अभी कुछ दिनों से मैंने 'कर्मनाशा' और 'कबाड़खाना' पर मिर्ज़ा ग़ालिब पर एक अघोषित सिलसिला -सा शुरु किया हुआ है. इसमें तमाम मित्रों की दॄष्य - अदॄश्य प्रेरणा व प्रोत्साहन की बहुत बड़ी भूमिका है. इधर बीच फायदा यह हुआ है कि इस कारण ग़ालिब को दोबारा पढ़ना -सा हो गया है -सुनना भी खूब - खूब ही हुआ है. ग़ालिब की गली से गुजरते हुए अपने एक पसंदीदा कवि की तीन कवितायें (ग़ालिब १ , ग़ालिब -२ और ग़ालिब -३) बार -बार याद आती रही हैं. मुझे नहीं मालूम कि ग़ालिब को समझने में ये कवितायें कितना कुछ मदद करती है फिर भी खुले मन और खुले मंच से यह स्वीकारने में कोई संकोच नहीं है कि यह वही अच्छा इंसान और अच्छा कवि है जिसने न केवल ग़ालिब वरन अन्यान्य नए - पुराने कवियों की की कविताओं के रेशे- रोयें-रूह से राब्ता कायम करने की समझ को राह दी है और यह काम मुसलसल अब भी जारी है. ' थोड़ा कहना - ज्यादा समझना' की सीख का पालन करते हुए इतना ही कहना है कि अशोक पांडे द्वारा रचित ( 'देखता हूँ सपने' संग्रह से साभार) इस कविता को ग़ालिब पर उल्लिखित सिलसिले की एक अगली कड़ी के रूप में ही पढ़ा - देखा जाय -
गा़लिब - २ / अशोक पांडे
तपता रहा मैं
- बेचैन और उदास
दिन भर ढूँढता रहा कोई मौका
कि दिल खोल बातें करता
उस लड़की से
मैं
जिस लड़की को
प्यार करता हूँ
रात -
अपने साथ
लेकर आई सपने
इस शहर में
कैसी है यह मजबूरी
कि
प्यार जैसी छोटी चीज भी यहाँ
इतनी बेबस
इतनी लाचार
रात
जब अपने साथ लेकर आई थी सपने
सिरहाने
जलता छूट गए टेबल लैम्प के नीचे
फड़फड़ाते थे
एक किताब के पन्ने
लगातार
रात
भर -
गा़लिब - २ / अशोक पांडे
तपता रहा मैं
- बेचैन और उदास
दिन भर ढूँढता रहा कोई मौका
कि दिल खोल बातें करता
उस लड़की से
मैं
जिस लड़की को
प्यार करता हूँ
रात -
अपने साथ
लेकर आई सपने
इस शहर में
कैसी है यह मजबूरी
कि
प्यार जैसी छोटी चीज भी यहाँ
इतनी बेबस
इतनी लाचार
रात
जब अपने साथ लेकर आई थी सपने
सिरहाने
जलता छूट गए टेबल लैम्प के नीचे
फड़फड़ाते थे
एक किताब के पन्ने
लगातार
रात
भर -
8 टिप्पणियां:
kya baat hai.. pahli panktiyan to jabardast lagi.. :)
कविता अच्छी लगी... क्यों अच्छी लगी, अभी समझना बाकी है.
चचा ग़ालिब का सिलसिला जारी रहे.
प्यार जैसी छोटी चीज भी यहाँ
इतनी बेबस
इतनी लाचार
regards
बहुत सुंदर...
बहुत उम्दा कविता पढवाने के लिए शुक्रिया।
क्या है यार सिद्धेश्वर बाबू! कूड़े को कविता कहते हो!
हीरे की कदर जौहरी ही जानता है पांडे जी।
प्यार जैसी छोटी चीज भी यहाँ
इतनी बेबस
इतनी लाचार
par....kyo...kyo...kyo..?
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