मंगलवार, 29 जून 2010

रोहतांग पर क्षण भर (से थोड़ा अधिक)


आज से बहुप्रतीक्षित रोहतांग टनल का निर्माण कार्य समारोहपूर्वक शुरू हो गया। यह सबसे लम्बी सुरंग होगी जो बनने जा रही है। लक्ष्य है कि २०१५ पर यह काम पूरा कर लिया जाएगा।आज टीवी पर इससे संबंधित समाचारों की धूम है। पिछले माह कुल्लू से  केलंग और वापसी की यात्रा के दौरन रोहतांग पर क्षण भर से थोड़ा अधिक समय ठहरने का अवसर मिला था। बार - बार मुझे अपनी उस पुस्तक की याद आ रही थी जिसे सफर पर निकलने की जल्दबाजी में भूल गया था। वह पुस्तक है कृष्णनाथ जी द्वारा लिखित  'स्पीति में बारिश' । लाहुल के मुख्यालय केलंग के  'होटल चन्द्रभागा' में बिश्राम और जनजातीय संग्रहालय में लिखत - पढत का काम करते हुए  बार -  बार यह पुस्तक याद आती रही। आज सुबह - सुबह कैलास चंद्र लोहनी जी का फोन आ गया कि टीवी पर रोहतांग टनल के समारोह की खबर आ रही है, देखो। ठीक उसी समय मैं अजेय की कवितायें उनके ब्लाग पर पढ़ रहा था। कुछ कवितायें लोहनी जी को भी फोन पर सुनाईं। उन्होंने भी कुल्लू, केलंग और रोहतांग को बहुत प्रेम से याद किया। कंप्यूटर बन्द किया और टीवी खोलकर बैठ गया। लगभग हर समाचार चैनल पर रोहतांग उपस्थित था। फिर अजेय को फोन किया। फिर रोहतांग हमारी बातचीत के भीतर पिघल कर बहता रहा। फिर टीवी। फिर कंप्यूटर। फिर कागजों के बीच कुछ  खोजबीन    , यूँ ही कुछ आड़ी - तिरछी रेखाओं का खेल। फिर तस्वीरॊं की उलट -पुलट। कुल मिलाकर कहना यह है कि आज दिन भर रोहतांग मन - मस्तिष्क में उमड़ घुमड़ करता रहा। अभी कुछ देर पहले कुछ तस्वीरें 'कबाड़ख़ाना' पर पेश की हैं। फिर भी बहुत कुछ है जो भीतर - ही भीतर अटका हुआ है।आज और अभी प्रस्तुत है एक तस्वीर और कविता जैसा कुछ - कुछ..





रोहतांग: ३

यहाँ हिम है
सतत तरल
बूँद- बूँद नदी
प्रकृति यहीं से उगाती है बादल।
यहीं से देखा जा सकता है
आँख भर कर आसमान
और यहीं से खुलती है
एक दूसरी दुनिया की राह
जिसे या तो किताबों में देखा है या फिर कविताओं में।

गया था वहाँ
पाला छूकर लौट आया
आश्चर्य से खदबदाता हुआ
कैमरे में कैद बर्फ़बारी
जिह्वा पर स्वाद
और हृदय में कविताओं की ऊष्मा लेकर।

आज अभी देख रहा हूँ
स्क्रीन पर उभरता हुआ दृश्य
हर - बार अलग - अलग जादू में लिप्त
टूट रही है पहाड़ॊं की नींद
ख़बरों - सूचनाओं के भरमार में
खोया हुआ - सा है मेरा कुछ सामान।

गुरुवार, 24 जून 2010

सखि हे ! कि पूछसि अनुभव मोय


* सखि हे ! कि पूछसि अनुभव मोय।
सोइ पिरीति अनुराग बखाइनते
तिले तिले नूतन होय॥
जनम अवधि हम रूप निहारल
नयन न तिरपत भेल।

