रविवार, 30 नवंबर 2014

नीली नदी एक बहती है : अपर्णा अनेकवर्णा की कवितायें

सबसे पहले तो 'कर्मनाशा' के पाठकों और प्रेमियों से इस बात के लिए क्षमा कि अध्ययन और अभिव्यक्ति की साझेदारी के काम  में इस बीच लंबा व्यवधान व विराम हो गया है। यह आगे जारी न रहे ऐसी पूरी कोशिश रहेगी। इस ठिकाने पर  साझेदारी के क्रम को गति देते हुए आज प्रस्तुत हैं अपर्णा अनेकवर्णा की तीन कवितायें। कुछ ब्लॉग्स तथा फेसबुक पर  उनकी सृजनात्मक उपस्थिति से रू-ब-रू होते  मेरी इच्छा थी कि गहन संवेदना की  सहज अभिव्यक्ति करने वाले इस रचनाकार से  कविता प्रेमियों को मिलवाया जाय। इस काम में देर हुई है उसके लिए पुन: क्षमा चाहते हुए  प्रस्तुत हैं अपर्णा अनेकवर्णा की तीन ये कवितायें...... और हाँ , उनकी एक कविता  पर आधारित सुंदर पोस्ट भाई पंकज  दीक्षित ने  तैयार किया है। तो  आइए , पढ़ते हैं ये कवितायें.....


अपर्णा अनेकवर्णा की तीन कवितायें

* प्रेत-ग्राम 

वो डूबता दिन.. कैसा लाल होता था..
ठीक मेरी बांयी ओर..
दूर उस गाँव के पीठ पीछे जा छुपता था
सूरज.. तनिक सा झाँक रहता..
किसी शर्मीले बच्चे की तरह

दिन भर अपने खेतों पर बिता..
'समय माई' को बताशा-कपूर चढ़ा..
जब लौटते थे हम शहर की ओर
यही दृश्य होता हर बार..
ठीक मेरी बांयी ओर..

मुझे क्यों लगता..
जैसे कोई प्रेत-ग्राम हो
मायावी सा.. जन-शून्य..
घर ही घर दीखते.. आस पास..
कृषि-हीन.. बंजर ज़मीन..

शायद भोर से ही झींगुर
ही बोला करते वहां...
सिहरा देता वो उजड़ा सौंदर्य..
डरती.. और मंत्रमुग्ध ताका भी करती..
लपकती थीं कई कथाएं.. मुंह बाये..

कुछ भी कल्पित कहाँ था..
वो सच ही तो था.. हर गाँव का
कुकुरमुत्ते सा उग आया था..
कौन बचा था जवान.. किसान..
सब मजूरा बन बिदेस सिधारे

बची थीं चंद बूढी हड्डियां..
उनको संभालती जवान बहुएं..
जवान बहुओं की निगरानी में..
वही.. चंद बूढी हड्डियां...
और घर वापसी के स्मृति चिन्ह..
धूल-धुसरित कुछ बच्चे..

महानगर.. सउदिया...
लील गए सारे किसान.. जवान..
रह गए पीछे.. बस ये कुछ प्रेत-ग्राम..

** डर

आज रात में भी डर नहीं लगता..
आज जंगल झींगुर का शोर..
सियार की पुकार नहीं..
आज जंगल माँ की गोद है..
माँ कहाँ गयी होगी..
कांपता है मन और
निचला होंठ मन की तरह ही
कांपने लगता है..
बाकी के दो चेहरे धुंधलाने लगते हैं..

बस वो शोर गूंजता रहता है
बकरियां जिबह हो रही हैं शायद..
उन्हें भूख लगी हो शायद..
शायद वो इसलिए नाराज़ हैं
बकरियां रोती भी हैं क्या?
बड़ी सी लाल पीली रौशनी..
रंग रही है रात

भुनी महक से पहले कभी कै नहीं हुयी..
आज सालों बाद मुनीर ने निकर गीली की..
क्यों.. कौन... कुछ नहीं समझ आ रहा..

सब बहुत नज़दीक है..
बहुत..
मेरे 'कम्फर्ट-जोन' में दखल करता..
आँखें खुल जाती हैं..
अभी पढ़कर रखा अख़बार उठाकर
रद्दी के ढेर में पटक आती हूँ..
शब्द वहां से भी मुझे ललकार रहे हैं
जिनके अर्थ से कतरा रही हूँ..
मुझे दिन भी तो शुरू करना है..

*** नदी चुपचाप बहती है 

नीली नदी एक बहती है
चुपचाप..
सरस्वती है वो.. दिखती नहीं..
बस दुखती रहती है..

सब यूँ याद करते हैं जैसे बीत गयी हो...
नहीं खबर.. न परवाह किसी को भी कि..
धकियाई गयी है सिमट जाने को
अब हर ओर से खुद को बटोर..
अकेली ही बहती रहती है..

नित नए.. रंग बदलते जहां में..
अपना पुरातन मन लिए एक गठरी में..
बदहवास भागी थी..
कहीं जगह मिले...

हर उस हाथ को चूम लिया
जिसने अपना हाथ भिगोया..
फिर ठगी देखती रही..
राही उठ चल दिया था..

पानी पी कर उठे मुसाफिर..
कब रुके हैं नदियों के पास?
उन्हें सफर की चिंता और मंज़िलों की तलाश है
नदियां बस प्यास बुझाती हैं
यात्रा की क्लांति सोख कर
पुनर्नवा कर देती हैं...

और जाने वाले को..
स्नेह से ताकती रहती हैं
जानती हैं.. वो लौटेंगे..
फिर से चले जाने के लिए..

पर सरस्वती सूख गयी..
पृथु-पुत्रों का रूखपन सहन नहीं कर सकी
माँ की कोख में लौट गयी..
अब विगत से बहुत दूर..
चुप चाप बहती रहती है...

दिखती नहीं.. सिर्फ दुखती रहती है..
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अपर्णा अनेकवर्णा मूल रूप से गोरखपुर की हैं। उन्होंने अंग्रेजी साहित्य से एम०ए० किया है और लगभग सात वर्षों तक 'पर्पल आर्क फिल्म्स' में प्रोडक्शन असिस्टेंट तथा 'डेल्ही मिडडे'  में एक पत्रकार के रूप में कार्यरत रहीं। विवाहोपरांत गृहणी का जीवन, अपनी बेटी रेवा और पति निलेश भगत के साथ नयी दिल्ली में व्यतीत कर रही हैं। साहित्य पढने में रूचि शुरू से रही है। लगभग ढेढ़ वर्ष पूर्व लेखन प्रारंभ किया। हिन्दी व अंग्रेजी में समान अधिकार के साथ  कवितायें लिखने वाली अपर्णा एक कुशल अनुवादक भी हैं। इससे पूर्व इनकी कवितायेँ 'गुलमोहर' काव्य संकलन, 'कथादेश' (मई, २०१४) तथा 'गाथांतर' (अप्रैल-जून, २०१४) में प्रकाशित हो चुकी हैं. उनका रचनाकर्म 'गाथांतर', 'स्त्रीकाल', 'पहली बार' जैसे महत्वपूर्ण ब्लॉग्स पर  साझा हुआ है। उनके  दो संकलन जल्द ही  प्रकाशित होने जा रहे हैं।