शुक्रवार, 27 मई 2011

अँधेरे में लाइटर की एक क्लिक : वेरा पावलोवा

वेरा पावलोवा ( जन्म : १९६३) समकालीन रूसी कविता की एक प्रमुख हस्ताक्षर हैं। उनसे हमारी जान - पहचान का माध्यम उनके पति स्टेवेन सेम्योर द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद 'इफ़ देयर इज समथिंग टु डिजायर : वन हंड्रेड पोएम्स'  है। वेरा की कवितायें  कलेवर में बहुत छोटी होती है। अभिव्वेयक्ति व संप्रेषण के स्तर पर  वे  बहुत बड़ी बातें  भी नहीं करतीं बल्कि  वे उन बेहद छोटी और मामूली  व नाचीज समझी जाने चीजों व स्थितियों की ओर संकेत करती हैं  जिनका होना हम सब प्राय: बिसरा देते हैं। उनकी कविताओं  में वैयक्तिकता , निजता, एकांतिकता के साथ  इसी समाज व दुनिया में देह व मन के बीच डोलती  एक स्त्री  के सोच - विचार की विविधवर्णी छवियाँ  है जो किसी भी कविता प्रेमी को अपनी ओर खींचने के लिए पर्याप्त हैं। खुशी  की बात है  कि हिन्दी की पाठक बिरादरी में वेरा पावलोवा की कविताओं से  कराए गए मेरे परिचय  को  गंभीरता से लिया गया है और  वे अब  लगातार हिन्दी में अनूदित होकर आ रही हैं। इसी क्रम में प्रस्तुत हैं  आज  उनकी चार कविताओं के अनुवाद....


वेरा पावलोवा की चार कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

१- तुला

एक पलड़े में खुशी
दूसरे में दु:ख
चूँकि
दु:ख का भार है अधिक
इसलिए
ऊपर उठती जा रही है खुशी।

०२- उड़ान

लुढ़का दी गई हूँ
और गिर रही हूँ
इतनी ऊँचाई से
कि पर्याप्त समय है
इसी दौरान
सीख जाउँगी
...उड़ना।

०३- सतह

सोच की सतह है शब्द
शब्द की सतह है भंगिमा
भंगिमा की सतह है त्वचा
और त्वचा की सतह सिहरन।

०४- अ- प्रेम

मुझे कोई आपत्ति नहीं
जो हो जाऊँ तुमसे दूर।

यह कोई समस्या नहीं
समस्या है यह :
तुम उठो सिग्रेट लेने की खातिर
और जब वापस आओ
तो अनुभव करो कि मैं हो गई हूँ वृद्ध।

हे ईश्वर, यह कितना लिजलिजा है
कितना क्रूर
कितना बड़ा मूकनाट्य !

अँधेरे में लाइटर की एक क्लिक
एक कश
और अचानक
मैं हो जाती हूँ प्रेम से विलग - व्यतीत।

बुधवार, 18 मई 2011

cruellest month और अमलतास का एक वृक्ष



अप्रेल को the cruellest month कहा जाता है लेकिन मैं प्राय:  इसमें थोड़ा संशोधन - विस्तार करने की छूट लेते हुए मई माह को भी जोड़ लेता हूँ क्योंकि साल के ये दो महीने मेरे लिए सचमुच cruellest से हो जाते हैं। ऐसा इसलिए नहीं कि इन महीनों में ग्रीष्म अपने चरम पर होता है - गर्मी ही गर्मी पसीना ही पसीना। आज सुबह का  अख़बार बता रहा है कि कल अपने गाँव - गिराँव -कस्बे का तापमान ४० डिग्री था। अप्रेल और मई मेरे लिए इसलिए cruellest  हो जाते हैं कि इस समय काम का बोझ सबसे अधिक होता है। अब काम है तो है, उसे करना ही होता है और आदत इतनी खराब हो गई है कि चलताऊ तरीके से कुछ करना रास नहीं आता है। घर से अपने कस्बे के कार्यस्थल तक पहुँचने व आने के रास्ते में गुलमुहर के कई पेड़ हैं जो इस समय लकदक हैं लाल - लाल। पेड़ों की इन्हीं कतारों के मध्य अमलतास का एक अकेला पेड़ है - मझोले कद का जो दिनोंदिन लघुकाय - कृषकाय होता जा रहा है और इस साल तो इस पर बहुत कम फूल आए हैं - इतने कम गुच्छे कि उन्हें आसानी  से गिना जा सकता है। अपना मन बावरा गुलमुहर को देखकर खुश होता है और अमलतास को देखकर उदास। दोपहर बाद चिलचिलाती धूप में जब घर लौटता हूँ तो अकेले अमलतास को देखकर  लगता है कि शायद  अगले साल यह रहे - न रहे ! 

