शनिवार, 31 जनवरी 2009

बच्चे ले जायेंगे वसंत


आज वसंत पंचमी
आज सब गड्ड - मड्ड
आज छत पर
गमले में फूल ही दिखा वसंत
छुट्टी थी - यानि तसव्वुरे जानां के वास्ते फुरसत...
स्वाद में दिखा वसंत
संगीत में
कविता - शायरी में
किताबों- फ़ाइलों में
बैंक -डाकघर की पासबुकों में वसन्त....

क्षमा करें निराश नहीं हूँ
हर किसी को चाहिये होता है अपना वसंत
आज लगा लगा
वह होता है खुद के भीतर ही मौजूद....
आज तनिक मिली फुरसत तो दिख गया वह बावरा
नाहक तलाशता रहा
वॄक्षों - तरुओं -लताओं में
इतने -इतने बरस...

ऊपर जो कुछ भी लिखा है वह क्या है ? शायद कविता ! शायद वसंत !!
नीचे दी गई यह कविता कई बरस पहले कहीं पढ़ी थी। अच्छी लगी थी सो उतार कर कविताओं की फ़ाइल में रख लिया था. आज कागजों के बीच वसंत की तलाश करते - करते यह मिल गई. अत: कवि के प्रति आभार के साथ प्रस्तुत है -

बच्चे ले जायेंगे वसंत / गुंजन शुक्ल

बच्चे निकल पड़े हैं
टोलियों में
वे लायेंगे टेसू

बच्चे खुश हैं
वे लूट लेंगे जंगल
तोड़ेंगे ऊँची डालें
अनगिनत फूलों लदी

जंगल चाहता है
बच्चे ले जायें सारा वसंत

डाल दें बड़ों पर !

गुरुवार, 29 जनवरी 2009

वे हमेशा सिर पर सवार रहती हैं

टोपियां खुश हैं
कि वे सिर पर सवार हैं
टोपियां खुश हैं
कि सबसे ऊंची है उनकी जगह
टोपियां खुश हैं
कि उनके नीचे दबा हुआ है दिमाग
टोपियां खुश हैं
कि उनकी छत्रछाया में पनप रहा है ज्ञान -विज्ञान

टोपियां खुश हैं
कि उनकी छाया में सूख रही हैं तमाम जरूरी चीजें
टोपियां खुश हैं
कि उनके ऊपर कुछ भी नहीं है
टोपियां खुश हैं
कि उनके नीचे सबकुछ है विद्यमान .

टोपियां समझदार हैं
वे आपस में संवाद नहीं करती हैं
टोपियां समझदार हैं
वे आपस में करती हैं सिर्फ़ वाद और विवाद
टोपियां समझदार हैं
वे जब चाहें बदल लेती हैं आपस में सिर
टोपियां समझदार हैं
वे हमेशा सिर पर सवार रहती हैं.
टोपियां खुश हैं कि वे टोपियां हैं
टोपियां खुश हैं
कि चाहे जिस ओर भी रहें
वे बड़ी समझदारी से
तलाश लेती हैं अपने लिए एक अदद सिर।

शनिवार, 17 जनवरी 2009

आप की याद आती रही रात भर


फूल खिलते रहेंगे दुनिया में ,
रोज़ निकलेगी बात फूलों की .

पिछले दिनों कौसानी में संपन्न 'पंत शैलेश स्मॄति' कार्यक्रम के हिन्दी कविता पाठ के कार्यक्रम में कविता पढ़ने से पहले कही गई अपनी बात में लीलाधर जगूड़ी जी ने कहा था कि जिस तरह पुराने जोगी नए जोगी को बहला कर अपने मठ में ले जाते हैं , वैसे ही ऐसा ही कुछ कवियों के साथ भी घटित होता है. आज इस बात का उल्लेख मात्र इसलिए कि आज मैं फ़ैज़ की एक ग़जल सुनवाने जा रहा हूँ और आलम यह है कि मख़दूम मोहिउद्दीन अपनी ओर खींचे लिए चले जा रहे हैं .याद तो होगा ही सागर सरहदी की फिल्म 'बाज़ार' ( १९८२ ) का वह अद्भुत गीत -

फिर छिड़ी रात बात फूलों की.लिंक
रात है या बारात फूलों की.

