सोमवार, 20 अगस्त 2012

छोटी दुनिया के अंदर कविता का बड़ा कोना

दैनिक समाचार पत्र  'राष्ट्रीय सहारा' के १९ अगस्त २०१२ के अंक में मेरे कविता संग्रह 'कर्मनाशा' की एक समीक्षा प्रकाशित हुई है। समीक्षक साधना अग्रवाल और 'राष्ट्रीय सहारा' के प्रति  आभार सहित वह  इस ठिकाने पर सबके साथ साझा करने के उद्यदेश्य से यथावत यहाँ  पर प्रस्तुत है : 

छोटी दुनिया के अंदर कविता का बड़ा कोना
समीक्षा : साधना अग्रवाल

समकालीन हिंदी कविता के सामने आज कई चुनौतियां हैं। पहली चुनौती कविता की पहचान का संकट है। इस संकट के मूल में भारी संख्या में लिखी जा रही रद्दी, निरर्थक अकविताएं हैं। हिंदी में निकल रहीं अधिकांश पत्रिकाएं इसी तरह की तथाकथित कविताओं से भरी होती हैं, जिनमें कविता के नाम पर अर्थ से विच्छिन्न और अनुभूति रहित कविताएं होती हैं। ऐसी कविताओं ने अच्छी कविताओं को इस कदर आच्छादित कर दिया है कि कविता के सामने पहचान का संकट खड़ा गया है। कविता के सामने दूसरी बड़ी चुनौती समाचार पत्रों, या दृश्य-श्रव्य मीडिया में लगातार साहित्य के लिए स्पेस घटते जाना है। विडंबना यह है कि कविता से हम जिस तरह दिनों-दिन दूर होते जा रहे हैं, कविता की चिंता के केन्द्र में मनुष्यता की जगह उतनी ही बढ़ती जा रही है। बाजार और नई पूंजीवादी व्यवस्था हमें बाहर से बदलती है लेकिन कविता हमें भीतर से बदलती है क्योंकि कविता का असली घर संवेदना होता है और यही संवेदना हमें मनुष्य बनाती है। क्योंकि यदि हम कुछ महसूस नहीं करेंगे तो अच्छे-बुरे में कोई फर्क भी नहीं कर सकते हैं। अभी भी कविता के प्रति हमारी उम्मीद बची हुई है क्योंकि एक अच्छी कविता पढ़ने का सुख उसे पढ़कर उसका आस्वाद लेने से ही पता चलता है।

सिद्धेश्वर सिंह के कविता संग्रह ‘कर्मनाशा’ में एक लंबे कालखंड में लिखी और विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित ऐसी ही 60 कविताएं संग्रहीत हैं। पहली ही कविता है ‘बीच का रास्ता’। इसे पढ़ने से पाश के कविता संग्रह ‘बीच का रास्ता नहीं होता’ की याद आना स्वाभाविक है। इस छोटी सी कविता में भी पाश की स्मृति है- ‘ नहीं थी/कहीं थी ही नहीं बीच की राह/खोजता रहा/होता रहा तबाह।/जब तक याद आते पाश/सब कुछ हो चुका था/बकवास।’ कवि उलझा है बीच का रास्ता ढूंढने में लेकिन जैसे ही उसे पाश की पंक्ति ‘बीच का रास्ता नहीं होता’ याद आती है, अपना प्रयास बेकार लगता है। यह छोटी कविता है लेकिन चूंकि इस कविता में पूर्वज कवि की स्मृति है इसलिए भी यह अर्थभार से झुकी लगती है। ‘काम’ इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि कवि वह सब करना चाहता है जीवित रहने के लिए जो जरूरी है ‘मसलन-सॉंस लेना है भरपूर/भरना है उदर का रोज खाली हो जाने वाला कुंड/नए साल पर देना है सबको बधाई और शुभकामना संदेश/और खुश हो जाना है/कि एक अच्छी दुनिया के निर्माण के लिए/पूरा कर दिया अपने हिस्से का काम।’ स्पष्टत: कवि की प्रतिबद्धता मनुष्यता से ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया से है।