अपना यह अमलतास इतनी गझिन छाँह भी नहीं देता कि उसके नीचे कोई पंथी जुड़ा सके , अपनी थकन मिटा सके और काम भर आक्सीजन पीकर , तरोताजा होकर बढ़ जाय अपनी मंजिल की तरफ। यह राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे खड़ा  अपनी प्रजाति का एक अकेला - इकलौता पेड़ है जो अहर्निश तेज रफ़्तार गाड़ियों को देखता रहता है ; अपनी जगह पर स्थिर। इसके उल्टी तरफ की पटरी पर वाणिज्य कर कार्यालय है और उसके पार्श्व में  चौपहिया वाहन बनाने - बेचने वाली एक नामी कंपनी का  नया - नया खुला शोरुम। दिन भर इन दोनों ठिकानों पर खूब आवाजाही रहती है मानो रोज का कोई छोटा- मोटा मेला। ऐसे रेले - मेले में अपना यह अमलतास  एक खोए हुए बच्चे की तरह लगता है। मन होता है कि उसका हालचाल पूछूँ , उसका मनबहलाव करूँ और यदि बाकी कुछ भी न भी करूँ तो कम से कम इतना तो कर ही लूँ कि अपने मोबाइल कैमरे से उसकी एक अदद तस्वीर ही उतार ले चलूँ किन्तु यह सोचकर रुक जाता हूँ कि देखने वाले क्या कहेंगे , क्या सोचेंगे। कहेंगे कि अजीब अहमक  है जो  भरी दुपहरिया में अपना आरामदेह वाहन रोककर लकलक करते गुलमुहर की फोटो खींचने की बजाय एक छीजते - खत्म होते अमलतास के अदने से लगभग पुष्पहीन पेड़ की फोटॊ खींच रहा है !

समय की अपनी चाल है ; दुनिया - जहान की अपनी। अगर यह अमलतास न भी रहे तो क्या फर्क पड़ जाएगा ? क्या घट जाएगा ? महाकवि कह गए हैं - 'ग़ालिबे खस्त: के बगैर कौन से काम बंद हैं'। महाकवि यहीं नहीं रुकते वे आगे कह गए हैं - 'कीजिए हाय- हाय क्यों रोइए जार - जार क्यों'। मैं न तो हाय - हाय कर रहा हूँ न ही जार - जार रो रहा हूँ। मैं तो बस उदास - सा हो जाता हूँ इस पेड़ को देखकर। यह पता है कि मेरे उदास होने से न तो समयचक्र रुक जाएगा , न ही दुनिया की गति थम जाएगी और न ही यह अमलतास इतिहास - अतीत की वस्तु बनने से बच जाएगा। यह भी भान है कि यह सब जो मैं सोच रहा हूँ वह एक निरर्थक उपक्रम है शायद ! क्या वास्विकता से मुँह चुराने का एक शरण्य है यह ? इसी बात को थोड़ा और विस्तार देकर कहूँ तो यह भी कहा जा सकता है निरर्थकता के उत्सव में जाया तो नहीं हो रहे हैं मेरे वे शब्द जो कहीं , किसी जरूरी और जायज मोर्चे पर सार्थक हस्तक्षेप भी कर सकते थे ?

