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मंगलवार, 29 जून 2010

रोहतांग पर क्षण भर (से थोड़ा अधिक)


आज से बहुप्रतीक्षित रोहतांग टनल का निर्माण कार्य समारोहपूर्वक शुरू हो गया। यह सबसे लम्बी सुरंग होगी जो बनने जा रही है। लक्ष्य है कि २०१५ पर यह काम पूरा कर लिया जाएगा।आज टीवी पर इससे संबंधित समाचारों की धूम है। पिछले माह कुल्लू से  केलंग और वापसी की यात्रा के दौरन रोहतांग पर क्षण भर से थोड़ा अधिक समय ठहरने का अवसर मिला था। बार - बार मुझे अपनी उस पुस्तक की याद आ रही थी जिसे सफर पर निकलने की जल्दबाजी में भूल गया था। वह पुस्तक है कृष्णनाथ जी द्वारा लिखित  'स्पीति में बारिश' । लाहुल के मुख्यालय केलंग के  'होटल चन्द्रभागा' में बिश्राम और जनजातीय संग्रहालय में लिखत - पढत का काम करते हुए  बार -  बार यह पुस्तक याद आती रही। आज सुबह - सुबह कैलास चंद्र लोहनी जी का फोन आ गया कि टीवी पर रोहतांग टनल के समारोह की खबर आ रही है, देखो। ठीक उसी समय मैं अजेय की कवितायें उनके ब्लाग पर पढ़ रहा था। कुछ कवितायें लोहनी जी को भी फोन पर सुनाईं। उन्होंने भी कुल्लू, केलंग और रोहतांग को बहुत प्रेम से याद किया। कंप्यूटर बन्द किया और टीवी खोलकर बैठ गया। लगभग हर समाचार चैनल पर रोहतांग उपस्थित था। फिर अजेय को फोन किया। फिर रोहतांग हमारी बातचीत के भीतर पिघल कर बहता रहा। फिर टीवी। फिर कंप्यूटर। फिर कागजों के बीच कुछ  खोजबीन    , यूँ ही कुछ आड़ी - तिरछी रेखाओं का खेल। फिर तस्वीरॊं की उलट -पुलट। कुल मिलाकर कहना यह है कि आज दिन भर रोहतांग मन - मस्तिष्क में उमड़ घुमड़ करता रहा। अभी कुछ देर पहले कुछ तस्वीरें 'कबाड़ख़ाना' पर पेश की हैं। फिर भी बहुत कुछ है जो भीतर - ही भीतर अटका हुआ है।आज और अभी प्रस्तुत है एक तस्वीर और कविता जैसा कुछ - कुछ..





रोहतांग: ३

यहाँ हिम है
सतत तरल
बूँद- बूँद नदी
प्रकृति यहीं से उगाती है बादल।
यहीं से देखा जा सकता है
आँख भर कर आसमान
और यहीं से खुलती है
एक दूसरी दुनिया की राह
जिसे या तो किताबों में देखा है या फिर कविताओं में।

गया था वहाँ
पाला छूकर लौट आया
आश्चर्य से खदबदाता हुआ
कैमरे में कैद बर्फ़बारी
जिह्वा पर स्वाद
और हृदय में कविताओं की ऊष्मा लेकर।

आज अभी देख रहा हूँ
स्क्रीन पर उभरता हुआ दृश्य
हर - बार अलग - अलग जादू में लिप्त
टूट रही है पहाड़ॊं की नींद
ख़बरों - सूचनाओं के भरमार में
खोया हुआ - सा है मेरा कुछ सामान।

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

धुँधुआती हुई आग के बीच से राग की ऊष्मा


आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी है.किसी समय यह हमारे लिए 'अट्टमी' या 'डोल धरना' हुआ करता था और एक दिन का नहीं पूरे सप्ताह भर का उत्सव हुआ करता था.भादों के महीने में जब बारिश की टिपिर - टिपिर झड़ी लगी होती थी तब यह आनंद का एक साप्ताहिक उत्सव हुआ करता था. पूरे टोले के घर - घर से रंग बिरंगी साड़ियाँ मांगकर तथा अपने गाँव-गिराँव व निकटवर्ती कस्बे में उपलब्ध सामग्री से झुलना सजाकर हम लोग अट्टमी मनाते थे. हर घर से चंदा होता था और आज की रात धनिया की पंजीरी के साथ आटे का चाँड़ा हुआ हलुआ प्रसाद के रूप में वितरित होता था. तब तक गाँव में बिजली नहीं आई थी इसलिए 'गेस' या पेट्रोमैक्स ( पंचलाइट ) के प्रकाश में यह सब संपन्न होता था. परंतु अब , आज के दिन मैं
यह सब क्यों याद कर रहा हूँ ?