* कुछ दिन पूर्व इसी ठिकाने पर महाकवि विद्यापति के एक सुप्रसिद्ध पद की पुनर्रचना प्रस्तुत की थी। इसी क्रम को एक बार और विस्तार देते हुए आज एक अन्य पद प्रस्तुत है। 'मैथिल कोकिल ' व 'अभिनव जयदेव' कहे जाने वाले रचनाकार की 'पदावली' का आकर्षण सैकड़ों वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद भी कम नहीं हुआ है और दुनिया भर की भाषाओं में उसके अनुवाद व उससे प्रेरित रचनायें प्रस्तुत होती रही हैं / होती रहेंगी। इनमे केवल राधा - माधव का प्रेम नहीं है अपि्तु यह हमारे अंतस में अवस्थित रागात्मकता को भारतीय साहित्य की सुदीर्घ परम्परा के साथ जोड़कर आज के 'कलित कोलाहल' वाले समय में भीतर की उजास व तरलता को बचाए रखने का एक उपक्रम भी है और हाँ , साहित्य / कविता के कालजयी होने का सबूत तो वह है ही साथ ही 'देसिल बयना' की मधुरता का परिचायक भी। तो आइए, आज देखते - पढ़ते हैं अपनी प्रिय पुस्तक 'विद्यापति' ( डा० शिवप्रसाद सिंह ) में संकलित पद संख्या : १०२ की काव्यात्मक पुनर्रचना :
*
सखि हे ! कि पूछसि अनुभव मोय
( महाकवि विद्यापति के पद की पुनर्रचना )

हे सखी !
क्या पूछती हो मेरे अनुभव का मर्म ?

शताब्दियों से जारी है
प्रीति और अनुराग का बखान
फिर भी नित्य हर पल होता जाता है
इस सरणि में नूतनता का समावेश !

आजन्म निहारते रहे हम रूप
तब भी नयनों को नहीं मिल सकी तृप्ति
समूचा भुवन सुनता है उसके मधुर बोल
फिर भी श्रुतिपथ से
मिट न सका उसकी वाणी का स्पर्श !

न जाने कितनी रातों को
गँवा दिया संयोग के आनन्द अंबुधि में
फिर भी समझ न आया
कि आखिर किसे कहा जाता है केलि !

लाख - लाख युगों तक
उसे हृदय में बसाए रक्खा
तब भी संभव न हुआ
प्राणों में शीतलता का किंचित संचार !

जैसे - जैसे करते रहे हम
रसिक जनों की बताई राह का अनुगमन
वैसे - वैसे ही होता रहा
अपने ही अनुभव की अर्थवत्ता पर सतत संदेह !

यह सब कह कर
दूर होता है कवि विद्यापति के मन का ताप
एक ही बात को
भले ही कहा जाय कितनी तरह से
फिर भी लगता है
जैसे पहली बार
लिया जा रहा है राधा माधव का नाम।

शनिवार, 19 जून 2010

के पतिआ लए जाएत रे मोरा प्रियतम पास

के पतिआ लए जाएत रे
मोरा प्रियतम पास
हिय नहिं सहए असह दुख रे
भेल साओन मास।
हिन्दी साहित्य की परिधि में आने वाली / पढ़ी - पढ़ाई जाने वाली विभिन्न बोलियों / उपभाषाओं और भाषाओं के क्लासिक साहित्य को पढ़ना हमेशा नया - सा पढ़ने जैसा लगता है। हर बार उसमें से कुछ नया - सा निकलता दीखता है और हर बार ऐसा लगता है कि कुछ तो है इन्हें कालजयी बनाए हुए है। मैथिल कोकिल और अभिनव जयदेव कहे जाने वाले विद्यापति की पदावली हमेशा से कविता के प्रेमियों के लिए आकर्षण का विषय रही है।इस बीच जब भी नया साहित्य पढ़ते - पढ़ते मन उचाट होने लगता है तो विद्यापति की साहित्य सरिता में स्नान करना बहुत भला लगता है। कई बार मन हुआ है कि विद्यापति को अपने तरीके से , अपने द्वारा बरती जाने वाली बोली बानी में री-राइट किया जाय। यह काम हाल ही शुरू किया है। यह अनुवाद नहीं है। पुनर्रचना है , एक तरह से पुनर्सृजन। एक कालजयी रचनाकार के प्रति अपने आदर और सम्मान का काव्यात्मक प्रकटीकरण जैसा एक छोटा - सा काम या ऐसा ही कुछ। आज अपनी प्रिय पुस्तक 'विद्यापति' ( डा० शिवप्रसाद सिंह ) में संकलित पद संख्या : ७९ पुनर्रचना की शक्ल में प्रस्तुत है :

