मंगलवार, 14 अक्तूबर 2014

बोलती हुई बात


किसी प्रिय कवि को पढ़ना और बार - बार पढ़ना  सिर्फ पढ़ना नहीं होता है। यह किसी बात को सुनना भर नहीं होता है। यह डूबना होता है और डूबने से उबरना भी। प्रिय कवि शमशेर बहादुर सिंह को पढ़ते हुए कुछ लिखना हो जाय तो बस यह हो जाना होता है। आज  अभी कुछ देर पहले पढ़ते- लिखते , गुनते - बुनते लिखी गई अपनी यह  एक कविता साझा है। आइए इसे देखते - पढ़ते हैं.....

बोलती हुई बात
*
प्यास के पहाड़ों पर
चढ़ता रहा
हाँफता
गलती रही बर्फ़
बनकर नदी
नींद थी
नहीं थे स्वप्न
मैं न था
तुम थे साथ
यह कौन - सी यात्रा थी
नयन नत
उर्ध्व शीश
देह स्लथ
और सतत
बस एक पथ नवल।
* *
रोशनाई में घुलते आईने
आईनों में डूबती रात
एक तिनके तले दबा दिन
दूब की नोक से सिहरता व्योम
चाँदनी में सीझता चाँद
कोई उतराती स्मृति
और विस्मृति में डूबता सर्वस्व
किस्से - कहानियों जितना अपना होना
रेत के एक कण - सा यह भुवन मामूल
कवि तुम
तुम कवि
और बाकी बस बोलती हुई बात।
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गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

मैं गया बस देखने एक दीवार

अगर आप किसी के यहाँ जायें और उसके  द्वार पर दस्तक देने , पुकार लगाने के बदले  घर की दीवार का दर्शन कर खुश हों तो  सोचिए कैसा होगा वह घर और कैसे होंगे उसके रहवासी। यह एक दोस्त के घर की  पार्श्व दीवार है , काली  पुती , जिस पर आसपास के बच्चे  अधिकार पूर्वक उकेर जाते हैं अपनी - अपनी  उजली इबारतों की एक सरणि। डा० संतोष मिश्र हमारे साथी हैं ; सहकर्मी भी और सबसे बढ़कर एक सहज, सरल और संवेदनशील इंसान। उनके घर की दीवार  बच्चों की चित्रकारी की जगह है; उनका कैनवस है ' उनके सपनों की उड़ान का मुक्ताकाश है। अपन इस दीवार से मिल आए। आँखें जुड़ा गईं और वापसी में कुछ शब्द उभर आए जिन्हें आप चाहें तो कविता भी कह सकते हैं....

दीवार

यह जो है एक दीवार 
कालेपन से रंगी
इसी पर उभरते हैं उजले अक्षर
इसी पर पर उतराती है उम्मीद
इसी पर  सहेजे जाते हैं स्वप्न।

यह जो है एक दीवार 
एक साझा कैनवस
इसी से गिरती हैं दीवारें
इसी से उमगती हैं उंगलियाँ
इसी से आकार पाता है अनुराग।

यह जो है एक दीवार
सहज सरल सीधी 
इसी के साए में धूप होती है धूप
इसी के साए में  चाँदनी होती है चाँदनी
और बचपन होता है बचपन।

मैं नहीं गया जर्मनी
नहीं देख सका बर्लिन की ढही दीवार 
नहीं जा सका चीन भी
कि देख सकूँ दुनिया की सबसे बड़ी दीवार
मैं गया बस देखने 
दीवारों को गिराने वाली एक दीवार।
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