नून तेल लकड़ी के जुगाड़ में अब उस भूगोल से दूर हूँ जहाँ का किस्सा ऊपर बयान किया गया है .अब तो बिजली है ( न हो तो छोटे - मोटे काम के लिए इनवर्टर बाबा की जय !), बिजली से चलने वाले उपकरण हैं, बिजली न हो तो लगता है कि ऊपर वाले का दिया हुआ - साँसों की गति पर चलायमान यह उपकरण भी मिस्त्री - मैकेनिक की माँग कर रहा है, अब कीचड़ - कादों भरी गलियों की जगह अपने आशियाने के सामने खुली पक्की सड़क है, हाट - बाजार में सामान अँटा -भरा पड़ा है , आज के दिन पास वाले मंदिर में खूब सजावट है, दिन भर के फलाहारादि के बाद अभी शाम को किचन में तरह- तरह के 'व्रती' पकवान की तैयारी चल रही है जिनकी सोंधी गंध नथुनों के रास्ते हृदय में प्रविष्ट हो रही है किन्तु मन का मृगछौना वहीं उसी जगह व उसी कालखंड में लौट जाना चाहता है जहाँ धनिये की पंजीरी की गमक और एक बड़े से कड़ाहे में बन रहे चाँड़े हुए आटे के हलुए की सुवास है.पर, ऐसा हो सकता है क्या? नहीं ! फिर भी , फिर क्यों ?

अपने तईं पहले त्योहार व उत्सव सार्वजनिक थे अब लगभग सब व्यक्तिगत हैं . क्या इसीलिए बार - बार स्मृतियों के गलियारे में डोलना पड़ता है? क्या इसीलिए अतीत की उज्जवलता को वर्तमान के तमस - पट पर सिनेमाई करतब की तरह अवतरित होते हुए देखना - निरखना पड़ता है ? कहीं पढ़ा था कि स्मृति इसीलिए स्मृति होती है कि वह वर्तमान से दूर होती है. आज दिन भर कुछ न कुछ पढ़ता रहा , पत्रिकाओं - किताबों का ढेर लगा है फिर भी बहुत कुछ अनपढ़ा - अनदेखा रह रह जाता है - फिर भी कहीं बाहर से लौटने पर बैग की जिप खोलते ही किताबें - पत्रिकायें क्यों झाँकने लगती हैं ? ऐसा नहीं है कि समय की रील को रिवाइंड करके एक टाइम मशीन बना ली जाय और व्यतीत में विचरण का निर्बाध आनंद लिया जाय , अगर ऐसा संभव है तो एक अदद टाइम मशीन भविष्य के भान के लिए भी होनी चाहिए. लगता है कि विकास के लिए कुछ न कुछ की बलि देनी ही पड़ती है. खैर , मन प्रान्तर में कहीं रागात्मकता की गूँज - अनूगूँज शेष है और देह व दिमाग काठ के नहीं हो गए हैं , आज के कठिन समय में यह कुछ कम तो नहीं !

आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी है और कल स्वाधीनता दिवस - १५ अगस्त. एक साथ दो - दो त्योहार ! ( और तीसरे दिन इतवार की छुट्टी ) ये दोनो ही त्योहार अतीत की तरफ खींच ले जाते हैं. १५ अगस्त के दिन याद आने लगता है गाँव का वह टुटहा प्राइमरी स्कूल जिसकी छत उड़ गई थी और महुए के पेड़ के नीचे क्लास लगा करती थी- बारिश हो तो छुट्टी. उन दिनों के स्कूल का १५ अगस्त यानि सादे कागज पर उकेरा गया और सरकंडे की डंडी में खोंसा गया तिरंगा , प्रभात फेरी , पीटी, लेजिम, खेलकूद, भाषण और ..लड्डू ..साथ ही पूरे दिन की छुट्टी..रेडियो पर देशभक्ति के गानों की बहार..अगर बारिश हो गई तो 'बारी' ( बगीचा ) में 'बरगत्ता' ( कबड्डी ) का खेल..