लेकिन आज वह ग़जल सुनते हैं जो मख़दूम मोहिउद्दीन की याद में फ़ैज़ ने लिखी है . मख़दूम की संदर्भित ग़ज़ल का क्या ही शानदार इस्तेमाल मुजफ़्फ़र अली ने अपनी फिल्म 'गमन' (१९७९) में किया है -

आपकी याद आती रही रात भर.
चश्मे -नम मुस्कुराती रही रात भर।

मुझे तो लगता है कि ये सब पुराने जोगी हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया के मुझ जैसे अन्यान्य नये चेलों को बहलाकर कविता -शायरी -संगीत - मौसीकी के एक ऐसे मठ में लिए चले जा रहे हैं जहाँ -

नजरें मिलती हैं जाम मिलते हैं ,
मिल रही है हयात फूलों की .

क्षमा करें दोस्त, अगर कुछ अवान्तर छिड़ गया तो । मख़दूम मोहिउद्दीन की याद में फ़ैज़ की लिखी ग़ज़ल सुनवाने की बात थी . सो अब वही सुनते हैं स्वर है आबिदा परवीन का :

आप की याद आती रही रात भर ,
चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर।

कोई ख़ुशबू बदलती रही पैरहन ,
कोई तस्वीर गाती रही रात भर ।

जो न आया उसे कोई जंजीरे - दर,
हर सदा पर बुलाती रही रात भर ।

एक उम्मीद से दिल बहलता रहा,
इक तमन्ना सताती रही रात भर ।



बुधवार, 14 जनवरी 2009

'खिंचड़ी' पर खिचड़ी जैसा कुछ पँचमेल


आज खिचड़ी .. अरे नहीं 'खिंचड़ी' है. जी हाँ , भोजपुरी उच्चारण में खिचड़ी थोड़ी खिंच जाती है और खिंचड़ी हो जाती है. भले ही लोग इसे मकर संक्रांति , उत्तरायणी, पोंगल आदि नामों से जानते हों लेकिन हम तो बचपन से ही इसे खिंचडी ही बोलते - कहते आ रहे हैं. तमाम तरह की पढ़ाई - लिखाई करके डिग्रियाँ हासिल कर लेने व शहराती बोली - बानी, खानपान के बावजूद आज के त्योहार के लिए कोई दूसरा शब्द जिह्वा पर उतराता ही नहीं है. अगर कभी सायास किसी अन्य नाम को ले भी लें तो लगता है कि कहीं कुछ अटपटा - सा हुआ है. भाई एस. बी. सिह से शब्द उधार लेते हुए कहूँ तो दो दुनियाओं में जीने वाले हम लोग एक लुप्त होती हुई दुनिया के साथ जी रहे हैं. बीते हुए की ओर ताकना असललियत में एक विलोपित होते हुए संसार का सहयात्री बनने जैसा कुछ है.

आज खिंचड़ी के अवसर पर यह दुनिया उस दुनिया के शब्दों को तलाश रही है जो अपने वर्तमान की भाषा की देह से पुराने वस्त्रों की तरह उतर रहे हैं.आज ऐसे ही कुछ शब्दों से बतियाने का मन हो रहा है जो विलोपन की ओर अग्रसर हैं. क्षमा चाहूँगा कि यह बात मैं नितांत निजी स्तर पर एक सार्वजनिक माध्यम से कह रहा हूँ. यह मेरा अपना खुद का आकलन है - किसी समाजभाषाविद का नहीं. खैर...अब खिंचड़ी पर्व से जुड़े कुछ शब्दों की सूची बनाने का एक प्रयास - ढूँढ़ी, ढुंढा, तिलकुट, चाउर, फरुही, लावा, बतासा, आदी, बहँगी, नहान, सजाव दही, कहँतरी, अहरा, बोरसी, गोइंठा, कबिली, रहिला, लुग्गा, फींचल, कचारल, भरकल, झुराइल......

