आज खिचड़ी .. अरे नहीं 'खिंचड़ी' है. जी हाँ , भोजपुरी उच्चारण में खिचड़ी थोड़ी खिंच जाती है और खिंचड़ी हो जाती है. भले ही लोग इसे मकर संक्रांति , उत्तरायणी, पोंगल आदि नामों से जानते हों लेकिन हम तो बचपन से ही इसे खिंचडी ही बोलते - कहते आ रहे हैं. तमाम तरह की पढ़ाई - लिखाई करके डिग्रियाँ हासिल कर लेने व शहराती बोली - बानी, खानपान के बावजूद आज के त्योहार के लिए कोई दूसरा शब्द जिह्वा पर उतराता ही नहीं है. अगर कभी सायास किसी अन्य नाम को ले भी लें तो लगता है कि कहीं कुछ अटपटा - सा हुआ है. भाई एस. बी. सिह से शब्द उधार लेते हुए कहूँ तो दो दुनियाओं में जीने वाले हम लोग एक लुप्त होती हुई दुनिया के साथ जी रहे हैं. बीते हुए की ओर ताकना असललियत में एक विलोपित होते हुए संसार का सहयात्री बनने जैसा कुछ है.
आज खिंचड़ी के अवसर पर यह दुनिया उस दुनिया के शब्दों को तलाश रही है जो अपने वर्तमान की भाषा की देह से पुराने वस्त्रों की तरह उतर रहे हैं.आज ऐसे ही कुछ शब्दों से बतियाने का मन हो रहा है जो विलोपन की ओर अग्रसर हैं. क्षमा चाहूँगा कि यह बात मैं नितांत निजी स्तर पर एक सार्वजनिक माध्यम से कह रहा हूँ. यह मेरा अपना खुद का आकलन है - किसी समाजभाषाविद का नहीं. खैर...अब खिंचड़ी पर्व से जुड़े कुछ शब्दों की सूची बनाने का एक प्रयास - ढूँढ़ी, ढुंढा, तिलकुट, चाउर, फरुही, लावा, बतासा, आदी, बहँगी, नहान, सजाव दही, कहँतरी, अहरा, बोरसी, गोइंठा, कबिली, रहिला, लुग्गा, फींचल, कचारल, भरकल, झुराइल......
ऊपर दिए गये शब्दों की सूची लगातार बढ़ती चली जाएगी जो अंतत: एक ऐसे लोक की सैर पर ले जाएगी जहाँ पहुँचने का मन तो करता है क्योंकि वहीं अपनी जड़ें हैं किन्तु मन ही मन यह अनकहा भी कभी भला - सा और कभी प्रश्नवाचक -सा लगता है कि उस लोक से विलग - विरत -विमुख होना ही विकास है शायद ! अभी कुछ दिनों से अखबारों में खासकर अंग्रेजी के अखबारों में इस सीजन को 'फेस्टिव / फेस्टिवल सीजन' के रूप में पढ़- देख रहा हूं. अपनी जितनी भी - जैसी भी अक्ल है उसके हिसाब से तो त्योहरी सीजन नवरात्रि - दशहरा - दीपावली का होता था ; भला यह कैसा ? दिमाग पर जोर डालता हूँ तो पता चलता है कि ओह ! बड़ा दिन - बीतते साल का आखिरी सप्ताह - नववर्ष की पूर्व संध्या, पुराने व नए वर्ष की मध्यरात्रि , नए साल का पहला दिन, लोहड़ी - पोंगल - सकटचौथ - उत्तरायणी - मकर संक्रांति...और अपनी खिंचड़ी...ये सब त्योहार ही तो हैं - पर्व, उत्सव, फेस्टिवल...अब इन्हें कौन कैसे मनाता है यह सबका अलना - अपना तरीका है.
