मंगलवार, 30 नवंबर 2010

तुम दफ़्न करो मुझे और मैं दफ़नाऊँ तुम्हें


I have brushed my teeth.
This day and I are even.
                              -Vera pavlova

वेरा पावलोवा छोटे कलेवर की बड़ी कविताओं के लिए जानी जाती हैं। उनके पन्द्रह कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। संसार की बहुत सी भाषाओं में उनके कविता कर्म का अनुवाद हो चुका है जिनमें से स्टेवेन सेम्योर द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद 'इफ़ देयर इज समथिंग टु डिजायर : वन हंड्रेड पोएम्स' की ख्याति सबसे अधिक है। यही संकलन हमारी - उनकी जान - पहचान का माध्यम भी है। स्टेवेन, वेरा के पति हैं और उनकी कविताओं के ( वेरा के ही शब्दों में कहें तो ) 'सबसे सच्चे पाठक' भी। १९६३ में जन्मी वेरा पावलोवा आधुनिक रूसी कविता का एक ख्यातिलब्ध और सम्मानित नाम है। वह संगीत की विद्यार्थी रही हैं। इस क्षेत्र में उनकी सक्रियता भी है किन्तु बाहर की दुनिया के लिए वह एक कवि हैं - 'स्त्री कविता' की एक सशक्त हस्ताक्षर। लीजिए प्रस्तुत हैं उनकी दो कवितायें -




वेरा पावलोवा की दो कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

०१-

'हाँ' कहना

क्यों इतना छोटा है 'हाँ' शब्द
इसे होना चाहिए
सबसे लम्बा
सबसे कठिन
ताकि तत्क्षण निर्णय न लिया जा सके
इसके उच्चारण का।
ताकि बन्द न हो परावर्तन का पथ
और मन करे तो 
बीच में रुका जा सके इसे कहते - कहते।

०२-

निरर्थकता का अर्थ

हम धनवान हैं 
हमारे पास कुछ भी नहीं है खोने को
हम पुराने हो चले
हमारे पास दौड़ कर जाने को नहीं बचा है कोई ठौर
हम अतीत के नर्म गुदाज तकिए में फूँक मार रहे हैं
और आने वाले दिनों की सुराख से ताकाझाँकी करने में व्यस्त हैं।

हम बतियाते हैं 
उन चीजों के बारे में जो भाती हैं सबसे अधिक
और एक अकर्मण्य दिवस का उजाला 
झरता जाता है धीरे - धीरे
हम औंधे पड़े हुए हैं निश्चेष्ट - मृतप्राय
चलो - तुम दफ़्न करो मुझे और मैं दफ़नाऊँ तुम्हें।




सोमवार, 29 नवंबर 2010

रविवार, 28 नवंबर 2010

कटोरा भर आसमान के नीचे


यह एक अधूरा -सा  आलेख है। अधूरा अगर न कहूँ तो एक 'बनता हुआ' अथवा निर्माणाधीन आलेख कह सकता हूँ। यह एक निजी बयान अथवा अपने अतीत का उत्खनन भी है। आज अगर मैं 'दो आखर' कुछ लिख - पढ-कह लेता हूँ तो यह एक तरह से उसके बनने की पूर्वकथा भी है। अभी १८ नवंबर २०१० की सुबह - सुबह  भाई डा० संतोष मिश्र का एस.एम.एस. आया:

ताल में जमकर पानी और उसमें मछली रानी हो।
बर्फ़ की चादरओढ़ के सर्दी में काँपता सैलानी हो।

 मिश्र जी के एस.एम.एस. से पता चला कि आज (१८ नवंबर) नैनीताल का 'हैप्पी बड्डे' है। ओह ! तो अब शहर भी अपना जन्मदिन मनाने लग पड़े हैं! खैर, इस एस.एम.एस. ने अपने पुराने दिनों की याद दिलाई तो उन दिनों की स्मृतियों को टटोलते हुए  लिखे इस लेख की याद आई। पता नहीं इसमें दूसरों की क्या रुचि हो सकती है..लेकिन...फिर भी एक निर्माणधीन आलेख का यह एक हिस्सा आइए साझा करते हैं...




कटोरा भर आसमान के नीचे दस बरस

आदमी ने कुछ भी किया हो
कितना ही अत्याचार या दुराचार
उसके पास कुछ तो होता है
जो टूटने-फटने के बावजूद बचाने के काबिल होता है
और जिसे सहेजने वाला एक दूसरा आदमी निकल ही आता है.

