शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

सब कुछ गूगलमय

रात लगभग आधी बीत ही चुकी। लेकिन बात कुछ ऐसी है कि 'रह न जाए बात आधी।' घड़ी का काँटा १२ के डिजिट को विजिट कर  उस पार की यात्रा पर निकल गया। अब तो डेट भी बिना लेट किए करवट बदल ली। २७ की अठ्ठाइस हो चुकी। लेकिन बात तो आज ही  की है; आज ही की  शाम की है.....ये शाम कुछ अजीब थी....

आज शाम एक ताना सुनने को मिला कि मैं बहुत 'कर्री' और लगभग  'गद्द नुमा कवितायें' लिखने लग पड़ा हूँ। प्रोफ़ेसरी अपनी जगै है और कविता अपनी जगै। कविता तो भई वई है जिसमे लय होय, तुक होय और देखने - पढ़ने में एक अच्छी - सी लुक होय। लगे हाथ और बिल्कुल फ़्री में  एक अदद नसीहत भी मिली कि भय्ये  कभी कुछ हल्का-  फुल्का भी लिख लिया करो। ये कोई अच्छी बात तो नहीं है कि हर बखत माथे पर बल पड़ा रवे  और मुस्कुराहट को तरसते चेहरे के पतंग की डोर में थोड़ी ढील न दी जा सके। रात साढ़े नौ- पौने दस बजे कस्बे के एक बौद्धिक जमावड़े से घर की  लौटते हुए कुछ सोचा किया और गूगल के जन्मदिन पर कुछ  कागज पर गेर दिया । वही माल  अब कंपूटर के धरम काँटे पर भी मौजूद है।  ल्यो साब !  अब आपको कैसी लगे  क्या पता  किन्तु - परन्तु -लेकिन मेरी  समझ से जे एक हल्की - फुल्की-सी कवितानुमा  पेशकश.... उससे पहले पूर्वरंग या प्रीफेस..

कलम हाथ से छुट गई , की-बोर्ड माउस हाथ। 
जब देखो तब बना रहे  , कंप्यूटर  का साथ ॥
कंप्यूटर का साथ ,  विराजतिं  इंटरनेट  रानी।
उसी लोक की आज सुनाते , अकथ कहानी ॥
नेट दुनिया में राजते ,  गूगल जी   महाराज ।
सुनो ध्यान से चालू आहे उनका किस्सा आज


सब कुछ गूगलमय

गूगल जी का जन्मदिवस है , हैप्पी बड्डे आज।
इंटरनेट की इस दुनिया में बनें उन्हीं से काज ॥

डे नाइट खिदमत करने में रहें सदा ही तत्पर।
खोज-खाजकर ले आते हैं हर क्वेस्चन का उत्तर॥

देश वेश भाषा और यूजर उनके लिए सब यकसां।
देख - देख कर उनको बिसुरे,  घर का बुद्धू बक्सा॥

कुंजी और किताबों में जो ,  भरी ज्ञान की थाती।
बस एक क्लिक करते ही वह तो पास हमारे आती॥

बच्चे बूढ़े और यंगस्टर्स, हर  इक है   बलिहारी।
जिसको देखो वो ही गाए , गूगल विरद तुम्हारी ॥

जय हो जय हो सचमुच जय हो गूगल जी की जय।
आज तुम्हारे  बड्डे  पर तो  सब कुछ गूगलमय॥






मंगलवार, 25 सितंबर 2012

साधारण की असाधारणता और कवि छवि

हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि बल्ली सिंह चीमा के साठ वर्ष पूरे पर उनके मित्रों  ने ०८ सितम्बर २०१२ को  नई दिल्ली के गाँधी शांति प्रतिष्ठान में एक बहुत ही आत्मीय , सादा और गरिमापूर्ण  आयोजन किया गया था। इस कार्यक्रम की रपट 'कबाड़ख़ाना' पर पढ़ी जा सकती है। इस अवसर पर एक स्मारिका का प्रकाशन भी किया गया जिसका संपादन डा० प्रकाश चौधरी ने किया है। इसी स्मारिका के लिए मैंने 'साधारण की असाधारणता और बल्ली सिंह चीमा की कवि छवि' शीर्षक एक आलेख लिखा था जो किंचित संशोधित शीर्षक  के साथ वहाँ प्रकाशित  हुआ है। आज वही आलेख यहाँ सबके साथ साझा है....