ऊपर दिए गये शब्दों की सूची लगातार बढ़ती चली जाएगी जो अंतत: एक ऐसे लोक की सैर पर ले जाएगी जहाँ पहुँचने का मन तो करता है क्योंकि वहीं अपनी जड़ें हैं किन्तु मन ही मन यह अनकहा भी कभी भला - सा और कभी प्रश्नवाचक -सा लगता है कि उस लोक से विलग - विरत -विमुख होना ही विकास है शायद ! अभी कुछ दिनों से अखबारों में खासकर अंग्रेजी के अखबारों में इस सीजन को 'फेस्टिव / फेस्टिवल सीजन' के रूप में पढ़- देख रहा हूं. अपनी जितनी भी - जैसी भी अक्ल है उसके हिसाब से तो त्योहरी सीजन नवरात्रि - दशहरा - दीपावली का होता था ; भला यह कैसा ? दिमाग पर जोर डालता हूँ तो पता चलता है कि ओह ! बड़ा दिन - बीतते साल का आखिरी सप्ताह - नववर्ष की पूर्व संध्या, पुराने व नए वर्ष की मध्यरात्रि , नए साल का पहला दिन, लोहड़ी - पोंगल - सकटचौथ - उत्तरायणी - मकर संक्रांति...और अपनी खिंचड़ी...ये सब त्योहार ही तो हैं - पर्व, उत्सव, फेस्टिवल...अब इन्हें कौन कैसे मनाता है यह सबका अलना - अपना तरीका है.

आज सुबह से खूब खाना- खिलाना हुआ.सबसे पहले बाथरूम के गीज़र -गंगा के गुनगुने जल में नहान, फिर चाउर ( चावल) छुआ गया जो कि कल दाल , कुछ आलू और कुछ पैसे मिलाकर मंदिर में पंडीजी को दान करने के लिए रख दिया गया है. नहान के बाद घर में बना तिल-खोये का एक लड्डू, छत पर धूप में अखबार बाँचते हुए फूलगोभी - आलू -कबिली ( मटर) की लटपटार तरकारी के साथ दू गो पूड़ी, दुपहरिया में दही - चूड़ा - गुड़ और शाम ढ़ले वह खास खिंचड़ी किसका सालभर से इंतजार रहता है. यह वह खिचड़ी नहीं होती है जो कि हमारे आम भारतीय व्यंजनों में सबसे आसान व तुच्छ मानी जाती है. जिस तरह जिउतिया (जीवपुत्रिका व्रत) को बनने वाली दाल रोज बनने वाली दालों से अलग और विशिष्ट होती है वैसे ही यह आज की खिंचड़ी. इसकी रेसिपी किसी और दिन .आज तो अपने घर में विराजती दुनिया की सबसे अच्छी कुक शैल के हाथ व हुनर बनी खिंचड़ी की तस्वीर ही परोस रहा हूँ जो कि मेरे उदर में उतर कर आलस्य उत्पन्न कर रही है साथ ही अपने सहकर्मी , दोस्त और हिन्दी के चर्चित युवा कवि शैलेय के नये संग्रह 'या' से 'खिचड़ी' शीर्षक यह कविता प्रस्तुत कर निद्रा देवी की शरण में जाना चाहता हूँ -

खिचड़ी / शैलेय

धीरे -धीरे पक रही है खिचड़ी

खिचड़ी
सस्ती भी पड़ती है - जल्दी भी पकती है
सबसे बड़ी बात
छोटी आँत की खराबी में बड़े काम आती है

न हों बीमार तो भी इसका स्वाद
डूबती तन्हाई या योद्धाओं बीच
बेलौस - बेदाग़ बरखुरदार है