                    (अशोक वाजपेयी की कविता 'कबाड़ी' का एक अंश)

मुझे लगता है कि जीवन एक गद्यकथा है- तमाम तरह के आरोह- अवरोह, उठापटक,छल प्रपंच,राग-द्वेष से रची बसी एक ऐसी गद्यकथा  जो कविता का अतिक्रमण करते हुए अपनी निर्मिति और निरंतरता का मार्ग चुनती है फिर भी तनिक अवसर और अवकाश पाते ही कविता के शरण्य में दुबक भी जाना चाहती है. भयावहता और भवुकता के तटों से टकराकर जीवन नदी का प्रवाह अविराम चलता ही रहता है. इसी में उसकी गति है और दुर्गति भी.

मनुष्य के जीवन में दस वर्ष का समय कोई छोटा कालखंड नहीं होता. दस वर्षों में कितना कुछ बन-बदल और बिगड़ जाता है. और ऐसे संधिस्थल पर जब आप किशोरावस्था से प्रस्थान कर रहे होते हैं तब ये दस वर्ष कुछ ज्यादा ही महत्वपूर्ण,मूल्यवान और मारक होते हैं.दूसरे शब्दों में कहें तो बाकी जिन्दगी पर अनमिट छाप अंकित करने का छापखाना होते है ये दस वर्ष.

गद्य को गद्य की तरह और कविता को कविता की तरह ही लिखा जाय तो बेहतर होगा. ऐसा नहीं है कि  कविता गरिष्ठता को गला देती है या कि गेयता गल्प के आस्वाद को अनर्गल बना देती है फिर भी-

बुनी हुई रस्सी को घुमायें उल्टा
तो वह खुल जाती है
और अलग-लग देखे जा सकते हैं
उसके सारे रेशे.

मगर कविता को कोई
खोले ऐसे उल्टा
तो साफ नहीं होंगे हमारे अनुभव
इस तरह.

    (भवानीप्रसाद मिश्र की कविता 'बुनी हुई रस्सी' का एक अंश)

॥०१॥

मैंने एक विद्यार्थी की हैसियत से अपने जीवन के दस वर्ष नैनीताल में व्यतीत किये. सीधे-समतल-सपाट मैदानी इलाके से आकर मैं पहाडियों से घिरे इस शहर में पढ़ता-बढ़ता और स्वयं को गढ़ता रहा. नैनीताल से पहला शाब्दिक साक्षात्कार इंटरमीडिएट के पाठ्यक्रम में शामिल कहानी 'अपना- अपना भाग्य' (जैनेन्द्र कुमार) से हुआ. इस कहानी में लेखक और एक निराश्रित बालक के बीच यथार्थ की मुठभेड़ के साथ ही निरुद्देश्यता  और रोमानीपन भी है. इस कहानी का आरंभ ही रोमानीपन से होता है-

" बहुत कुछ निरुद्देश्य घूम चुकने पर हम सड्क के किनारे की एक बेंच पर बैठ गए. नैनीताल की संध्या धीरे-धीरे उतर रही थी. रुई के रेशे-से भाप के बादल हमारे सिरों को छू-छूकर बेरोक घूम रहे थे. हल्के प्रकाश और अंधियारी में रंग कर कभी वे नीले दीखते ,कभी सफेद और फिर देर में अरुण पड़ जाते. वे जैसे हमारे सथ खेलना चाह रहे थे.

हमारे पीछे पोलो वाला मैदान फैला था. सामने अंग्रेजों का एक प्रमोद-गृह था, जहां सुहावना, रसीला बाजा बज रहा था और पार्श्व में था वह सुरम्य अनुपम नैनीताल."

साठ-सत्तर के दशक की हिन्दी फिल्मों में पहाड़ी शहरों-कस्बों के बहुत खूबसूरत लोकेशंस हैं. प्रायः ऐसी जगहों पर तफरीह करने या छुट्टियां बिताने आए नायक को एक रूपसी प्रेयसी मिल जाया करती थी. फिर तो प्यार-मुहब्बत, नाच-गाना, मिलन-बिछोह, आंसू-रुदन आदि इत्यादि और 'दी एन्ड'. इंटर कालेज में  हिन्दी के हमारे अध्यापक 'पांडेय मास्साब' ने नैनीताल को लेकर बन रही हमारी रोमानी छवि को अपने संस्मरणों से और बढ़ाने का काम किया. रही-सही कसर 'पूजा' नामक  उपन्यास ने पूरी कर दी.