साधारण की असाधारणता और कवि छवि
                                                           
* सिद्धेश्वर सिंह

स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कविता में दुष्यंत कुमार, अदम गोंडवी और बल्ली सिंह चीमा की एक ऐसी त्रयी है जिसने अपनी ग़ज़लो के जरिए  हिन्दी पट्टी की पूरी पीढ़ी को अपने तरीके से प्रभावित किया है और निरन्तर कर रही है। देखा जाय तो जिसे हिन्दी कविता की मुख्यधारा कहा जाता है उसमें ये कवि  बहुत उल्लेखनीय नहीं माने जाते हैं और न ही  हिन्दी कविता की चर्चा - परिचर्चा और पढ़ाई - लिखाई के  परिदृश्य पर उनकी उपस्थिति को रेखांकित किया गया है। इन तीनो कवियों में  सबसे पहली समानता यह है कि इन्होंने  अपनी अभिव्यक्ति के लिए जिस काव्यरूप को चुना है वह  हिन्दी ग़ज़ल के नाम से जानी जाती है । निश्चित रूप से ग़ज़ल हिन्दी का पारम्परिक काव्यरूप नहीं है लेकिन  वह हिन्दी के लिए नितान्त  नई भी नहीं है। कबीर से  लेकर भारतेन्दु , निराला , शमशेर और अन्यान्य कवियों  ने इसे अपनाया है और शब्दों की मितव्ययिता तथा अभिव्यक्ति की अपार संभावना से युक्त इस विधा को सचमुच हिन्दी का अपना बना दिया है। दुष्यंत कुमार  ने इसे कवित्व और कथ्य के स्तर पर नव्यता दी  तथा  काव्यभाषा  को जनभाषा बनाकर  जन की बात कही तो दूसरी ओर  अदम गोंडवी ने एक कदम और आगे बढ़कर बिल्कुल खुले रूप में सामान्यजन के सुख - दुख को वाणी दी। इसी क्रम में बल्ली सिंह चीमा की ग़ज़लें भी भाव व भाषा की दृष्टि से अपना एक एक विशिष्ट स्थान रखती हैं और निरन्तर चर्चा में बनी हुई हैं।

बल्ली सिंह चीमा कवि हैं यह कहने - सुनने के बजाय यह अधिक कहने - सुनने को मिलता है कि  वह एक 'किसान कवि' हैं, एक ऐसा किसान जो खेतों में फसल तो बोता है कविता की खेती भी करता है। हिन्दी कविता की  परम्परा में  बल्ली सिंह चीमा का एक  विशिष्ट स्थान  है और उनके प्रशंसकों की एक  बहुत बड़ी कतार है तो इसके पीछे  क्या वजह हो सकती है? क्या इसके पीछे स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज की विसंगतियाँ , असमानतायें और वे विद्रूपतायें है जो उनके कथ्य का  अविभाज्य हिस्सा बनती हैं? क्या यह वह भाषा है जो जन की भाषा है जिसमें कवित्व कोई दूसरी दुनिया और दूसरी भाषा  नहीं है? क्या यह विचारों के उथल - पुथल  से भरे हमारे समकाल में  व्याप्त वह जनपक्षधरता है जो  तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद अब भी उम्मीद से भरी हुई है? क्या यह धूमिल की काव्य परंपरा है जिसमें कविता  एक वायवीय कर्म न होकर  भाषा में आदमी होने की तमीज है? बहुत सारे सवाल हो सकते हैं और उनके बहुत सारे जवाब भी तलाशे जा सकते हैं। काफी लंबे समय से  बल्ली सिंह चीमा  की कविताओं को पढ़ते - सुनते - गुनते हुए   बार - बार लगता  है उनके कवि का विकास निरन्तर हुआ है और कविता को लेकर  उनकी जो भी सार्वजनिक छवि हिन्दी में निर्मित हुई है वह बहुत कुछ उन कारणों से भी है  जो प्राय: कविता से बाहर की चीजें हैं ; दूसरे शब्दों में कहें तो ये वे चीजे हैं जो जो उनके काव्य के कथ्य में तो हैं ही, कथ्य के बाहर के संदर्भों में भी विद्यमान हैं। इसलिए जब भी उनकी कविताओं की बात होती है तो प्राय: भाव - विचार और कथ्य का उल्लेख ही प्रधान हो जाता है। यहाँ पर यह भी प्रश्न उठता है कि यदि हम कविता में कथ्य पर उंगली न रक्खें , उसके महत्व को स्वीकार अपने आसपास प्रसंगों और पारिस्थितिकी से न जोड़ें तो क्या उसे  मात्र एक कलारूप मानकर जीवन - जगत के संदर्भॊं से विलग कर  'काव्य विनोद'  तक सीमित कर दें?  इसी के साथ जुड़ा हुआ एक प्रश्न यह भी है कि  बल्ली सिंह  चीमा की कविता क्या केवल अपने कथ्य  एवं  समकालीन संदर्भॊं की प्रस्तुति के कारण बड़ी  है या उसमें  सामयिक - संदर्भ निरपेक्ष होकर कालजयी होने की  सचमुच ताकत निहित है जो देश- काल के परे भी कुछ कहने और कहलवाने में सहज सक्षम है?