अब तो अपने आसपास सबकुछ लगभग इनडोर है- खेल भी और खेल की स्मृति भी. पर्व - त्योहार छुट्टी या अवकाश के पर्यायवाची - से हो गए हैं. त्योहारों का एक अर्थ शायद यह भी रह / हो गया है कि यादों की जुगाली कर ली जाय , नून तेल लकड़ी के जुगाड़ में जुते हुए देह और दिमाग को थोड़ी छुट्टी दी जाय , भीतर - बाहर की कलुषता व गर्द - गुबार को स्मृतियों के रूईदार फाहे से पोंछ दिया जाय , अपने आसपास की धुँधुआती हुई आग के बीच से राग की ऊष्मा को उलीचकर अंतस तक उतार लिया जाय ताकि कुछ भला - भला लगे !
रात अब गहरा रही है , बाहर बारिश है . सावन, अरे नहीं , सावन तो लगभग सूखा ही बीत गया. अब तो भादों है , कल रात से झड़ी लगी हुई है. बारिश के गिरने की आवाज अंदर कमरे तक आ रही है और मैं त्योहारों के बहाने बह आई तरावट को महसूस करते हुए , रत्ना बसु की आवाज में 'सावन झरी लागेला धिरे - धीरे ' सुनते हुए , कल की डाक में आई एक पत्रिका के पन्ने पलटते हुए सोने का उपक्रम करने जा रहा हूँ क्योंकि कल सुबह जल्दी जागना है -कल १५ अगस्त है स्वाधीनता दिवस.

तो , मित्रों ! आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी और कल स्वाधीनता दिवस - १५ अगस्त की बधाई !

अभी , इस क्षण ठीक से याद नहीं आ रहा है , यह किसकी कविता की पंक्ति है - ' अब सही जाती नहीं यह निर्दयी बरसात / खिड़की बन्द कर दो ' ! लेकिन क्या ईंट , गारे , सीमेंट, लोहा - लक्कड़ से बने मकान मे लगी काठ की शीशेदार खिड़कियों के बन्द कर देने से स्मृतियों की यह 'निर्दयी बरसात' थम जाएगी ? बाहर अब भी बारिश हो रही है - मद्धम, बाहर रोशनी कम है - मद्धम , मन में स्मृतियों का राग बज रहा है मद्धम - मद्धम !

बुधवार, 14 जनवरी 2009

'खिंचड़ी' पर खिचड़ी जैसा कुछ पँचमेल


आज खिचड़ी .. अरे नहीं 'खिंचड़ी' है. जी हाँ , भोजपुरी उच्चारण में खिचड़ी थोड़ी खिंच जाती है और खिंचड़ी हो जाती है. भले ही लोग इसे मकर संक्रांति , उत्तरायणी, पोंगल आदि नामों से जानते हों लेकिन हम तो बचपन से ही इसे खिंचडी ही बोलते - कहते आ रहे हैं. तमाम तरह की पढ़ाई - लिखाई करके डिग्रियाँ हासिल कर लेने व शहराती बोली - बानी, खानपान के बावजूद आज के त्योहार के लिए कोई दूसरा शब्द जिह्वा पर उतराता ही नहीं है. अगर कभी सायास किसी अन्य नाम को ले भी लें तो लगता है कि कहीं कुछ अटपटा - सा हुआ है. भाई एस. बी. सिह से शब्द उधार लेते हुए कहूँ तो दो दुनियाओं में जीने वाले हम लोग एक लुप्त होती हुई दुनिया के साथ जी रहे हैं. बीते हुए की ओर ताकना असललियत में एक विलोपित होते हुए संसार का सहयात्री बनने जैसा कुछ है.

आज खिंचड़ी के अवसर पर यह दुनिया उस दुनिया के शब्दों को तलाश रही है जो अपने वर्तमान की भाषा की देह से पुराने वस्त्रों की तरह उतर रहे हैं.आज ऐसे ही कुछ शब्दों से बतियाने का मन हो रहा है जो विलोपन की ओर अग्रसर हैं. क्षमा चाहूँगा कि यह बात मैं नितांत निजी स्तर पर एक सार्वजनिक माध्यम से कह रहा हूँ. यह मेरा अपना खुद का आकलन है - किसी समाजभाषाविद का नहीं. खैर...अब खिंचड़ी पर्व से जुड़े कुछ शब्दों की सूची बनाने का एक प्रयास - ढूँढ़ी, ढुंढा, तिलकुट, चाउर, फरुही, लावा, बतासा, आदी, बहँगी, नहान, सजाव दही, कहँतरी, अहरा, बोरसी, गोइंठा, कबिली, रहिला, लुग्गा, फींचल, कचारल, भरकल, झुराइल......

