली की ज्वाला ' ऐसा सबसे बड़े बच्चन जी कह गए हैं. यह अलग बात है कि हम सब साल भर लगभग जलते रहने के लिए ही रह गए हैं. अपने आसपास जो भी घटायमान हो रहा है उसे निरन्तर देखायमान करते हुए चटायमान होते रहना और अपने मुखारविन्द पर विराजमान झींकायमान भाव को शोभायमान किए गड्डी को चलायमान किए रहना ही अपनी गति - दुर्गति है. होली के दिन मुदित - क्षुधित - द्रवित होकर यह केंचुल थोड़ी देर के लिए उतर जाती है और एक अदद दिन भर के वास्ते मौजा ही मौजा ,बाकी तो साल भर (अपना सर और) जुत्ता ही जूत्ता..अतएव एक दिन के लिए ही सही..... क्योंकि होली है और क्या !

कल अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस था. अपन ने तो अभी पूरा राष्ट्र भी दे देख्या -वेख्या नहीं अंतर - राष्ट्र की बात तो बहुत दूर की है.स्त्रियन - नारियन - औरतन के हाल -हालात की बात पर तो बड़े -बड़े विद्वान ही सभा - सेमीनारों में बोले हैं ; कभू - कभू लब खोले हैं. अपन तो घर में विराजती अकेली महिला की पाक कला के कौशल और ज्ञान - विज्ञान के प्रेक्टिकल को सिर्फ स्वाद तक सीमित कर प्रशंसा के पकवान पकाते रहे और उसके श्रम में वांछित - यथोचित -किंचित साझा सहयोग करने के बजाय शर्मसार होते रहे. मेज पर झुके हुए एक घुन्ने आदमी की तरह फाग - राग, गीत - संगीत में डूबे उभ - चुभ करते रहे....क्योंकि होली है और क्या !

अगर फुरसत हो और मन करे तो आप इसे पढ़ लेवें .मन न होय तो आगे बढ़ लेवें क्योंकि हर तरफ होली हुड़दंग छाय रही है. भंग का रंग अब कम ही चकाचक हुआ करे है. जियादा पढ़ -लिख लिए सो गावन - बजावन से भी मन डरे है.बस दूर से तमाशा - थोड़ी आशा थोड़ी निराशा .हाट - बाजारों में माल बहुतायत है पर गाँठ में पीसे पूरे ना हैं फिर भी होली तो मनानी है ; अजी मनानी क्या रसम निभानी है.....क्योंकि होली है और क्या !

फिर भी
छोटा - सा टीका चुटकी भर गुलाल
आप रहें राजी-खुशी और खुशहाल
मुबारकबाद !
बधाई !
.....क्योंकि होली है और क्या !

गुरुवार, 5 मार्च 2009

शब्द चित्र : चित्र शब्द / १ , २ , ३

बहुत दिन हुए ब्लाग पर आना नहीं हो पा रहा था। ऐसा नहीं है कि व्यस्तता इतनी अधिक थी कि समय न मिलने की बात करूँ , बस यूँ समझ लें कि मन नहीं हो रहा था। अभी कुछ दिन पहले भाई एस. बी. सिंह जी ने फोन कर इस गैरहाजिरी का सबब पूछा तो भला लगा कि अनदेखे मित्रों की एक अनदेखी दुनिया से हम रू-ब-रू हैं , यह देखना सुखद है । भाई रावेन्द्र रवि का कल मेल था कि कर्मनाशा शान्त क्यों है । पिछले इतवार को हल्दवानी में अशोक पांडे के साथ ब्लागर मीट भी हो गई। आज अनुनाद पर हिन्दी की युवा कविता पर कुछ लिखा है। सो अब नियमितता का क्रम बन रहा है ।इसी कड़ी में आज लिखी तीन छोटी कवितायें प्रस्तुत हैं साथ अपनी छत से / छत पर लिए गए तीन चित्र भी.



१-
अभी तक
यहाँ धुन्ध थी
कुहरे की एक चादर
महीन धागों से बुनी
साथ ही
कोई स्वर कोई धुन
जिसे हम करते रहे अनसुनी .


२-
सूरज ने
मुँहदिखाई की नेग में
पेड़ पौधों को दिया रूप दिया रंग
फूल शूल भी
साथ - साथ
यही तो है जीने का ढंग।



३-
एक कली अधखिली
एक फूल खिला
एक इतराए
दूजा माटी में मिल जाए
दोनो मुदित
दोनो मगन
कुछ सीखा क्या ऐ मेरे मन ?