कविता  में सामयिक , समकालीन व तात्कलिक संदर्भों का होना कोई नया  प्रसंग नहीं है। यह एक प्रकार से  ऐसी ताकत होती है जो  कवि को जन से  सीधे - सीधे जोड़ देती है और जनता को लगता है कि कवि भी  उसकी ही तरह एक सामान्य इंसान है और कविता कोई ऐसा विशिष्ट सांस्कृतिक कर्म नहीं है जिसका अपने समय व समाज से कोई लेना देना नहीं है। इस संदर्भ में  हम अपने आसपास नागार्जुन की बहुत सी  कविताओं  को सहज ही याद कर सकते हैं लेकिन  क्या यही सत्य है कि नागार्जुन की  कविता की समग्र पहचान क्या ऐसी ही कविताओं से निर्मित होती है? दूसरी बात यह भी है कि  एक लंबे समय  के गुजर जाने के बाद  परवर्ती पीढ़ी यदि किसी कविता को पढ़ती है तो  क्या उसे  अनिवार्यत: ऐतिहासिक संदर्भों को तलाशना ही होगा?  आइए , इस संदर्भ में  बल्ली सिंह चीमा की कविता से एक छोटा - सा  उदाहरण चुनते है :

मार्क्स कहे कुछ और, कमरेड कुछ और
इसीलिए चर्चित हुआ 'कामरेड का कोट'।

मान लीजिए कि ये दो पंक्तियाँ आज के उस पाठक के सामने प्रस्तुत हैं जो हिन्दी कविता का अपेक्षाकृत  नया पाठक तो है ही  आज की बदली हुई दुनिया में  देशकाल  को देखने समझने  का उसका  नजरिया भी वह नही है जो कविता की उत्सभूमि है तब यह पंक्ति क्या कहती व संप्रेषित करती  हुई  जान पड़ेगी है?  क्या इसे स्पष्ट करने के किए किताबों  - पत्रिकाओं के नए संस्करण में यह लिखा जाना चाहिए कि इस पंक्ति का संदर्भ प्रेमचंद द्वारा स्थापित पत्रिका 'हंस'  के राजेन्द्र यादव द्वरा संपादित  नए नए रूप के अमुक अंक में प्रकशित  कहानीकार सृंजय की लंबी  कहानी 'कामरेड का कोट' से  जुड़ता है जो मार्क्सवाद के व्यावहारिक द्वंद्व को एक साधारण कार्यकर्ता के  माध्यम से प्रस्तुत बेधक तरीके से  करती है अथवा यह कहा जाय कि मार्क्सवाद के संदर्भ में विचार व क्रिया की द्वंद्वात्मकता यहाँ  इन  पंक्तियों में प्रस्तुत हुई है?  निश्चित रूप से  इस काव्य पंक्ति में 'कामरेड का कोट'  से कहीं  अधिक व स्पष्ट संदेश कामरेड का कृत्य है। दूसरे शब्दों में यह कहने व करने का  वह विभेद है जो  हमारे समय को लगातार जटिल , जनविमुख और जर्जर बनाता जा रहा है। आइए यहीं पर  बल्ली सिंह चीमा की एक और पंक्ति को देखते हुए आगे बढ़ते हैं: :