छोटे मामा को उपन्यास पढ़ने का शौक था. धीरे-धीरे यह लत मुझे भी लग रही थी.  एक दिन मामा के जरिए ही एक उपन्यास हाथ लगा जिसका शीर्षक 'पूजा' था और लेखक का नाम रानू. इसका कथानक कुछ इस तरह है कि  सिस्टर पूजा नैनीताल के एक प्रसिद्ध अस्पताल में नर्स है-एक सुंदर, कर्मठ, ममतामयी नर्स. नायक जो एक कलाकर है अपने शहर लखनऊ से नैनीताल घूमने आया है,बीमार पड़ जाता है. अस्पताल भर्ती नायक की सेवा-सुश्रुषा करते-करते प्रेम का बीज पड़ जता है. साथ जीने-मरने की कसमें-वादे और स्वस्थ होने पर एक दिन उसे सदा के लिए अपना जीवनसाथी बनाने का वादा कर लखनऊ चला जाता है. जब लंबे समय तक उसकी कोई खोज-खबर नहीं मिलती तो पूजा काठगोदाम से 'नैनीताल एक्सप्रेस' में सवार होकर लखनऊ के लिये चल देती है. रास्ते में किसी स्टेशन से चढ़े गुंडे उसके साथ बलात्कार करते हैं. वह अपनी यात्रा स्थगित कर नैनीताल लौटती है और झील में कूदकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर लेती है. इस उपन्यास ने मेरे किशोर मन पर नैनीताल की ऐसी छाप अंकित की जो आज तक विद्यमान है. आज भी जब नैनीताल में होता हूं तो झील के किनारे से गुजरते हुए 'सिस्टर पूजा' की याद आ जाती है.पिछले कई वर्षों से मैं इस उपन्यास को एक बार फिर से पढ़ना चाहता हूं लेकिन वह नहीं मिल रहा है तो नहीं मिल रहा है.

अपने गांव के पास के कस्बे दिलदार नगर के अति प्रतिष्ठित आदर्श इंटर कालेज से स्कूल स्तर की पढ़ाई पूरी करने के बाद इच्छा थी कि 'पूरब के आक्स्फोर्ड' इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ा जाय लेकिन प्राप्तांक कम होने कारण जब वहां प्रवेश नहीं मिला तो इलाहाबाद के ही ईविंग क्रिश्चियन कालेज में प्रवेश तो  ले लिया परंतु छात्रावास नहीं मिला. एक दिन ऐसे ही घूमते- घामते ननीताल पहुंच गया  तो  उस समय के डी.एस.बी. संघटक महाविद्यालय और आज के कुमाऊं विश्वविद्यालय के नैनीताल परिसर में  थोड़ी परेशानी के बाद प्रवेश मिल गया और ब्रुकहिल छात्रावास के कमरा नंबर वन ए/१२ में ठिकाना. शुरुआत में सोचा था कि यहां से बी.ए. करके जे.एन.यू. या फिर बी.एच.यू. निकल लूंगा लेक़िन नैनीताल से ऐसा बंधा कि एम.ए. और पीएच.डी. करते-करते दस वर्ष कब गुजर गए पता ही नहीं चला.              

पिछले कई बरसों   से घाट-घाट का पानी पीकर भारत के अलग-अलग इलाकों में डोल रहा हूं .किसिम-किसिम की जगहें देखी हैं,तरह-तरह के लोगों से मिला हूं लेकिन नैनीताल को कभी भुला नहीं सका.आज भी जब भी कभी मौका मिलता है तो निकल पड़ता हूं अपने 'शहरे तमन्ना' की तरफ. पत्नी-बच्चे छेड़ते हैं -'मायके जा रहे हो! .हां नैनीताल मेरा मायका ही तो है .भले ही मैंने वहां जन्म नहीं लिया लेकिन उसके आंगन में ही तो मेरे व्यक्तित्व का निर्माण हुआ है.आज जब इतने दिनों के बाद नैनीताल पर लिखना है तो मेरे सामने समस्या यह है कि क्या,कैसे और किस तरह लिख जाय? जो विचार,वस्तु या स्थान आपकी संवेदना से संपृक्त हो गया हो उसे तटस्थ या विलग होकर देखना दुष्कर तो होता ही है.अपने लेखन के शुरुआती दौर में मैंने नैनीताल के ऊपर काफी कुछ लिखा था. वह यत्र-तत्र प्रकाशित भी हुआ था लेकिन आलस्य या अपनी आदत की वजह से उसे बहुत सहेज कर नहीं रख पाया. एक लेख था- 'नैनीतालः अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर...'जो यहीं से निकलने वाले एक पाक्षिक अखबार के लिए लिखा था.अब वह अखबार तो नहीं निकलता लेकिन उसके संपादक प्रयाग पांडे अब भी मुझे उसी लेख के कारण ही याद कर लेते हैं. दुर्योग से उस लेख की प्रति मेरे पास नहीं है फिर भी स्मृतियों पर पड़ी गर्द को झाड़कर कुरेदता हूं तो पता चलता है कि उस लेख में मैंने चमक-दमक से भरपूर और आत्ममुगध दिखने वाले नैनीताल का एक दूसरा चेहरा दिखाने की कोशिश की थी जहां अंधेरा है,दुःख है,कष्ट है,दरिद्रता है,संघर्ष है और वह सब कुछ है जिसे हम देखने से कतराते-बचते  हैं.     कभी-कभी लगता है कि इसी 'कतराने और बचने की कला' में पारंगत और प्रवीण होने को ही जीवन में 'सफल' होना माना जाता है शायद?