समझदार लोग कहते हैं कि जिस संसार में हम जी रहे हैं उसमें गुलमुहर की जानिब देखने - ताकने का  कोई अवकाश नहीं है और न ही अमलतास से बोलने - बतियाने का मौका ही बचा है। ये सब पुराने खेवे के दस्तूर हैं। समय व संसृति के बड़े हिस्से ने इनसे दोस्ती करके देख लिया और अब वे अपने पर ही  झींक रहे है। यह नई - नई  दुनिया है। इसका सौन्दर्यबोध नया- नया है। इसके पटल पर जो उपयोगी है वही आवश्यक है। यह अलग बात है कि कविता , किस्सों - कहानियों में कुछ - कुछ  लिखा - पढ़ा जा सकता है जो रागात्मक हो , जो लिरिकल रिजोनेंस पैदा करता हो लेकिन वह आभासी हो, वह उत्पादकता में बाधक न बने। यह नई दुनिया का नया करतब है। संतुलन साधने का एक नया उपक्रम; ऐसा उपक्रम जो सफल होने की निरंतरता में क्रमभंग का कारण न बने।   

क्या करूँ , एक मन  बावरा वास करता है इस तन में जो  गुलमुहर की कतार को देखकर खुश होता है और अकेले अमलतास को देखकर उदास। ये गर्मियों के दिन हैं; धूप, घाम, उमस , पसीना और काम के आधिक्य से अवकाश को तरसने - तड़पने वाले दिन। पिछले सप्ताह इसी व्यस्तता में चार - पाँच दिन के लिए बाहर , बसेरे से दूर  जाना हुआ। तीन हजार से अधिक किलोमीटर की यात्रा कर के वहीं, उसी जगह  लौटने का उछाह था जिस जगह को घर कहते हैं। वापसी में पाँच घंटे लेट अपनी गाड़ी किसी कारणवश एक ऐसे छोटे से स्टेशन पर रुक गई जो उसका स्टापेज था ही नहीं।ट्रेन की कुंडली इस जगह का कोई 'घर' ही नहीं था। खिड़की से बाहर झाँका तो एक नई दुनिया सामने थी। एक नया संसार अपने पास बुला रहा था। प्लेटफार्म पर शान से खड़ा था एक मँझोले कद का अमलतास - फूलों से लदा एक भरापूरा पेड़। अमलतास, जिसे वानस्पतिक स्वर्ण पुष्प कहने का मन होता है। इसे देखकर अपने रोजमर्रा के रास्ते के छीजते अकेले , उदास अमलतास की याद हो आई। डिब्बे की कृत्रिम सुशीतल दुनिया से बाहर आकर धूप में उस लहलह करते अमलतास को अपने मोबाइल कैमरे में कैद कर लिया। क्षणांश में मनुष्य निर्मित एक छोटे से यंत्र की काया में एक समूचा  सचमुच का पेड़ समा गया।  

इस समय मध्यरात्रि है। नीरवता व्याप्त है। की-बोर्ड की हल्की खटपट भी साफ सुनाई दे रही है। कंप्यूटर के स्क्रीन पर अमलतास का एक खूबसूरत छतनार वृक्ष उग आया है। सोच रहा हूँ - प्रकृति भी क्या गजब है ; कहीं किसी चीज का खत्म होना वैसी ही किसी दूसरी चीज की शुरुआत होने की एक गतिशीलता है ; एक क्रम है, एक निरन्तरता। देखिए तो इसी पृथ्वी पर एक अमलतास का वृक्ष लगभग खत्म होने को है और इसी पृथ्वी पर एक दूसरा अमलतास यौवन की दीप्ति से उन्मत्त चिलचिलाती धूप, तपन और गर्मी को ठेंगा दिखा रहा है। लगता है कि नए सिरे से से सोचना पड़ेगा कि क्या अप्रेल और मई सचमुच मेरे लिए cruellest months हैं ?
   

रविवार, 15 मई 2011

मिलान कुंदेरा की किताब के 'सिक्स्टी -थ्री वर्डस'


मिलान कुंदेरा की किताब 'द आर्ट आफ़ द नावेल' में एक अध्याय है -'सिक्स्टी -थ्री वर्डस'।. यह एक कथाकार के निजी शब्दकोश जैसा है। इसमें शामिल किए गए तिरसठ शब्द वे शब्द हैं जो उसकी कथाकृतियों में प्राय: व्यवहृत होते रहे हैं या फिर इन्हें वे शब्द कहा जा सकता है जिनके माध्यम से कृति को समझा जा सकता है। दुनिया भर के तमाम शब्दकोशों के होते हुए इसकी जरूरत क्यों आन पड़ी? इस 'शब्दकोश' की भूमिका या पूर्वकथन में लेखक ने अनुवाद और अनुवादकों को लेकर कुछ दिलचस्प बातें कही हैं :

