रविवार, 2 सितंबर 2012

जब भी मैं सुनता हूँ रेलगाड़ी की आवाज

तुर्की कवि ओरहान वेली ( १९१४ - १९५०) की कुछ कविताओं के अनुवाद आप 'कबाड़ख़ाना' और 'कर्मनाशा' पर पहले भी पढ़ चुके हैं। ओरहान वेली,  हमारे समय का एक ऐसा कवि जिसने केवल ३६ वर्षों का लघु जीवन जिया ,एकाधिक बार बड़ी दुर्घटनाओं का शिकार हुआ , कोमा में रहा और जब तक , जितना भी जीवन जिया सृजनात्मक लेखन व अनुवाद का खूब सारा काम किया। आइए उसके विविधवर्णी काव्य संसार में तीन छोटी - छॊटी कविताओं के जरिए एक बार पुन:  प्रविष्ट हुआ जाय और देखा जाय कि जहाँ  बड़े विचार , बड़ी स्थितियाँ और बड़े संघर्ष  सतह पर  दिखाई नहीं  देते हैं वहाँ एक संवेदनशील कवि किस प्रकार अपने एकांतिक  संसार में  लघुता में विराटता के मर्म को महसूस और  व्यक्त  करता  है....


ओरहान वेली की तीन कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

०१- शराब घर

नहीं करता अब
उसे प्रेम
फिर क्यों घूमता हूँ हर रात
शराबघरों में !

और पीता हूँ हर रात
उसकी याद में
उसे याद करते - करते - करते!


०२- अच्छा मौसम

इस अच्छे मौसम ने तबाह कर दिया मुझे

इसी मौसम में
मैंने दिया था इस्तीफा
अपनी सरकारी नौकरी से

इसी मौसम में
मैं हुआ था तंबाकू की लत का शिकार

इसी मौसम में
मैं पड़  गया था प्यार में

इसी मौसम  मैं
मैं भूल गया घर ले जाना नून - तेल

हाँ, ऐसे ही मौसम में
कवितायें लिखने की व्याधि ने
मुझे ग्रस्त किया था दोबारा ...बार - बार

इस अच्छॆ मौसम ने
तबाह कर दि्या मुझे
सचमुच तबाह।


०३- रेलगाड़ी की आवाज

हालत खस्ता है मेरी
कोई सुंदर स्त्री नहीं आसपास
जो दिल को दे सके कुछ दिलासा

इस शहर में
कोई पहचाना चेहरा भी नहीं

जब भी मैं सुनता हूँ रेलगाड़ी की आवाज
मेरी दो आँखें
बन जाती हैं दो प्रपात।

6 टिप्‍पणियां:

प्रज्ञा पांडेय ने कहा…

har kavita ke paas pahunchkar man thithak gaya ..

संतोष त्रिवेदी ने कहा…

....बहुत उम्दा !

Rajesh Kumari ने कहा…

दिल की गहराइयों से निकले भाव ===वाह उम्दा अनुवाद भी बेहतरीन

Satish Saxena ने कहा…

ये यादें भी ...
शुभकामनायें आपको !

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

बेहतरीन..................

आभार
अनु

Onkar ने कहा…

सुन्दर कविताएँ