ओझा भी गाते हैं
शनि हो या भूत - प्रेत
औघड़ खिचड़ी में शर्तिया उपाय है

खिचड़ी का भला हो
जो बुझते हुए चूल्हों की
जो दबे-घुटी आँच में भी
पक रही है
मंद -मंद

एक किले के दिन
पूरे हो रहे हैं

सोमवार, 12 जनवरी 2009

ग़ालिब की गली से गुजरते हुए

अभी कुछ दिनों से मैंने 'कर्मनाशा' और 'कबाड़खाना' पर मिर्ज़ा ग़ालिब पर एक अघोषित सिलसिला -सा शुरु किया हुआ है. इसमें तमाम मित्रों की दॄष्य - अदॄश्य प्रेरणा व प्रोत्साहन की बहुत बड़ी भूमिका है. इधर बीच फायदा यह हुआ है कि इस कारण ग़ालिब को दोबारा पढ़ना -सा हो गया है -सुनना भी खूब - खूब ही हुआ है. ग़ालिब की गली से गुजरते हुए अपने एक पसंदीदा कवि की तीन कवितायें (ग़ालिब १ , ग़ालिब -२ और ग़ालिब -३) बार -बार याद आती रही हैं. मुझे नहीं मालूम कि ग़ालिब को समझने में ये कवितायें कितना कुछ मदद करती है फिर भी खुले मन और खुले मंच से यह स्वीकारने में कोई संकोच नहीं है कि यह वही अच्छा इंसान और अच्छा कवि है जिसने न केवल ग़ालिब वरन अन्यान्य नए - पुराने कवियों की की कविताओं के रेशे- रोयें-रूह से राब्ता कायम करने की समझ को राह दी है और यह काम मुसलसल अब भी जारी है. ' थोड़ा कहना - ज्यादा समझना' की सीख का पालन करते हुए इतना ही कहना है कि अशोक पांडे द्वारा रचित ( 'देखता हूँ सपने' संग्रह से साभार) इस कविता को ग़ालिब पर उल्लिखित सिलसिले की एक अगली कड़ी के रूप में ही पढ़ा - देखा जाय -

गा़लिब - २ / अशोक पांडे

तपता रहा मैं
- बेचैन और उदास
दिन भर ढूँढता रहा कोई मौका
कि दिल खोल बातें करता
उस लड़की से
मैं
जिस लड़की को
प्यार करता हूँ

रात -
अपने साथ
लेकर आई सपने
इस शहर में
कैसी है यह मजबूरी
कि
प्यार जैसी छोटी चीज भी यहाँ
इतनी बेबस
इतनी लाचार

रात
जब अपने साथ लेकर आई थी सपने
सिरहाने
जलता छूट गए टेबल लैम्प के नीचे
फड़फड़ाते थे
एक किताब के पन्ने
लगातार
रात
भर -