॥ ०२॥

नैनीताल में रहते हुए बहुत सी कवितायें नैनीताल पर लिखी थीं। उसी दौर की अपनी एक कविता :

हाल-ए-नैनीताल

क्या लिखें क्या ना लिखें इस हाल में .
लोग कितने अजनबी हैं शहर नैनीताल में .

कोहरे मे डूबा हुआ है चेहरा दर चेहरा,
वादी जैसे गुमशुदा है सुन्दर मायाजाल में .

इस सड़क से उस सड़क तक घूमना बस घूमना ,
इक मुसलसल सुस्ती-सी है इस शहर की चाल में .

धूप में बैठे हुये दिन काट देतें हैं यहां ,
कौन उलझे जिन्दगी के जहमतो-जंजाल में .

आज के हालात का कोई जिकर होता नहीं ,
किस्से यह कि दिन थे अच्छे शायद पिछले साल में .

इस शहर का दिल धड़कता है बहुत आहिस्तगी से,
इस शहर को तुम न बांधो तेज लय-सुर -ताल में





मंगलवार, 23 नवंबर 2010

धूप में कुछ मामूली चीजों के बड़प्पन के साथ


परसों,  इतवार की सुबह नहान -नाश्ते के बाद जब धूप सेंकने का मन हुआ तो घर के आसपास ही पेड़ -पौधों  से बतियाने का मन हो आया। गुनगुनी धूप में अपने निकट की मामूली चीजों को गौर से देखते हुए कुछ तस्वीरें मोबाइल में कैद कर ली थीं जिन्हें आज  और अभी सबके साथ साझा करने का मन हो रहा है। आज एक बार फिर इन तस्वीरों को देखते - परखते -निरखते  हुए यह भी लग रहा है  कि कामकाज, दफ़्तर -फाइल, दाल-रोटी  की आपाधापी और जुगाड़ -जद्दोजहद  में अपने नजदीक की  बहुत -सी मामूली चीजों का बड़प्पन  अक्सर  ध्यान में ही नहीं आता और बहुत सी अनोखी चीजें यूँ ही ओझल हो जाती है।प्रकृति अपनी मौज में अपनी चाल चलती रहती है। वह हमें पूरा अवसर देती है कि उसके साथ सहज संवाद स्थापित किया जाय। लेकिन होता यह कि हमारे ही पास समय  नहीं होता और सौन्दर्य को देखने वाली आँखें उपयोगिता की परिभाषा में ही हर चीज को बाँधने - साधने की अभ्यस्त -सी हो जाती है।आज इन तस्वीरों को देखकर कुछ यूँ ही कविता जैसा लिख भी दिया है। अब जो भी है...आइए  मिल कर देखें...



सूरज ने बाँट दी अपनी गरमाई
दो फूल खिले एक कली मुसकाई



प्रकृति सजाती  है अनुपम उपहार
हम हैं क्या सचमुच इसके हकदार!



कूड़े -कबाड़ में है तितली का वास
हम हैं क्या कर रहे अपने आसपास!



पीपल के पात पर ठहरा है पानी
क्या-क्या कहानियाँ रचे प्रकृति रानी!



धूप में विहँस रहा है नन्हा सितारा
हम सहेजें सुन्दरता काम यह हमारा!