आज सुबह से खूब खाना- खिलाना हुआ.सबसे पहले बाथरूम के गीज़र -गंगा के गुनगुने जल में नहान, फिर चाउर ( चावल) छुआ गया जो कि कल दाल , कुछ आलू और कुछ पैसे मिलाकर मंदिर में पंडीजी को दान करने के लिए रख दिया गया है. नहान के बाद घर में बना तिल-खोये का एक लड्डू, छत पर धूप में अखबार बाँचते हुए फूलगोभी - आलू -कबिली ( मटर) की लटपटार तरकारी के साथ दू गो पूड़ी, दुपहरिया में दही - चूड़ा - गुड़ और शाम ढ़ले वह खास खिंचड़ी किसका सालभर से इंतजार रहता है. यह वह खिचड़ी नहीं होती है जो कि हमारे आम भारतीय व्यंजनों में सबसे आसान व तुच्छ मानी जाती है. जिस तरह जिउतिया (जीवपुत्रिका व्रत) को बनने वाली दाल रोज बनने वाली दालों से अलग और विशिष्ट होती है वैसे ही यह आज की खिंचड़ी. इसकी रेसिपी किसी और दिन .आज तो अपने घर में विराजती दुनिया की सबसे अच्छी कुक शैल के हाथ व हुनर बनी खिंचड़ी की तस्वीर ही परोस रहा हूँ जो कि मेरे उदर में उतर कर आलस्य उत्पन्न कर रही है साथ ही अपने सहकर्मी , दोस्त और हिन्दी के चर्चित युवा कवि शैलेय के नये संग्रह 'या' से 'खिचड़ी' शीर्षक यह कविता प्रस्तुत कर निद्रा देवी की शरण में जाना चाहता हूँ -
खिचड़ी / शैलेय
धीरे -धीरे पक रही है खिचड़ी
खिचड़ी
सस्ती भी पड़ती है - जल्दी भी पकती है
सबसे बड़ी बात
छोटी आँत की खराबी में बड़े काम आती है
न हों बीमार तो भी इसका स्वाद
डूबती तन्हाई या योद्धाओं बीच
बेलौस - बेदाग़ बरखुरदार है
ओझा भी गाते हैं
शनि हो या भूत - प्रेत
औघड़ खिचड़ी में शर्तिया उपाय है
खिचड़ी का भला हो
जो बुझते हुए चूल्हों की
जो दबे-घुटी आँच में भी
पक रही है
मंद -मंद
एक किले के दिन
पूरे हो रहे हैं
आज खिंचड़ी के अवसर पर यह दुनिया उस दुनिया के शब्दों को तलाश रही है जो अपने वर्तमान की भाषा की देह से पुराने वस्त्रों की तरह उतर रहे हैं.आज ऐसे ही कुछ शब्दों से बतियाने का मन हो रहा है जो विलोपन की ओर अग्रसर हैं. क्षमा चाहूँगा कि यह बात मैं नितांत निजी स्तर पर एक सार्वजनिक माध्यम से कह रहा हूँ. यह मेरा अपना खुद का आकलन है - किसी समाजभाषाविद का नहीं. खैर...अब खिंचड़ी पर्व से जुड़े कुछ शब्दों की सूची बनाने का एक प्रयास - ढूँढ़ी, ढुंढा, तिलकुट, चाउर, फरुही, लावा, बतासा, आदी, बहँगी, नहान, सजाव दही, कहँतरी, अहरा, बोरसी, गोइंठा, कबिली, रहिला, लुग्गा, फींचल, कचारल, भरकल, झुराइल......
ऊपर दिए गये शब्दों की सूची लगातार बढ़ती चली जाएगी जो अंतत: एक ऐसे लोक की सैर पर ले जाएगी जहाँ पहुँचने का मन तो करता है क्योंकि वहीं अपनी जड़ें हैं किन्तु मन ही मन यह अनकहा भी कभी भला - सा और कभी प्रश्नवाचक -सा लगता है कि उस लोक से विलग - विरत -विमुख होना ही विकास है शायद ! अभी कुछ दिनों से अखबारों में खासकर अंग्रेजी के अखबारों में इस सीजन को 'फेस्टिव / फेस्टिवल सीजन' के रूप में पढ़- देख रहा हूं. अपनी जितनी भी - जैसी भी अक्ल है उसके हिसाब से तो त्योहरी सीजन नवरात्रि - दशहरा - दीपावली का होता था ; भला यह कैसा ? दिमाग पर जोर डालता हूँ तो पता चलता है कि ओह ! बड़ा दिन - बीतते साल का आखिरी सप्ताह - नववर्ष की पूर्व संध्या, पुराने व नए वर्ष की मध्यरात्रि , नए साल का पहला दिन, लोहड़ी - पोंगल - सकटचौथ - उत्तरायणी - मकर संक्रांति...और अपनी खिंचड़ी...ये सब त्योहार ही तो हैं - पर्व, उत्सव, फेस्टिवल...अब इन्हें कौन कैसे मनाता है यह सबका अलना - अपना तरीका है.
