शनिवार, 17 नवंबर 2007

पहली पहली पाती : सुन मेरे बन्धु ,पढ़ मेरे साथी


कर्मनाशा में सभी का स्वागत है ।

एक अनजानी ,अनचीन्ही -सी नदी का नाम है। देश -दुनिया के नक्शे को खंगालने , थोडा जूम करने पर संभव है कि इसकी निशानदेही का कुछ अनुमान हो जाय लेकिन इसमें दिलचस्पी कोई ठोस वजह तो होनी चाहिए ! यह अपनी कर्मनाशा कोई बड़ी ,वृहद,विशालकाय नदी तो है नहीं , छोटी-पतली-कृशकाय,अपने आप में सिमटी हुई । इसके तट पर न कोई नगर है ,न मंदिर , न कोई मठ न ही अन्य कोई पुण्य स्थल जहां साल -दो साल में कोई मेला -कौतुक लगे । और तो और इसके आजू-बाजू कोई बड़ा कल-कारखाना भी नहीं जिससे निकलने वाला कूड़ा-कचरा इसके `सौन्दर्य ´ को बनाता-बिगाड़ता हो ।

तो कर्मनाशा में है क्या ?इसका जवाब बड़ा सीधा-सा है मामूली चीजों में आखिर होता क्या है ।उनका मामूली होना ही उन्हें खास बनाता है । ऐसा मेरा मानना है । अपने मानने न मानने को साझा करने की चाह है और यह ब्लाग उसी की एक राह है ।

बहुत सारे करम किए
कुछ छोटे ,कुछ बड़े ,कुछ आम,कुछ खास
बुन न सका लाज ढांपने भर को कपड़ा
कातता ही रह गया मन भर कपास ।


खूब सारी मिट्टी गोड़ी
खूब निराई खरपतवार
खूब छींटे किसिम -किसिम के बीज
पर उगा न एक भी बिरवा छतनार ।


फिर भी क्या सब अकारथ
सब बेकार ???