अब भी लू में जल रहे हैं जिस्म अपने साथियो,
आइए,  मिलजुल के कुछ ठंडी हवा पैदा करें।

यह पंक्ति भी एक साधारण पंक्ति है जिसमें  मिलजुल कर लू में जलते हुए जिस्मों के लिए ठंडी हवा पैदा करने की बात की गई है। यह तो  इस पंक्ति का सामान्य अर्थ है जो काव्यार्थ में ढलकर दलित शोषित जनता की एकता और जहाँ कहीं भी अन्याय , अनीति व असमानता है उसके विरुद्ध निरन्तर संघर्ष की बात को प्रकट करती है। इस पंक्ति में साधारणता व सार्वदेशिकता तथा सार्वकालिकता है जो इसे एक काव्य पंक्ति के रूप  में प्रतिष्ठित करता है क्योंकि यह कहीं भी कभी लागू होने वाला सत्य बन जाता है । एक अच्छी कविता की यही पहचान है कि वह जिस  बात को कहना चाहती है वह सदैव एक जैसी रहती है क्योंकि उसकी बात मनुष्यता के पक्ष में होती है ; देशकाल व सामयिकता से निरपेक्ष सार्वजनीन व सार्वकालिक। यह अलग बात है कि उसमें सामयिक संदर्भ खोजे जा सकते हैं किन्तु वे संदर्भ बात को विस्तार देने वाले हों , उसे सीमित करने वाले नहीं। ऐसा कहने के पीछे आशय यह नहीं है कि बल्ली सिंह चीमा की कविताओं में कालजयिता के तत्व बहुत कम हैं और उनकी कविता मुख्यत:  सामयिकता से पूर्ण है। बात यह है कि हमारे आज के काव्य परिदृश्य पर बल्ली सिंह चीमा की जो कवि छवि निर्मित होती रही है वह मुख्यत: उन ग़ज़लों पर आधारित है जो कथ्य के स्तर पर अत्यधिक मुखर और वाचाल दिखाई देती हैं। वैसे यह कोई नई बात भी नहीं है हिन्दी की जनवादी कविता या हिन्दी में जो कवि जनकवि माने जाते हैं उनकी कविता के साथ इस तरह की बात बहुत पहले से होती रही है। यह प्रसंग पर तो निर्भर करता ही  है , पाठ भी इसमें कम महत्वपूर्ण नहीं है।

बल्ली सिंह चीमा के अब तक चार कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी चर्चा- प्रशंसा भी खूब हुई है। उन्हें कई  पुरस्कार व सम्मान भी मिल चुके हैं। वे हिन्दी के सचमुच लोकप्रिय और लोककवि हैं। आज के ऐसे समय में जब पूरे साहित्यिक परिदृश्य से गाँव जैसी चीज  लगभग  तिरोहित होती जा रही है तब वह निश्चित्त रूप से हमारे उन कवियों में से हैं  जो  सहज भाषा में आमजन की बात कहने में सक्षम हैं। यह सच है उनकी शुरुआती कविताओं में  एक खास किस्म की अनगढ़ता विद्यमान थी जो उन्हें एक तरह से भीड़ में अलग से पहचाने जाने का कारण भी बनी और कम से कम कवित्व में अधिक - अधिक सहज संप्रेषणीयता उनकी ताकत बनी ; वह दौर अब जा चुका है। जनता की लड़ाई भी अब उतनी सीधी व सपाट दिखाई देने वाली नहीं है तब कवि बल्ली सिंह चीमा को पढ़ना और हिन्दी कविता के बड़े परिदृश्य पर उनकी  उपस्थिति की छाप को ऐतिहासिकता के आईने में देखने की कोशिश करने पर  यह साफ दिखाई देता है कि  एक कवि के रूप में बल्ली सिंह चीमा  विकसित हुए हैं और  निरन्तर विकासमान हैं। यह विकास उनकी अपनी टेक से विचलन या विपर्यय नहीं है। हिन्दी में हुआ यह है  कि कुछ  चुनिंदा जिन ग़ज़लों के आधार  पर  बल्ली सिंह चीमा की कवि छवि निर्मित हुई है वह  उनके एक विपुल काव्य संसार को छोड़कर  निर्मित हुई है जिसमें प्रकृति है , प्रेम है और जीवन के  कठिन जीवन क्रियाकलापों से निकला जीवन दर्शन है। इधर की लिखी गज़लों में  बल्ली सिंह चीमा अपनी  पुरानी टेक के आसपास ही हैं क्योंकि वही उनकी केन्द्रीयता भी है फिर भी  न केवल कथ्य के स्तर पर बल्कि शिल्प के स्तर भी वह अपनी कवि छवि को तोड़ने में सतत संलग्न , सक्रिय व सन्नध दिखाई देते हैं। यह एक बड़ी और अच्छी बात है क्योंकि  एक पाठक की हैसियत से मैं इसे सामयिकता से कालजयिता की ओर  अग्रसर एक यात्रा के रूप में देखकर  प्रसन्न हूँ और आश्वस्त भी। और अंत में बल्ली सिंह चीमा की यह नई गज़ल जो सचमुच नई है और परंपरा का निर्वाह करते हुए नव्यता की नई राहें भी अन्वेषित करती जान पड़ती है : 