आज सुबह से खूब खाना- खिलाना हुआ.सबसे पहले बाथरूम के गीज़र -गंगा के गुनगुने जल में नहान, फिर चाउर ( चावल) छुआ गया जो कि कल दाल , कुछ आलू और कुछ पैसे मिलाकर मंदिर में पंडीजी को दान करने के लिए रख दिया गया है. नहान के बाद घर में बना तिल-खोये का एक लड्डू, छत पर धूप में अखबार बाँचते हुए फूलगोभी - आलू -कबिली ( मटर) की लटपटार तरकारी के साथ दू गो पूड़ी, दुपहरिया में दही - चूड़ा - गुड़ और शाम ढ़ले वह खास खिंचड़ी किसका सालभर से इंतजार रहता है. यह वह खिचड़ी नहीं होती है जो कि हमारे आम भारतीय व्यंजनों में सबसे आसान व तुच्छ मानी जाती है. जिस तरह जिउतिया (जीवपुत्रिका व्रत) को बनने वाली दाल रोज बनने वाली दालों से अलग और विशिष्ट होती है वैसे ही यह आज की खिंचड़ी. इसकी रेसिपी किसी और दिन .आज तो अपने घर में विराजती दुनिया की सबसे अच्छी कुक शैल के हाथ व हुनर बनी खिंचड़ी की तस्वीर ही परोस रहा हूँ जो कि मेरे उदर में उतर कर आलस्य उत्पन्न कर रही है साथ ही अपने सहकर्मी , दोस्त और हिन्दी के चर्चित युवा कवि शैलेय के नये संग्रह 'या' से 'खिचड़ी' शीर्षक यह कविता प्रस्तुत कर निद्रा देवी की शरण में जाना चाहता हूँ -
खिचड़ी / शैलेय
धीरे -धीरे पक रही है खिचड़ी
खिचड़ी
सस्ती भी पड़ती है - जल्दी भी पकती है
सबसे बड़ी बात
छोटी आँत की खराबी में बड़े काम आती है
न हों बीमार तो भी इसका स्वाद
डूबती तन्हाई या योद्धाओं बीच
बेलौस - बेदाग़ बरखुरदार है
ओझा भी गाते हैं
शनि हो या भूत - प्रेत
औघड़ खिचड़ी में शर्तिया उपाय है
खिचड़ी का भला हो
जो बुझते हुए चूल्हों की
जो दबे-घुटी आँच में भी
पक रही है
मंद -मंद
एक किले के दिन
पूरे हो रहे हैं
7 टिप्पणियां:
हाथ से छूटते एक संसार को पकड़े रहने का आपका हमारा एक अंतिम प्रयास है यह, आपकी 'खिंचड़ी' और हमारा 'काले कउआ' ! जानते हैं कि इसे पकड़े रहना न ही संभव है और न ही शायद प्रैक्टिकल । फिर भी पकड़े हुए हैं हम और छोड़ने को तैयार नहीं हैं। अगली पीढ़ी पकड़ने को तैयार नहीं है। देखिए क्या होता है इन त्योहारों का हश्र !
घुघूती बासूती
खिंचड़ी से पहिले त खा चिड़ी उड़ चिड़ी वाला खीसा याद आ गया, सुने हैं कि नहीं...फिर याद आया सकरात का खिंचड़ी, दही चू़ड़ा तिलकुल भकोसने के बाद सर्दी की दुपहरी में छीमी आउर कोबी वाली खिंचड़ी...कुछ खिंच रहा है दिल में...घिऊ डालके आहा आहा...
डॉ राही मासूम रज़ा के शब्दों में कहूं तो -
कल कुछ ऐसा हुआ मैं बहुत थक गया, इस लिए सुन के भी अनसुनी कर गया।
कितनी यादों के भटके हुए कारवां दिल के ज़ख्मों का दर खटखटाते रहे।
बहुत सारी यादों को ताज़ा कर गई आपकी पोस्ट। आपको सपरिवार खिंचड़ी की शुभकामनाएं।
खिचड़ी खाते खाते हमने आधा जीवन बिताया है बाबू साब! तो समल्लेवें अपना तो रोज़ ही त्यौहार जैसा रहा है. फ़िलहाल आपको इस त्यौहार की बधाईयां!
हमारा तो जन्म ही इसी दिन पड़ता है इसलिए दावत में भी यही खिचड़ी या खिंचड़ी खानी पड़ती है।:)
अच्छी पोस्ट, काले कौव्वा या उत्तरायणी के अवसर पर कुमाऊं में भी खिचङी बना कर खाने और दान करने की परंपरा है। खिचङी में भोजपुरी तङका लगा कर आपने आनंद ला दिया।
मनीष जी को जन्मदिन की शुभकामनाएं।
हमारा अतीत कितना ऊबड़-खाबड़ क्यों न रहा हो,हम उसमे एक संगति देखते हैं ।जीवन के तमाम अनुभव एक महीन धागे में बिंधे जान पड़ते हैं । यह धागा न हो,तो कहीं कोई सि्लसिला नही दिखाई देता...
aapki post padhkar Nirmal verma - "Antim aranya" ke ye ansh yaad aa gaye...
humtak ye silsiley jaari hain..aagey peedhi yaad rakhti hai , nahi..kya pataa...tiippani lambi ho gayi..maafi
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