ऊपर दिए गये शब्दों की सूची लगातार बढ़ती चली जाएगी जो अंतत: एक ऐसे लोक की सैर पर ले जाएगी जहाँ पहुँचने का मन तो करता है क्योंकि वहीं अपनी जड़ें हैं किन्तु मन ही मन यह अनकहा भी कभी भला - सा और कभी प्रश्नवाचक -सा लगता है कि उस लोक से विलग - विरत -विमुख होना ही विकास है शायद ! अभी कुछ दिनों से अखबारों में खासकर अंग्रेजी के अखबारों में इस सीजन को 'फेस्टिव / फेस्टिवल सीजन' के रूप में पढ़- देख रहा हूं. अपनी जितनी भी - जैसी भी अक्ल है उसके हिसाब से तो त्योहरी सीजन नवरात्रि - दशहरा - दीपावली का होता था ; भला यह कैसा ? दिमाग पर जोर डालता हूँ तो पता चलता है कि ओह ! बड़ा दिन - बीतते साल का आखिरी सप्ताह - नववर्ष की पूर्व संध्या, पुराने व नए वर्ष की मध्यरात्रि , नए साल का पहला दिन, लोहड़ी - पोंगल - सकटचौथ - उत्तरायणी - मकर संक्रांति...और अपनी खिंचड़ी...ये सब त्योहार ही तो हैं - पर्व, उत्सव, फेस्टिवल...अब इन्हें कौन कैसे मनाता है यह सबका अलना - अपना तरीका है.

आज सुबह से खूब खाना- खिलाना हुआ.सबसे पहले बाथरूम के गीज़र -गंगा के गुनगुने जल में नहान, फिर चाउर ( चावल) छुआ गया जो कि कल दाल , कुछ आलू और कुछ पैसे मिलाकर मंदिर में पंडीजी को दान करने के लिए रख दिया गया है. नहान के बाद घर में बना तिल-खोये का एक लड्डू, छत पर धूप में अखबार बाँचते हुए फूलगोभी - आलू -कबिली ( मटर) की लटपटार तरकारी के साथ दू गो पूड़ी, दुपहरिया में दही - चूड़ा - गुड़ और शाम ढ़ले वह खास खिंचड़ी किसका सालभर से इंतजार रहता है. यह वह खिचड़ी नहीं होती है जो कि हमारे आम भारतीय व्यंजनों में सबसे आसान व तुच्छ मानी जाती है. जिस तरह जिउतिया (जीवपुत्रिका व्रत) को बनने वाली दाल रोज बनने वाली दालों से अलग और विशिष्ट होती है वैसे ही यह आज की खिंचड़ी. इसकी रेसिपी किसी और दिन .आज तो अपने घर में विराजती दुनिया की सबसे अच्छी कुक शैल के हाथ व हुनर बनी खिंचड़ी की तस्वीर ही परोस रहा हूँ जो कि मेरे उदर में उतर कर आलस्य उत्पन्न कर रही है साथ ही अपने सहकर्मी , दोस्त और हिन्दी के चर्चित युवा कवि शैलेय के नये संग्रह 'या' से 'खिचड़ी' शीर्षक यह कविता प्रस्तुत कर निद्रा देवी की शरण में जाना चाहता हूँ -

खिचड़ी / शैलेय

धीरे -धीरे पक रही है खिचड़ी

खिचड़ी
सस्ती भी पड़ती है - जल्दी भी पकती है
सबसे बड़ी बात
छोटी आँत की खराबी में बड़े काम आती है

न हों बीमार तो भी इसका स्वाद
डूबती तन्हाई या योद्धाओं बीच
बेलौस - बेदाग़ बरखुरदार है

ओझा भी गाते हैं
शनि हो या भूत - प्रेत
औघड़ खिचड़ी में शर्तिया उपाय है

खिचड़ी का भला हो
जो बुझते हुए चूल्हों की
जो दबे-घुटी आँच में भी
पक रही है
मंद -मंद