यूँ मिला आज वो मुझसे कि खफ़ा हो जैसे 
मैंने महसूस किया मेरी खता हो जैसे। 

तुम मिले हो तो ये दर -दर पे भटकना छूटा 
एक बेकार को कुछ काम मिला हो जैसे। 

जिंदगी छोड़ के जायेगी न जीने देगी 
मैंने इसका कोई नुकसान किया हो जैसे। 

वो तो आदेश पे आदेश दिये  जाता है 
सिर्फ़ मेरा नहीं दुनिया का का खुदा हो जैसे।   

तेरे होठों पे मेरा नाम खुदा खैर करे 
एक मस्जिद पे श्रीराम लिखा हो जैसे। 

मेरे कानों में बजी प्यार भरी धुन 'बल्ली' 
उसने हौले से मेरा नाम लिया हो जैसे। 
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( *  ऊपर स्मारिका की  विमोचन  छवि में दिखाई दे रहे हैं : बायें से वीरेन डंगवाल, से० रा० यात्री, बल्ली सिंह चीमा, मंगलेश डबराल, पंकज बिष्ट,रामकुमार कृषक और जसवीर चावला। स्मारिका अब पीडीएफ में भी उपलब्ध है यदि कोई मित्र इसे देखना - बाँचना - पढ़ना चाहते हैं तो अपना ई मेल पता दे सकते हैं। उनके साथ पूरी स्मारिका साझा कर हमें खुशी होगी )

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

कर्मनाशा से गुजरते हुए

इस बीच पत्र पत्रिकाओं में मेरे कविता संग्रह ' कर्मनाशा' की कुछ समीक्षायें आई है / आ रही हैं। सही बात है कि इनसे समीक्षाओं से को देखकर  अपने सोचे -सहेजे लिखे को दूसरों के नजरिए से देखने में  मदद अवश्य मिलती है।हिन्दी की लिखने - पढ़ने वालों की बिरादरी में पुस्तक समीक्षायें अमूमन गद्य में ही लिखी जाती है। आज मैं 'कर्मनाशा' की एक समीक्षा जो गद्य से इतर है और कविता के निकट  है , को सबके साथ साझा करना चाह रहा हूँ। वैसे देखा जाय तो यह समीक्षा भी नहीं है ; यह एक आत्मीय की , मित्र की सहज प्रतिक्रिया है ; ऐसे मित्र की से जिसके साथ लंबे समय  पढ़े - पढ़ाये, सोचे - समझे को साझा करते एक उम्र बीत गई है और हम साथ - साथ हैं। यहाँ पर यह भी कहा जा सकता है कि आपसी संवाद को साझा या सार्वजनिक करना कोई  अच्छी बात तो नहीं है।  डा०  प्रकाश चौधरी मेरे मित्र हैं, सखा हैं और फिलहाल गाजियाबाद के एम०एम०एच० कालेज में  फिजिक्स के एसोशिएट प्रोफ़ेसर के रूप में काम कर हैं ।उन्होंने मेरी किताब पर लिखी यह प्रतिक्रिया फेसबुक पर  साझा किया था। मैं तो बस उनकी  साझेदारी के काम को थोड़ा और आग्रसर कर रहा हूँ बस।  डा० प्रकाश लम्बे समय से सहित्य  - संपादन- थिएटर-  संस्कृति- समाज से जुडी़ गतिविधियों में सक्रिय जुड़ाव रखते हैं। आइए, देखते हैं  कविता की किताब की यह एक काव्यात्मक  समीक्षा या काव्य -  प्रतिक्रिया...