बुधवार, 17 नवंबर 2010

इसी में डूबकर कह उठता हूँ: 'मुझे चाँद चाहिए'

** यह जानकर प्रसन्नता है कि मेरे लिखे - पढ़े - कहे को पसंद किया  गया है। इस पोस्ट को ( और 'कर्मनाशा' की परिचयात्मक टिप्पणी व कविता को भी)  अब अर्चना चावजी के सधे स्वर में सुना जा सकता है। बहुत - बहुत आभार, धन्यवाद..अर्चना जी ! साथ ही हिन्दी ब्लॉग की बनती हुई दुनिया में अध्ययन  और अभिव्यक्ति की साझेदारी की दिशा के एक लघु प्रयास के रूप में जारी इस ठिकाने के सभी विजिटर्स को शुक्रिया ! !




आज और अभी इस रात में 'रात' के सिलसिले की कुछ अपनी - सी बातें,  कुछ खोए हुए -से सामान की  तलाश, कुछ संवाद - एकालाप या  कि शब्द पाखियों की उड़ान , कुछ कवितायें... अब जो भी समझा जाय। आइए ,देखें..पढ़े..साथ चलें ..कुछ आगे बढ़े....

                                                                
                                                                एक  रात : तीन बात


रात : ०१

यह रात है
रात : एक शब्द...
'र' पर 'आ' की मात्रा और 'त'
शब्दकोशों में मिल जायेंगे
इसके तमाम पर्याय व विपर्यय।

अगर चाहें
तो बहुत सपाट तरीके से
इसे कहा जा सकता है
दिवस का अवसान
या फिर संध्या का व्यतीत।

यह रात है:
तम
तमस
अंधकार...
अथवा रोशनी के प्रयत्न का एक प्रमाण।

रात : ०२

यह रात है:
एक काली स्लेट
इसी पर लिखी जानी है
रोशनी की तहरीर।

यह रात है:
नींद
स्वप्न
जागरण
और..
सुबह की उम्मीद।

रात : ०३

यह रात है:
इसी में दिखता है
कभी आधा
कभी पूरा
और कभी अदृश्य होता हुआ चाँद।

यह रात है:
इसी में डूबकर कह उठता हूँ:
'मुझे चाँद चाहिए'
और सहसा
क्षितिज पर उदित हो आता है
तुम्हारा चेहरा।

बुधवार, 10 नवंबर 2010

कम नहीं होता है कुरुपताओं का कारोबार

अक्सर ऐसा होता है कुछ पढ़ते - पढ़ते लिखने का मन हो आता है। और जब तक लिख न लिया जाय तब तक लगता है कि अपना कुछ सामान कहीं कहीं खोया हुआ है। लिखने के बाद (भी) लगता है कि जो कुछ सोचा , महसूस किया ( था) उसे रूपायित करने में कितना संकोच  बरत गई भाषा।एक बार फिर आज कुछ शब्द , जिनमें अपने सोचने व होने का अक्स देखा जा सकता है।आइए देखते हैं...


धीरे - धीरे : ०१

धीरे - धीरे आती है शाम
धीरे - धीरे उतरता है सूरज का तेज।

धीरे - धीरे घिरता है अँधियारा
धीरे - धीरे आती है रात।

धीरे - धीरे लौटते हैं विहग बसेरों की ओर
धीरे - धीरे नभ होता है रक्ताभ।

धीरे - धीरे कसमसाती है कविता की काया
धीरे - धीरे सबकुछ होता जाता है गद्य।

धीरे - धीरे
देखती रहती हैं आँखें सुन्दर दृश्य।

फिर भी
कम नहीं होता है कुरुपताओं का कारोबार
धीरे - धीरे ..!

--------

धीरे - धीरे : ०२


एक रहस्य है
जो खुल रहा है धीरे - धीरे।

एक गाँठ है
जो कस रही है खुलते - खुलते।

एक छाया है
जिसमें पाते हैं हम तीव्र तपन।।

एक नाम है
जिसे कहना जादू हो जाना है।

एक रूप है
जिसमें दिखता है सारे संसार का  अक्स।

एक धैर्य है
जिससे प्रेरणा पाते हैं धरती और आकाश
एक धैर्य है
जो उफनने से रोके हुए है सात समुद्रों को..

वही , हाँ वही
तुम्हारी उपस्थिति के सानिध्य में
टूट रहा  है
धीरे - धीरे !