" १९६८ और ६९ में 'द जोक' का पश्चिम की सभी भाषाओं में अनुवाद हुआ। आश्चर्य तो तब हुआ जब फ्रांस के एक अनुवादक ने मेरी शैली की सजावट - बनावट करते हुए उपन्यास का पुनर्लेखन ही कर दिया। इंगलैंड में प्रकाशक ने बहुत से महत्वपूर्ण और जरूरी परिच्छेदों को उड़ा दिया और एक तरह से यह दोबारा लिख दिया गया। एक अन्य देश में मैं एक ऐसे अनुवादक से मिला जिसे चेक भाषा का एक भी शब्द नहीं आता था। जब मैंने यह पूछा - 'तो तुमने इसका अनुवाद कैसे किया?' क्या ही विलक्षण और मासूम उत्तर था उसका - 'दिल से' और उसने अपने बटुए से मेरी तस्वीर निकाल कर दिखला दी। वह व्यक्ति इतना प्रेमिल और सौहार्द्रपूर्ण था कि मुझे लगभग विश्वास करना पड़ा कि हृदय की टेलीपैथी या इसी तरह के किसी दूसरे उपाय से अनुवाद जैसा काम भी किया जा सकता है।"

कुंदेरा आगे बताते है कि इसी तरह और भी कई बातें हुईं और मुझे अपनी ही कृतियों के अनुवाद पढ़कर यह पता लगाना पड़ा कि अब वे वास्तव में कैसी हैं तथा उनकी काया में अब कितना मेरा लिखा / कहा हुआ विद्यमान है। यह एक तरह से जंगली भेड़ों के झुंड में से अपनी वाली भेड़ को खोज निकालने जैसा काम है। इस तरह के काम में गड़रिया तो परेशान होता है लेकिन दूसरे लोग खिल्ली उड़ाते हैं। आइए उन्हीं के शब्दों इस बात का अगला सिरा देखने की कोशिश करते हैं :

" मुझे आशंका है कि इस गड़रिए की 'हुनरमंदी' को देखते हुए मेरे मित्र और 'ला देबात' पत्रिका के यशस्वी संपादक पियरे नोरा ने बहुत उदार सलाह देते कहा कि - "देखो, कुछ समय के लिए तुम इस यंत्रणा को भूल जाओ और मेरे लिए भी लिखना फिलहाल मुल्तवी कर दो। इन अनुवादों ने तुम्हारे ऊपर एक तरह से यह दबाव बनाया है कि तुम अपने लिखे एक - एक शब्द के बारे में गंभीरता से सोचो। अपने लिए एक निजी शब्दकोश का निर्माण करो। अपने उपन्यासों के लिए शब्दकोश बनाओ। इसमें अपने बीज शब्दों, समस्यामूलक शब्दों और प्यारे शब्दों को स्थान दो। तो लीजिए ये रहे...."

मिलान कुंदेरा का यह शब्दकोश कोई आम शब्दकोश नहीं है। यह एक लेखक की संवेदना का संवहन - संचरण करने वाले माध्यम / प्रतीक की एक पड़ताल और परख है। इसमें शब्द तो हैं लेकिन परंपरागत अर्थों में अर्थ नहीं हैं। यह एक तरह से एक लेखक की उन चाभियों का गुच्छा है जिससे वह कथानक और चरित्रों की रहस्यमयी दुनिया के कपाटों पर लगे ताले खोलने का उपक्रम करता है। तो , आइए आज इन तिरसठ शब्दों में से चुने हुए केवल तीन शब्द और उनके बाबत लिखे गए अर्थों को देखते हैं:

०१- हैट ( Hat ) : जादुई वस्तु। मैं एक सपना याद करता हूँ : दसेक साल का एक लड़का काला हैट पहले तालाब में कूद जाता है। लोग उस डूबते हुए को बचाते हैं। हैट अब भी उसके सिर पर शोभायमान है।