सिद्धेश्वर सिंह की कविता की दुनिया बहुत बड़ी है और इस दुनिया में यदि ‘लक्कड़ बाजार शिमला’, ‘बनता हुआ मकान’, ‘अपवित्र नदी’, ‘रामगढ़ से हिमालय’, ‘कस्बे में कवि गोष्ठी’ एक तरफ है तो दूसरी तरफ ‘कौसानी में सुबह’, ‘चार प्रेम कविताएं शीषर्क हीन’, ‘इंटरनेट पर कवि’, ‘लैपटाप’, ‘फेसबुक’, ‘प्रतीक्षा’, ‘कहां है वसंत’, और ‘अंधेरे में मुक्तिबोध’ जैसी कविताएं भी हैं। ‘कर्मनाशा’ संग्रह का नाम है और इस शीषर्क से एक कविता भी है। दूसरी कविता ‘अपवित्र नदी’ में भी कर्मनाशा नदी का उल्लेख है। इसकी आरंभिक पंक्तियां हैं-‘कुएं का जल नहीं है यह/ठहरा/यह है बहता निर्मल नीर।’ जल और नीर दोनों का बहुत सटीक प्रयोग किया गया है। कुंए के लिए जल शब्द का और अपवित्र नदी के लिए निर्मल नीर का प्रयोग एक विपर्यय है और इसी कारण यह कविता महत्वपूर्ण हो गई है। कविता की अंतिम पंक्तियां हैं-‘यह है नदी अपवित्र/अहरह बहती हुई कर्मनाशा/गंगा-जमुना हैं जिसके दो तीर।’ ‘बनता हुआ मकान’ भी एक दिलचस्प कविता है। ‘रामगढ़ से हिमालय’ कविता में पहाड़ों के माथे पर बर्फ की सफेदी की तुलना बीतते वक्त के साथ बालों में उतरते उजलेपन से की गई है।

‘पुस्तक समीक्षा’ एक व्यंग्य कविता है जिसमें आज लिखी जा रही पुस्तक समीक्षा को निशाने पर रखा गया है। चूंकि कवि उत्तराखंड के एक छोटे कस्बे में रहता है इसलिए वहां की हलचलें और गतिविधियां भी कवि के दृष्टिपथ में हैं जैसे ‘कस्बे में कवि गोष्ठी’। ‘उत्सर्ग एक्सप्रेस’ किंचित लंबी कविता है लेकिन खिलंदड़पन से ओतप्रोत। कौसानी छायावाद के प्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत की जन्मस्थली है। ‘कौसानी में सुबह’ शीषर्क कविता में न केवल कवि पंत की स्मृति है बल्कि कौसानी में सुबह पर उनकी भाषा में टिप्पणी भी है। देखिए-‘ कवि होता तो कहता-/सोना-स्वर्ण-कंचन- हेम।/और भी ना जाने कितने बहुमूल्य धातुई पर्याय/पर क्या करूं-/तुम्हारे एकांत के/स्वर्ण-सरोवर में सद्य: स्नात/मैं आदिम-अकिंचन ...निस्पृह .... नि:शब्द।’

कर्मनाशा नदी को अपवित्र माना जाता है लेकिन कवि इसे देखकर संवेदित हो उठता है। कविता का आरंभ देखिए-‘फूली हुई सरसों के/खेतों के ठीक बीच से/सकुचाकर निकलती है कर्मनाशा की पतली धारा।’ कवि इस मनोरम दृश्य को देखकर भीतर से हिल जाता है। कर्मनाशा को शापमुक्त करने की चाह में कवि कहता है-‘नाव से हाथ लपकाकर/एक-एक अंजुरी जल उठाते हुए/पुरनिया-पुरखों को कोसने लगता हूं मैं-/क्यों-कब-कैसे कह दिया/कि अपवित्र नदी है कर्मनाशा।’ संग्रह की अंतिम कविता है ‘अंधेरे में मुक्तिबोध।’ इस कविता में कवि की मुलाकात मुक्तिबोध से होती है। पाठक को इस मुलाकात पर कोई शक-शुबह न हो, इसलिए कवि जोर देता है-‘कल मिल गए ग.मा. मुक्तिबोध/अरे वही/जिनकी किताबों के बारे में/प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछा जाता है प्रश्न।’ पूरी कविता में मुक्तिबोध हैं, उनका संघर्ष है, राजनांद गांव है और अंधेरा तो है ही।

'कर्मनाशा’ सिद्धेश्वर सिंह की कविताओं का पहला संकलन है लेकिन इन कविताओं में भाषा, भावबोध, संप्रेषणीयता तो है ही, सबसे ऊपर प्रौढ़ वयस्कता है। एक अच्छी बात है कि कविता के भीतर सचमुच कविता है जो पाठकों को पढ़ने पर न केवल आह्लादित करती है बल्कि अच्छी कविता के आस्वाद का भी पता देती है। पूरा विश्वास है कि इस संग्रह की कविताएं पाठकों को उद्विग्न ही नहीं, बेचैन भी करेंगी और कवि सिद्धेश्वर सिंह की पहचान को पुख्ता करेंगी।
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'कर्मनाशा'
( कविता संग्रह)
- सिद्धेश्वर सिंह

प्रकाशक :

अंतिका प्रकाशन 
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               मूल्य : रु. 225

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