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

एस.एम.एस बन जाते हैं कँवल

इस समय आधी से अधिक गुजर चुकी रात। रोज की तरह खुद से कहने जा रहा हूँ कि 'चलो अब सो जाओ रे भाई'... क्योंकि सुबह काम पर जाना है। कामकाज के बीच खुद से बतियाना अक्सर कम ही हो पाता है।आज अभी कुछ देर पहले खुद से एक संवाद हुआ है। यह कविता के फार्म में ग़ज़ल भी हो सकती है और नहीं भी क्योंकि 'कवित विवेक एक नहिं मोरे' ..खैर..




आत्म संवाद

चल अकेला, बस यूं ही चलता चल।
बदलना चाहता नहीं , मत बदल।

माना कि आज थोड़ी मुश्किल है,
देखना कल होगी, कुछ राह सहल।

नेमतें लाई है यह बारिश की झड़ी,
डूब जायेंगे सभी सहरा - दलदल।

उसको देखा तो छाँव - सा पाया,
वर्ना छाई थी तेज धूप मुसलसल।

जब भी बजता है मेरा मोबाइल,
एस.एम.एस बन जाते हैं कँवल।

खुद को हलकान किए रहता हूँ,
आओ कुछ बात करें पल - दो पल।

रविवार, 7 नवंबर 2010

मन में मोद भरा है फिर भी !

दीवाली,दीपावली,ज्योति पर्व, प्रकाशोत्सव..जो भी कहें अब तो बीत गया। घरों पर बिजली की कृपा से जगमग - जगमग करने वाले लट्टुओं - झालरों - लड़ियों की पाँत अभी उतरी नहीं है। जगह - जगह बिखरे जल - बुझ चुके दीये, मोमबत्तियों की पिघलन और अपनी आभा व आवाज लुटा चुके पटाखों के खुक्खल दीख रहे हैं।अन्न्कूट- गोवर्धन पूजा भी हो ली। आज भाई दूज है। कुछ ही दिनों के बाद छ्ठ पर्व है। उत्सव अभी जारी है। सर्दी अपना रंग दिखने लगी है। ओस और शीत ने भी अपनी नर्म तथा नम उपस्थिति से  मौसम के बदलाव को इंगित करना शुरू कर दिया है। खेत- खलिहानों से होता हुआ नवान्न जिह्वा तक आ चुका है। ऐसे परिवर्नतशील पलों   को महसूस करते हुए  अभी कुछ दिन पहले ही कुछ लिखा है। इसे कविता , गीत , नवगीत कुछ भी कहा जा सकता है। आइए आज , अभी इसे साझा करते हैं :


बीता क्वार शरद ऋतु   आई

बीता क्वार शरद ऋतु  आई।
कार्तिक मास करे पहुनाई।

भंग हुआ आतप का व्रत-तप
बरखा रानी हुईं अलोप
तुहिन कणों से आर्द्र अवनि पर
नहीं रहा मौसम का कोप

पंकहीन मग पर पग धरती
सर्दी करने लगी ढिठाई।
बीत क्वार शरद  ऋतु  आई।

खेतों में अब राज रही है 
नये अन्न की गंध निराली
गुड़ भी आया  नया नवेला
सोंधी हुई चाय की प्याली

दिन हैं छोटे रातें लम्बी
भली लगे दिन की गरमाई।
बीता क्वार शरद ऋतु आई।

राग रंग उत्सव पूजा में
डूब रही है  दुनिया सारी
त्योहारों का मौसम आया
बाजारों में भीड़ है भारी

मन में मोद भरा है फिर भी 
डाह रही डायन मँहगाई।
बीता क्वार शरद ऋतु आई।
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* चित्र : पुनीता  मंदालिया की कलाकृति - 'डांडिया रास'

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

घात लगाए बैठा है अंधकार का तेंदुआ खूंखार







उजास
(एक कविता : एक आस)

हर ओर एक गह्वर है
एक खोह
एक गुफा
जहाँ घात लगाए बैठा है
अंधकार का तेंदुआ खूंखार.
द्वार पर जलता है मिट्टी का दीपक एक.
जिसकी लौ को लीलने को
जीभ लपलपाती है हवा बारंबार.

बरसों - बरस से
चल रहा है यह खेल
तेंदुए के साथ खड़ी है
लगभग समूचे जंगल की फौज
और दिए का साथ दिए जाती है
कीट - पतंगों की टुकड़ी एक क्षीण
जीतेगा कौन ?
किसकी होगी हार ?

हमारे - तुम्हारे दिलों में
जिन्दा रहे उजास की आस
और आज का दिन बन जाए खास !

* 'कर्मनाशा'  के सभी  हमराहियों को दीवाली की मुबारकबाद !.