गुरुवार, 8 जनवरी 2009

लोक में ग़ालिब और ग़ालिब के लोक में फिर -फिर

ग़ालिब से दोस्ती का सिलसिला किशोरावस्था को पार करते हुए संभवत: इसलिए भी चल निकला था कि उस वक्त तक उम्र व उपलब्धता के हिसाब से जितना भी पढ़ -सुन -देख रखा था उसके आलोक में उनके यहाँ कुछ अपनी-सी भाषा और अपनी-सी कहन जैसी कोई चीज दिखाई देती थी. उन दिनों स्कूलों में 'कवि दरबार' नामक एक प्रतियोगिता होती थी जिसमें विद्यार्थी कास्ट्यूम धारण कर सस्वर कवितायें प्रस्तुत करते थे . हमारे स्कूल में भी यह सब होता था और इस प्रतियोगिता में रा.कॄ.गु.आ.वि.इं.का. दिलदारनगर की पूरे ग़ाजीपुर जिले और बनारस कमिश्नरी की स्कूली प्रतियोगिताओं में धाक थी. कवियों में अक्सर विद्यापति, मीरांबाई ,सूरदास आदि बनाए जाते थे .एक बार जब मैंने डरते-डरते ग़ालिब को इस प्रतियोगिता में शामिल करने की बात की तो सांस्कॄतिक कार्यक्रमों के प्रभारी अध्यापक ने कुछ यूँ घूरा मानो कोई अक्षम्य अपराध हो गया हो जबकि मैंने देख रखा था कि अपने ही कस्बे के दूसरे इंटर कालेज में ग़ालिब जैसे अन्य कवि भी 'कवि दरबार' का हिस्सा बनते थे. तब लोक में ग़ालिब की व्याप्ति और उपस्थिति चमत्कॄत करती थी. अपने आसपास आज भी देखता हूँ कि कविता-शायरी से दूर-दूर तक का रिश्ता न रखने वाले लोगों के लिए भी ग़ालिब कोई अनजाना नाम नहीं है. यह तो बहुत बाद में पता चला कि मेरे जैसे तमाम ऐसे लोगों के लिए जिन्होंने देवनागरी में उर्दू शायरी को पढ़ा है उनके लिए ग़ालिब के शुरुआती दौर की शायरी कुछ-कुछ केशवदास की -सी लगती है लेकिन जैसे-जैसे अर्थ व मायने के दरीचे खुलते जाते हैं वह निरंतर सहल -सरल-संवेदनस्पर्शी होती चली जाती है.

आज ग़ालिब की एक बहुश्रुत व बहुपठित ग़ज़ल प्रस्तुत है. इसके बारे में कुछ न कहा जाना ही बहुत कुछ कहा जाना होगा. तो आइए सुनते हैं अद्भुत आवाज की मलिका आबिदा परवीन के स्वर में - ये न थी हमारी किस्मत ......



ये न थी हमारी किस्मत कि विसाले-यार होता।
अगर और जीते रहते ये ही इंतज़ार होता।

तेरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूठ जाना,
कि खुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता।


कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीरे-नीम कश को,
ये खलिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता।


रगे संग से टपकता वो लहू कि फ़िर न थमता,
जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार होता।


कहूँ किससे मैं कि क्या है शबे-ग़म बुरी बला है,
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता।


हुए मर के हम जो रुसवा हुए क्यों न गर्के- दरिया,
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मजार होता।


उसे कौन देख सकता कि यगान: है वो यकता,
जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो-चार होता।


ये मसाइले- तस्सवुफ़ ये तेरा बयान ग़ालिब,
तुझे हम वली समझते जो न वादाख़ार होता।


(अगर आपका मन करे तो ग़ालिब पर कुछ और जानने-सुनने हेतु यहाँ और यहाँ भी जाया जा सकता है)

शुक्रवार, 2 जनवरी 2009

फ़साना-ए-शबे-ग़म उन को एक कहानी थी




परिंदों के परों में क्या है- परवाज़ और क्या !
सन्नाटा अब कैसे टूटेगा -आवाज और क्या !

नए बरस की पहली पोस्ट के रूप में पेश है अपनी पसंदीदा अलबम 'सुनहरे वरक़' से यह ग़ज़ल-

ग़ज़ब किया, तेरे वादे पे ऐतबार किया.
तमाम रात क़यामत का इन्तज़ार किया।

हँसा -हँसा के शबे-वस्ल अश्क-बार किया,
तसल्लियाँ मुझे दे-दे के बेकरार किया।

हम ऐसे मह्वे-नजारा न थे जो होश आता,
मगर तुम्हारे तग़ाफ़ुल ने होशियार किया।

फ़साना-ए-शबे-ग़म उन को एक कहानी थी,
कुछ ऐतबार किया कुछ ना-ऐतबार किया।




शब्द : दाग़ देहलवी
संगीत : खय्याम
स्वर : कविता कॄष्णमूर्ति
( चित्र : लावण्या शाह के ब्लाग से ' लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्`' साभार)