कर्मनाशा से गुजरते हुए .....

सरसों के खेत
और नहाती स्त्रियों के
सानिध्य मे
नदी अपवित्र नहीं हो सकती ....
तभी तुम
बचा लाते हो दाज्यू ढूंढती लड़की को
दिल्ली के शिकंजो से.

और हां
वो कांच की खिड़की
पर आंसू की लकीर...
माफ़ करना, लड़की के नहीं
कर्मनाशा के नायक के हैं - तुम्हारे हैं
जो कीमत चुका रहे हैं - कविता कहने की.

स्मृतियों-विस्मृतियों के बीच
बहती तुम्हारी कर्मनाशा
स्वप्निल पहाड़ों, जादुई विस्तारों से
होते हुए
धूल - गंध और गुबार तक .
बहती जरूर है.

चटख धूप में
ढलवां छत पर पसरी बर्फ,
नीले आकाश में
नए गीत लिखते
नुकीले देवदार वृक्ष,
चाय के गिलास से उठती भाप की लय,
धुएं के छल्ले बनाते गोल होंठ,
फिर भला अमलतास
क्यों न दे
तुम्हें भरपूर उर्जा,
कि तुम रचो अपनी कर्मनाशा का भरा-पूरा संसार.
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- प्रकाश चौधरी

रविवार, 2 सितंबर 2012

जब भी मैं सुनता हूँ रेलगाड़ी की आवाज

तुर्की कवि ओरहान वेली ( १९१४ - १९५०) की कुछ कविताओं के अनुवाद आप 'कबाड़ख़ाना' और 'कर्मनाशा' पर पहले भी पढ़ चुके हैं। ओरहान वेली,  हमारे समय का एक ऐसा कवि जिसने केवल ३६ वर्षों का लघु जीवन जिया ,एकाधिक बार बड़ी दुर्घटनाओं का शिकार हुआ , कोमा में रहा और जब तक , जितना भी जीवन जिया सृजनात्मक लेखन व अनुवाद का खूब सारा काम किया। आइए उसके विविधवर्णी काव्य संसार में तीन छोटी - छॊटी कविताओं के जरिए एक बार पुन:  प्रविष्ट हुआ जाय और देखा जाय कि जहाँ  बड़े विचार , बड़ी स्थितियाँ और बड़े संघर्ष  सतह पर  दिखाई नहीं  देते हैं वहाँ एक संवेदनशील कवि किस प्रकार अपने एकांतिक  संसार में  लघुता में विराटता के मर्म को महसूस और  व्यक्त  करता  है....


ओरहान वेली की तीन कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

०१- शराब घर

नहीं करता अब
उसे प्रेम
फिर क्यों घूमता हूँ हर रात
शराबघरों में !

और पीता हूँ हर रात
उसकी याद में
उसे याद करते - करते - करते!


०२- अच्छा मौसम

इस अच्छे मौसम ने तबाह कर दिया मुझे

इसी मौसम में
मैंने दिया था इस्तीफा
अपनी सरकारी नौकरी से

इसी मौसम में
मैं हुआ था तंबाकू की लत का शिकार

इसी मौसम में
मैं पड़  गया था प्यार में

इसी मौसम  मैं
मैं भूल गया घर ले जाना नून - तेल

हाँ, ऐसे ही मौसम में
कवितायें लिखने की व्याधि ने
मुझे ग्रस्त किया था दोबारा ...बार - बार

इस अच्छॆ मौसम ने
तबाह कर दि्या मुझे
सचमुच तबाह।


०३- रेलगाड़ी की आवाज

हालत खस्ता है मेरी
कोई सुंदर स्त्री नहीं आसपास
जो दिल को दे सके कुछ दिलासा

इस शहर में
कोई पहचाना चेहरा भी नहीं

जब भी मैं सुनता हूँ रेलगाड़ी की आवाज
मेरी दो आँखें
बन जाती हैं दो प्रपात।