के पतिआ लए जाएत रे मोरा प्रियतम पास
( महाकवि विद्यापति के पद की पुनर्रचना )

कोई है !
जो ले जाए यह पाती
प्रियतम के पास
मेरा हृदय सह नहीं पा रहा है
यह असह्य दु:ख
जबसे आया है सावन मास।

कठिन है
प्रिय विहीन इस भवन में
एकाकी वास
दूसरे का कष्ट किसे लगता है दारुण
संसार क्योंकर करे
मेरी बात का विश्वास।

मेरे मन का
हरण कर ले गए हरि
और अपना मन भी ले गए साथ
त्याग दिया गोकुल
हो गए मधुपुर वासी
हम बैठे ही रहे धरे हाथ पर हाथ।

कवि विद्यापति ने गाया यह गीत
और कहा -
धन्ये ! मत छोड़ो प्रियतम की आस
बस आने ही वाले हैं मनमीत
अब दूर नहीं है मिलन
देखो तो दौड़ता चला आ रहा है कार्तिक मास।
---------
( चित्र : राजा रवि वर्मा की कलाकृति - राधा माधव)

बुधवार, 16 जून 2010

उजला होता जा रहा है अधिक उज्जवल


वह कथा साहित्य की गंभीर अध्येता हैं। वह अंग्रेजी साहित्य की अध्यापक हैं। वह चित्रकार हैं। वह सामाजिक सरोकारों से सक्रिय जुड़ा़व रखने वाली कार्यकर्ता हैं। वह अनुवादक हैं। वह संपादक हैं। वह अमेरिका के आयोवा विश्वविद्यालय के अंतरराष्ट्रीय लेखन कार्यक्रम और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला की फेलो रह चुकी हैं। वह एक कवि हैं। वह दिल्ली में रहती हैं और उन्हें हिमालय से बहुत प्रेम है। सुकृता जी ( सुकृता पॉल कुमार ) का जन्म और पालन पोषण केन्या में हुआ है और पिछले कई दशकों से वह अपनी कविताओं के जरिए अपनी जड़ों की तलाश के क्रम में रत हैं। उनके चार कविता संग्रह Oscillations, Apurna, Folds of Silence और Without Margins प्रकाशित हो चुके हैं। हमारे समय की एक वरिष्ठ , सजग और प्रतिबद्ध रचनाकार का बड़प्पन है कि उन्होंने अपनी कविताओं के अनुवाद और हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया में उनकी प्रस्तुति हेतु अनुमति दी है। तो लीजिए प्रस्तुत हैं उनके चौथे संग्रह में संकलित दो कवितायें :


सुकृता की दो अंग्रेजी कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

***
01 . नीरवता को तोड़ते हुए

शब्द झरते हैं
सुमुखि के मुख से
बारिश की तरह

रेगिस्तानों पर।
*
अंतस में आड़ोलित
आँधियों और चक्रवातों के पश्चात

शब्द गिरते हैं
शिलाखंडों की तरह।
*
अटक गए हैं शब्द
जमी हुई
बर्फ़ की तरह

प्रेमियों के कंठ में।
*
विचारों में पिघलते हुए
मस्तिष्क में उतराते हुए

एकत्र हो रहे हैं शब्द
अनकहे वाक्यों में।

02. परिज्ञान

रोशनी के उस वृत्त के
ठीक मध्य में
उभर रहा है
अनुभवों की सरिता में
हाँफता -खीजता
मेरे जीवन का सच