०२- हैटस्टैंड ( Hatstand ) : जादुई वस्तु। 'द जोक ' में लुडविक को चिन्ता होती है कि कहीं हेलेना ने स्वयं को खत्म तो नहीं कर लिया है। इसी दौरान उसे एक हैटस्टैंड दिखाई दे जाता है। " तीन पैरों पर टिकी हुई धातु की एक राड और धतु की ही तीन शाखाओं में विभक्त। चूँकि उस पर कोट आदि नहीं टँगे रहते हैं अत: यह एक इंसान की तरह दिखाई देता है - अनाथ इंसान की तरह। यह धातुई नग्नता है ,फूहड़पन और उत्सुकता में बाँहे पसारे।" " समर्पण करने को तैयार एक दुर्बल सैनिक की तरह"। मैंने 'द जोक' के आवरण पर हैटस्टैंड लगाने की आलोचना की थी।

०३- अक्षर ( Letters ) : वे पुस्तकों में दिन - प्रतिदिन छोटे और लगातार छोटे होते जा रहे हैं। मैं शनै: - शनै: साहित्य की मृत्यु की कल्पना करता हूँ - किसी के संज्ञान में आए बगैर। टंकण सिकुड़ता जा रहा है जब तक कि वह अदृश्य न हो जाय।
***

मिलान कुंदेरा जब अपने शब्दकोश के निर्माण के लगभग बीचोबीच में थे तब उन्होंने उनचासवें स्थान पर एक एंट्री की है ; आक्तावियो। यह न तो बीज शब्द है , न समस्यामूलक शब्द बल्कि यह वैसा ही शब्द है जिसे भूमिका में 'प्यारे शब्द' कहा गया है। इस प्यारे शब्द और कुछ अन्य शब्दों के बारे में फिर कभी । चलते - चलते यह देख लेते हैं कि शब्द की सत्ता के बारे में कुंदेरा क्या कहते हैं :

If we cannot accept the importance of the world, which considers itself important, if in the midst of that world our laughter finds no echo, we have but one choice: to take the world as a whole and make it the object of our game; to turn it into a toy.

शुक्रवार, 13 मई 2011

प्रेम में पड़ना : निज़ार क़ब्बानी की दो कवितायें

I become ugly when I don't love
And I become ugly when I don't write.

निजार क़ब्बानी (21 मार्च 1923- 30 अप्रेल1998) न केवल सीरिया में बल्कि साहित्य के समूचे अरब जगत में प्रेम , ऐंद्रिकता , दैहिकता और इहलौकिकता के कवि माने जाते हैं| उन्होंने न केवल कविता के परम्परागत ढाँचे को तोड़ा है और उसे एक नया मुहावरा , नई भाषा और नई जमीन बख्शी है बल्कि ऐसे समय और समाज में जहाँ कविता में प्रेम को वायवी और रूमानी नजरिए देखने की एक लगभग आम सहमति और सुविधा हो वहाँ वह इसे हाड़ - मांस के स्त्री - पुरुष की निगाह से इसी पृथ्वी पर देखे जाने के हामी रहे हैं। इस वजह से उनकी प्रशंसा भी हुई है और आलोचना भी किन्तु इसमें कोई दो राय नहीं है कि उन्होंने अपनी कविता के बल पर बहुत लोकप्रियता हासिल की है. तमाम नामचीन गायकों ने उनके काव्य को वाणी दी है. साहित्यिक संस्कारों वाले एक व्यवसायी परिवार में जन्में निजार ने दमिश्क विश्वविद्यालय से विधि की उपाधि प्राप्त करने के बाद दुनिया के कई इलाकों में राजनयिक के रूप में अपनी सेवायें दीं जिनसे उनकी दृष्टि को व्यापकता मिली. उनके अंतरंग अनुभव जगत के निर्माण में स्त्रियों की एक खास भूमिका रही है । चाहे वह मन चाहे पुरुष से विवाह न कर पाने के कारण बहन विस्साल की आत्महत्या हो या बम धमाके में पत्नी की मौत.

Love me and say it out loud
I refuse that you love me mutely.