एक किले के दिन
पूरे हो रहे हैं

सोमवार, 17 नवंबर 2008

कौसानी में सुबह : दो शब्द चित्र

पिछले चार - पाँच दिन यात्रा और उत्सव में निवेश हुए - इन्हें 'व्यतीत' कहने का मन नहीं कर रहा है.सबको पता है कि आजकल बाजार मंदा चल रहा है - उतार की ओर. लेकिन इस निवेश में अभी तक कोई घाटा नहीं लग रहा है, सोच - समझ की माटी की उर्वरा तनिक उदित - सी हुई है.प्रकॄति के सुकुमार कवि कहे जाने वाले सुमित्रानंदन की जन्मस्थली कौसानी ( जिला - बागेश्वर , उत्तराखंड) में १४ , १५ और १६ नवम्बर २००८ को संपन्न 'पंत -शैलेश स्मॄति' नामक इस त्रिदिवसीय अयोजन में जो कुछ हुआ उसकी रपट जल्द ही यहाँ दिखाई देगी किन्तु मैंने इसी दौरान वहीं 'कौसानी में सुबह' शीर्षक से एक कविता लिखी जिसके पाँच हिस्से हैं. 'कर्मनाशा' के पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं इसके केवल दो टुकड़े -

१.

मुँह अंधेरे
कमरे से बाहर हूँ पंडाल में
यहीं , कल यहीं जारी था जलसा.
अभी तो -
सोया है मंच
माइक खामोश
कुर्सियां बेतरतीब - बेमकसद...
तुम्हारी याद से गुनगुना गया है शरीर.

उग रहा है
सूर्य के उगने का उजास
मंद पड़ता जा रहा है
बिजली के लट्टुओं का जादुई खेल
ठंड को क्यों दोष दूं
भले - से लग रहे हैं
उसके नर्म , नुकीले , नन्हें तीर !

२.

कैसे - कैसे
करिश्माई कारनामे
कर जाता है एक अकेला सूर्य....
किरणों ने कुरेद दिए हैं शिखर
बर्फ के बीच से
बिखर कर
आसमान की तलहटी में उतरा आई है बेहिसाब आग.

कवि होता तो कहता -
सोना - स्वर्ण - कंचन - हेम...
और भी न जाने कितने बहुमूल्य धातुई पर्याय
पर क्या करूं -
तुम्हारे एकान्त के
स्वर्ण - सरोवर में सद्यस्नात
मैं आदिम -अकिंचन...निस्पॄह..निश्शब्द..
क्या इसी तरह का
क्या ऐसा ही
रहस्यमय रोशनी का - सा होता है राग !

गुरुवार, 13 नवंबर 2008

'तर्ज़' का तवील तजकिरा ..और शहरे - लखनऊ में हिना बन गई ग़ज़ल



तारीख ठीक से याद नहीं , इतना जरूर याद है कि अक्टूबर या नवम्बर का महीना था. जगह और साल की याद अच्छी तरह से है - गुवाहाटी,१९९२. दशहरा - दुर्गापूजा की उत्सवधर्मिता के उल्लास का अवसान अभी नहीं हुआ था. मौसम के बही - खाते में सर्दियों के आमद की इंदराज दर्ज होने लगी लगी थी और मैं पूजा अवकाश के बाद पूर्वोत्तर के धुर पूरबी इलाके की यात्रा पर था. गुवाहाटी में एक दिन पड़ाव था. पलटन बाजार में यूं ही घूमते - फिरते एक म्यूजिक शाप में घुस गया था. नई जगहों पर, 'नए इलाके में' म्युजिक शाप और बुकशाप का दीख जाना कुछ ऐसा -सा लगता है मानो दुनिया -जहान के गोरखधंधे में सब कुछ लगभग ठीकठाक चल रहा है. अच्छी तरह पता है कि यह अहसास बेमानी है - यथास्थिति से एक तरह का पलायन फिर भी.. खैर, किस्सा - कोताह यह कि उस संगीतशाला से दो कैसेटें खरीदी थी -एक तो टीना टर्नर के अंग्रेजी गानों की और दूसरी हिन्दी -उर्दू सिनेमा की मौसिकी को नई ऊँचाइयां देने वाले नौशाद साहब की पेशकश 'तर्ज़'. यह १९९२ की बात है.तब से अब तक इसे कितनी बार सुना गया है - कोई गिनती नहीं. तब से अब तक ब्रह्मपुत्र में कितना पानी बह चुका है - कोई गिनती नहीं . तब से अब तक भाषा के सवाल को लेकर कितने उबाल आ चुके हैं / आते जा रहे हैं -उन्हें शायद गिना जा सकता है...