इतना उजला
कि देख पाना मुमकिन नहीं मेरे वास्ते।

गड्ड मड्ड हो गए हैं सारे रंग
जिन्दगियाँ एक दूजे में सीझ रही हैं
उजला होता जा रहा है अधिक उज्ज्वल
और मैं
पहले से अधिक दृष्टिहीन।

शनिवार, 12 जून 2010

रोहतांग : अपने - अपने हिस्से का हिमालय


यात्रा की थकान व खुमारी के उतरने के बाद स्मृतियों के उतराने और उन्हें उलीचने -समेटने - सहेजने के क्रम में मोबाइल और कैमरे से ली गईं तस्वीरों को एडिट करने की जुगत के बीच आज दोपहर के आलस्य में कुछ लिखा गया है। पता नही ये कवितायें हैं या कवितानुमा ट्रेवेलाग की कोई पीठिका मात्र. अब जो भी है , जैसा भी है आपके समक्ष है . आइए देखें :

रोहतांग : ०१

यहाँ सब कुछ शुभ्र है
सब कुछ धवल
बीच में बह रही है
सड़कनुमा एक काली लकीर।

ऊपर दमक रहा है
ऊष्मा से उन्मत्त सूर्य
जिसके ताप से तरल होती जा रही है
हिमगिरि की सदियों पुरानी अचल देह।

सैलानियों के चेहरे पर
दर्प है ऊँचाई की नाप- जोख का
पसरा है
विकल बेसुध वैभव विलास।

मैं भ्रम में हूँ
या कोई जादू है जीता जागता
इस छोर से उस छोर तक
रचता हुआ अपना मायावी साम्राज्य.

रोहतांग : ०२

बर्फ़ की जमी हुई तह के पार्श्व में
सुलग रही है आग
स्वाद में रूपायित हो रहा है सौन्दर्य
भूने जा रहे हैं कोमल भुट्टे।

हवा में पसरी है
डीजल और पेट्रोल के धुयें की गंध
लगा हुआ है मीलों लम्बा जाम
आँखें थक गई हैं
ऐसे मौके पर कविता का क्या काम?

किसी के पास अवकाश नहीं
हर कोई आपाधापी में है
बटोरता हुआ
अपने - अपने हिस्से का हिम
अपने - अपने हिस्से का हिमालय.

गुरुवार, 10 जून 2010

यात्रा और उसके बाद


'कर्मनाशा' पर लगभग महीने भर बाद वापसी हो रही है. कल सत्रह दिनों की यात्रा के बाद विराम पाया और खूब जी भरकर सोया. २३ मई की सुबह घर से निकलना हुआ था और ९ जून को वापसी हुई.इस बीच लिखत - पढ़त के साथ खूब घुमक्कड़ी भी हुई. जहाँ एक ओर धूप और घाम के साथ लू के थपेड़े झेले वहीं बारिश और बर्फ़ के बीच भीगने का आनंद भी पाया.बैग में बरते हुए कपड़े हैं तो कई किताबें भी जिन पर कुछ लिखना है. काम बहुत है.धीरे - धीरे सहेजना है सब कुछ.आज और अभी तो बस कुछ छवियाँ जो अपने मोबाइल से खींची गई हैं :

                        

छुक -छुक चलती जाती रेल

शिखरों पर सूरज की आभा

एकान्त में डूबा केलंग

बुद्ध पूर्णिमा की झाँकी

बर्फ़बारी के बाद केलंग


फिर सुबह , फिर सूरज का जादू
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( यात्रा की कुछ छवियाँ यहाँ भी)