निजार कब्बानी की किताबों की एक लंबी सूची है. दुनिया की कई भाषाओं में उनके रचनाकर्म का अनुवाद हुआ है. उम्होंने अपनी पहली कविता तब लिखी जब वे सोलह साल के थे और इक्कीस बरस उम्र में उनका पहला कविता संग्रह प्रकाशित हुआ था। जिसने युवा वर्ग में खलबली मचा दी थी। दमिश्क की सड़कों पर विद्यार्थी उनकी कविताओं का सामूहिक पाठ करते देखे जाते थे। यह द्वितीय विश्वयुद्ध का समय था और दुनिया के साथ अरब जगत का के साहित्य का सार्वजनिक संसार एक नई शक्ल ले रहा था। ऐसे में निज़ार क़ब्बानी की कविताओं नें प्रेम और दैहिकता को मानवीय यथार्थ के दैनन्दिन व्यवहार के साथ जोड़ने की बात जो एक नई खिड़की के खुलने जैसा था और यही उनकी लोकप्रियता का कारण बना। यह एक तरह से परम्परा से मुक्ति थी और अपनी दुनिया को अपनी ही आँखों से देखने हिमायत। यहा प्रेम एक 'टैबू' नहीं था और न ही कोई गैरदुनियावी चीज। वे लिखते हैं 'मेरे परिवार में प्रेम उतनी ही स्वाभाविकता के साथ आता है जितनी स्वाभाविकता के साथ कि सेब में मिठास आती है।'


दो प्रेम कवितायें : निज़ार क़ब्बानी
( अनुवाद: सिद्धेश्वर सिंह )

०१ - विपर्यय

जब से पड़ा हूँ मैं प्रेम में
बदल - सा गया है
ऊपर वाले का साम्राज्य।

संध्या शयन करती है
मेरे कोट के भीतर
और पश्चिम दिशा से उदित होता है सूर्य।

०२ -अनुनय

दूर रहो
मेरे दृष्टिपथ से
ताकि मैं रंगों में कर सकूँ अन्तर।

दूर हो जाओ
मेरे हाथों की सीमा से
ताकि मैं जान सकूँ
इस ब्रह्मांड का वास्तविक रूपाकार
और खोज कर सकूँ
कि अपनी पृथ्वी है सचमुच गोलाकार।

रविवार, 1 मई 2011

कोई निदान नहीं है अकेलेपन का : वेरा पावलोवा

वेरा पावलोवा ( जन्म : १९६३ ) की कुछ कवितायें आप कुछ समय पहले 'कर्मनाशा' , 'कबाड़ख़ाना' व 'प्रतिभा की दुनिया' पन्नों पर पढ़ चुके हैं । उनकी कविताओं के मेरे द्वारा किए गए कुछ अनुवाद पत्र - पत्रिकाओं में भी आ रहे हैं । रूसी कविता की इस सशक्त हस्ताक्षर ने छोटी - छोटी बातों और नितान्त मामूली समझे जाने वाले जीवन प्रसंगों को बहुत ही लघु काव्य - कलेवर में उठाने - सहेजने व संप्रेषित करने की जो महारत हासिल की है वह आकर्षित करती है। वेरा का एक संक्षिप्त परिचय यहाँ है। आइए , आज बार फिर पढ़ते - देखते हैं उनकी दो ( और )कवितायें :


वेरा पावलोवा की दो कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )


०१- प्रेम - पथ

नींद में पड़ गई मैं प्यार में
और जागी आँसुओं से आर्द्र
इतना प्यार नहीं किया किसी को
न ही किसी और ने ही दिया इतना प्यार।

मेरी नींद में
इतना अवकाश नहीं था
कि चूम सकूँ उसे
पूछ सकूँ उसका नाम।

अब बीत रही हैं
अनिद्रा से पूरित अनेक रातें
जब मैं देखे जा रही हूँ उसके स्वप्न।

०२- अकेलापन

रतिजनित व्याधि की तरह है
यह अकेलापन
तुम रहो तुम
मैं रहूँ मैं

आओ साझा करें
कुछ विश्रांत क्षणों को
इधर - उधर की बतकही में
बिता डालें वक्त
और छोड़ दें
बहुत सारी चीजें अनकही।

आओ परिरंभन में निबद्ध हो जायें
और करे अनुभूति
कि कोई निदान नहीं है अकेलेपन का।
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(वेरा पावलोवा की कविताओं के कुछ और अनुवाद यहाँ और यहाँ भी)