पता नहीं क्यों जब भी 'तर्ज़' की गज़लों को सुनता हूँ तो मुझे मेंहदी हसन साहब और शोभा गुर्टू की आवाज में भीगा हुआ गुवाहाटी शहर दिखाई देने लगता है.सराइघाट के पुल से गुजरती हुई रेलगाड़ियों की आवाजें ललित सेन के इशारों पर बजने वाले साजों- वाद्ययंत्रों से बरसने वाली आवाजों की हमकदम -सी लगने लगती हैं. स्मृति की परतों की सीवन शिथिल पड़ने लगती है और एक -एक कर विगत के विस्मयकारी पिटारे का जादू का 'इन्द्रजाल' रचने लगता है. ब्लूहिल ट्रेवेल्स के बस अड्डे की खिड़की पर लगी डा० भूपेन हजारिका की बड़ी -सी मुस्कुराती तस्वीर.. मन में गूँजने लगता है - हइया नां , हइया नां... बुकु होम -होम करे. इस इंसान की आवाज जितनी सुंदर है उससे कई गुना सुंदर इसकी मुसकान है - कुछ विशिष्ट , कु्छ बंकिम मानो कह रही हो कि मुझे सब पता है, रहस्य के हर रेशे को उधेड़कर दोबारा -तिबारा बुन सकता हूं मैं...'एक कली तो पत्तियाँ' . सचमुच हम सब एक कली की दो पत्तियाँ ही तो हैं - एक ही महावॄक्ष की अलग - अलग टहनियों पर पनपने -पलने वाली दो पत्तियाँ- आखिर कहाँ से, किस ओर से , कौन से चोर दरवाजे से आ गया यह अलगाव.. हिन्दी ,अरे नहीं - नही देवनागरी वर्णमाला का बिल्कुल पहला अक्षर - पहला ध्वनि प्रतीक ही तो है यह 'अ' जो उपसर्ग के रूप में जहाँ लग जाता है वहीं स्वीकार - सहकार नकार - इनकार में में बदल जाता है. वैसे कितना हल्का , कितना छोटा - सा है यह 'अ' . क्या हम इसे अलगा -विलगा कर 'अलगाव' को 'लगाव' में नहीं बदल सकते ?
बतर्ज 'तर्ज़' मैं जब चाहता हूँ स्मॄति के गलियारे में घूम आता हूँ. बिना टिकट -भाड़ा के , बिना घोड़ा-गाड़ी के चाय बागानों की गंध को नथुनों में भर कर 'ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे -धीरे' की दुनिया में विचरण लेता हूँ. क्या केवल इसीलिए कि इस कैसेट को गुवाहाटी के पलटन बजार की एक दुकान से खरीदा था .या कि पूर्वोत्तर में बिताए सात -आठ साल किताबों और संगीत के सहारे ही कट गए. सोचता हूँ अगर किताबें न होतीं ,संगीत न होता तो आज मैं किस तरह का आदमी होता ? शायद काठ का आदमी !

मित्रो. अगर आपने अभी तक के मेरे एकालाप - प्रलाप को झेल लिया है और 'कुछ आपबीती - कुछ जगबीती' की कदाचित नीरस कहन को अपनी दरियादिली और बड़प्पन से माफ कर दिया है तो यह नाचीज अभी तक जिस 'तर्ज़' का तवील तजकिरा छेड़े हुए हुए था उसी अलबम से गणेश बिहारी 'तर्ज़' के शानदार शब्द, नौशाद साहब के स्वर में 'तर्ज़' की परिचयात्मक भूमिका और उस्ताद मेंहदी हसन साहब की करिश्माई आवाज में उर्दू शायरी की सबसे लुभावनी, लोकरंजक, लोकप्रिय विधा 'ग़ज़ल' के वैविध्य , वैशिष्ट्य और वैचित्र्य का पठन और श्रवण भी अवश्य कर लीजिए -

दुनिया बनी तो हम्दो - सना बन गई ग़ज़ल.
उतरा जो नूर नूरे - खुदा बन गई ग़ज़ल.

गूँजा जो नाद ब्रह्म बनी रक्से मेह्रो- माह,
ज़र्रे जो थरथराए सदा बन गई गज़ल.

