दुनिया के देखने के लिए आँख चाहिए,
जन्नत की सैर से है सिवा इस मकाँ की सैर।
जन्नत की सैर से है सिवा इस मकाँ की सैर।
अभी कुछ ही दिन पहले मैंने 'कबाड़खाना' पर 'सुनहरे वरक़' का एक वरक़ पेश किया था. आज इसी अलबम से प्रस्तुत है एक दूसरी रचना.यह कलाम दाग़ देहलवी का है. नवाब मिर्ज़ा खाँ 'दाग़' देहलवी ( २५ मई १८८३१ - १७ फरवरी १९०५ ) के कई मिसरे लोकोक्तियों का रूप ले चुके हैं. उर्दू की परवर्ती दरबारी काव्य परम्परा का यह नायाब शायर ग़ज़ल गायकों का सबसे पसंदीदा रहा है. यही नहीं, माना जाता जाता है कि उनके शागिर्दों की संख्या दो हजार से अधिक थी. यह भी पढ़ने को मिलता है कि हैदराबाद, जहाँ उनके अंतिम दिन बीते, में उन्होंने इस्लाह (काव्य संशोधन) के लिए एक दफ़्तर ही खोल दिया था. एक शायर के रूप में दाग़ का सबसे बड़ा कारनामा यह है कि उन्होंने लखनवी और देहलवी शैली के सम्मिश्रण का एक ऐसा काव्य रोप प्रस्तुत किया जो न तो मात्र शब्द चमत्कार है और न ही कल्पना की ऊँची-वायवी उड़ान बल्कि वह समग्रतः अनुभूतिपरक व इहलौकिक है.
आज प्रस्तुत है - हमारे समय के संगीत के वैविध्य का एक उदाहरण बन चुके प्रख्यात गायक हरिहरन और साथियों के स्वर में एक ग़ज़ल. संगीत है सुमधुर धुनों के धनी खैयाम साहब का , जैसा कि पहले ही कहा चुका है-अलबम का नाम हैः 'सुनहरे वरक़' .
दिल गया तुम ने लिया हम क्या करें
जानेवाली चीज़ का ग़म क्या करें
एक सागर पे है अपनी जिन्दगी
रफ्ता- रफ्ता इस से भी कम क्या करें
रफ्ता- रफ्ता इस से भी कम क्या करें
7 टिप्पणियां:
जवाहिर चा हमारी जिन्दगी में आप खुद ही एक सुनहरा वरक़ हो !
शनिवारीय निशा में क्या ख़ूब चीज़ लगाई है दादा.
badhiya..bahut badhiyaa..shukriyaa
सही है भाई --
एक सागर पे है अपनी जिन्दगी
रफ्ता- रफ्ता इस से भी कम क्या करें
बहुत खूब भाई ....
कुछ वक़्त पहले यही ग़ज़ल कोटा के डॉ. रोशन भारती की दिलकश आवाज़ में सुख़नसाज़ पर सुनवाई थी भाई! आज ये नायाब मोती! वल्लाह!
बाइ द वे सुख़नसाज़ वाली पोस्ट का पता ये रहा: http://sukhansaz.blogspot.com/2008/06/blog-post_2640.html
वाह सिद्धेश्वर जी !बहुत खूबसूरत ग़ज़ल बिल्कुल नए अंदाज़ में !क्या कहने है आपकी पसंद के ! कोटिशः धन्यवाद !
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