चमकी कहीं जो बर्क़ तो अहसास बन गई,
छाई कहीं घटा तो अदा बन गई ग़ज़ल.

आँधी चली तो कहर के साँचे में ढ़ल गई,
बादे - सबा चली तो नशा बन गई ग़ज़ल.

हैवां बने तो भूख बनी बेबसी बनी,
इंसां बने तो जज्बे वफा बन गई ग़ज़ल.

उठ्ठा जो दर्दे - इश्क तो अश्कों में ढ़ल गई,
बेचैनियां बढ़ीं तो दुआ बन गई ग़ज़ल.

जाहिद ने पी तो जामे - पनाह बन के रह गई,
रिन्दों ने पी तो जामे - बक़ा बन गई ग़ज़ल.

अर्जे दक़न में जान तो देहली में दिल बनी,
और शहरे - लखनऊ में हिना बन गई ग़ज़ल.

दोहे -रुबाई -नज़्म सभी 'तर्ज़' थे मगर,
अखलाके - शायरी का खुदा बन गई ग़ज़ल.

स्वर - मेंहदी हसन
शब्द - गणेश बिहारी 'तर्ज़'
संगीत - ललित सेन




( 'तर्ज़' से ही शोभा गुर्टू जी के स्वर में एक ग़ज़ल किसी और दिन .आज बस इतना ही.आभारी हूँ कि आपने इस प्रस्तुति को पढ़ा -सुना, वैसे इसमें मेरा योगदान है ही क्या ? )

शुक्रवार, 7 नवंबर 2008

एक उन्मन - उदास त्रिवेणी








चाँद ने क्या - क्या मंजिल कर ली , निकला ,चमका डूब गया,
हम जो आँख झपक लें , सो लें, ऐ दिल हमको रात कहाँ !


- इब्ने इंशा


............................


बेघर बे - पहचान
दो राहियों का
नत - शीश न देखना - पूछना ।
शाल की पंक्तियों वाली
निचाट -सी राह में
घूमना , घूमना , घूमना ।


-नामवर सिंह


....................


कई बार यूँ ही देखा है
ये जो मन की सीमारेखा है.......



गायक - मुकेश
संगीतकार - सलिल चौधरी
गीतकार -योगेश
फ़िल्म- रजनीगंधा

सोमवार, 3 नवंबर 2008

कल याद का अब्र उमड़ा था और बरसा भी


याद का अब्र है उमड़ेगा बरस जाएगा.

वक्त के गर्द को धो-पोंछ के रख जाएगा.

कल एक संयोग के चलते पूरा दिन अपने विश्वविद्यालय में बिताने का मौका मिला. हाँ, उसी जगह जिस जगह अपने दस बरस (मैं केवल वसंत नहीं कहूंगा ,इसमें पतझड़ से लेकर सारे मौसम शामिल हैं) बीते और आज भी स्मॄति का एक बड़ा हिस्सा वहां की यादों से आपूरित - आच्छादित है. यह कोई नई और विलक्षण बात नहीं है. अपनी - अपनी मातॄ संस्थाओं में पहुंचकर सभी को अच्छा -सा , भला-सा लगता होगा. कल हालांकि इतवार था और सब कुछ लगभग बन्द-सा ही था. केवल खुला था तो प्रकॄति का विस्तार और गुजिश्ता पलों का अंबार.मौसम साफ था,धूप खिली हुई थी और नैनीताल के पूरे वजूद पर चढ़ती - बढ़ती हुई सर्दियों की खुनक खुशगवार लग रही थी. दुनियादारी के गोरखधंधे से लुप्तप्राय - सुप्तप्राय मेरे भीतर के 'परिन्दे' इधर से उधर फुदक रहे थे और मन का मॄगशावक कुलांचे भरने में मशगूल था. बहुत सारी बातें /किस्से / 'कहानियां याद-सी आके रह गईं.' -


मन की सोई झील में कोई लहर लेगी जनम ,

छोटा -सा पत्थर उछालें अजनबी के नाम.


जब कयामत आएगी तो मैं बचाना चाहूंगा,

उसकी खुशबू,उसके किस्से,उस परी के नाम.


तब 'वे दिन' बहुत छोटे -छोटे थे और अपने पास बातें बहुत बड़ी -बड़ी थीं. कितनी-कितनी व्यस्तता हुआ करती थी उन दिनों .सुबह पहने जूतों के तस्में रात घिरने पर होस्टल लौटकर ही खुलते थे. कभी यह काम तो कभी वह - और आलम यह कि सब कुछ हो रहा है बस पढ़ाई-लिखाई भी परंतु थीसिस लिखने के काम पर अघोषित विराम -सा लगा है - बहुत कठिन है डगर पी-एच०डी० की. उस वक्त लगता था कि अगर आसपास , इर्द-गिर्द कुछ रंगीन , रेशमी - रेशमी,रूई के फाहे जैसा है तो कुछ ऐसा भी है जिसके रंग बदरंग हो चले हैं , रोयें - रेशे उधड़ रहे हैं और ऐसी 'झीनी -झीनी बीनी चदरिया' को 'मुनासिब कार्रवाई' के जरिए तत्काल एक कामयाब रफूगरी और तुरपाई की सख्त दरकार है-


जबकि और भी बहुत कुछ है

अपने इर्दगिर्द - अपने आसपास

कुछ सूखा

कुछ मुरझाया

कुछ टूटा

कुछ उदास !



खैर, कल याद का अब्र उमड़ा था और बरसा भी और याद आता रहा यह गीत. आप सुनिए -हिन्दी रवीन्द्र संगीत के अलबम 'तुम कैसे ऐसा गीत गाते चलते' से 'वो दिन सुहाना फूल डोर बंधे...' स्वर है सुरेश वाड़कर और ऊषा मंगेशकर का.



बुधवार, 12 दिसंबर 2007

शुक्र है स्मृतियों पर नहीं जमी है बर्फ

सर्दियों में शहर
(एक दो दिन हुये जब से समाचारों में सुना-पढा-देखा है कि नैनीताल में मौसम का पहला हिमपात हुआ है तब से मन में कुछ्कुछ हो रहा है.वहां की ठंडक अपनी हथेलियों पर नहीं बल्कि ह्रिदय में मह्सूस कर रहा हूं.शायद लगभग पूरा शहर सफेदी की चादर में लिपट कर सो रहा होगा.वैसे कोई भी मौसम हो यह प्रायः शहर ऊंघता-अनमना सा ही रह्ता है. आज से कई बरस पहले सम्भवतः १९८६-८७ में ऐसी ही किसी ठन्डी रात के गुनगुने एकान्त संगीत के साथ यह कविता लिखी थी.पूरा तो याद नहीं लेकिन इतना जरूर याद है कि रात थी,कंपकंपा देने वाली सर्दी थी,बर्फ गिर रही थी और मैं कविता जैसा कुछ लिख रहा था.प्रस्तुत है वही ठन्ड वाली कविता.)

शहर में सर्दियों का मौसम है
हवा में नमी है

धूप में खुशनुमा उदासी है
अभी बस अभी बर्फ गिरने ही वाली है
और शहर चुपचाप सो रहा है।


सो रही है झील
सो रहे हैं पहाड़.
मेरा शहर जागती आंखों में सो रहा है.
शहर की आंखों में एक नींद है
जो जाग रही है
शहर की आंखों में एक सपना है
जो सो रहा है।


आजकल लगभग आधा शहर
हल्द्वानी की तरफ नीचे उतर गया है
बस बच गई है नींद
बच गये हैं सपने.

बच्चे घरों में कैद हैं
उनके स्कूल की युनिफार्म्
छत पर धूप में सूख रही है
और किताब-कापियों के बीच
छुट्टियों की बर्फ भर गई है
जो शायद फरवरी के बाद ही पिघलेगी।


औरतों का वक्त
अब चुप्पी को सुनते हुये गुजरता है
आश्चर्य है कि वे फिर भी जी रही हैं


मर्द लोगों के पास
बातें है,किस्सें है,किताबें हैं,शराब है
और वे अलाव की तरह सुलग रहे हैं

लड़कियां
अपनी कब्रगाहों में निश्शब्द दफ्न हैं
उनके पास देखने के लिये
ग्रीटिन्ग कार्डस और सपने हैं
उनके पास बोलने को बहुत कुछ है
लेकिन वे जाडों के बाद बोलेंगी।


सोने दो शहर को
वह लोरी और थपकियों के बिना भी
लम्बी-गहरी नींद सो सकता है
मेरा शहर कोई जिद्दी बच्चा नहीं है.