शुक्रवार, 25 जुलाई 2008

सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है


गुम हो गई किताबों की याद बार-बार आती है। लगता है कि आज अगर वे होतीं तो उन्हें एक बार फ़िर पढा़ जाता। इसी बहाने यादें पुरानेपन के चोले से बाहर आकर उनकी उपस्थिति कुछ नया अहसास दे जातीं लेकिन वे तो गुम हो गईं अपने पीछे एक याद, कसक और टीस छो़ड़कर! मेरे निजी संग्रह में ऐसी ही एक किताब हुआ करती थी 'क्या कह कर पुकारूं'. यह सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की प्रेम कविताओं का एक संकलन था- पेपरबैक, कम दाम वाला लेकिन इसमें एक से बढ़कर एक उम्दा, बेशकीमती और 'असरदार' कवितायें थीं. असरदार इसलिये कह रहा हूं कि विद्यार्थी जीवन में नैनीताल के ब्रुकहिल छात्रावास के 'प्रेमी' भाई लोग इनमें से कुछ कविताओं ( जैसे 'नीली चिड़िया') को प्रेम निवेदन के नुस्खे के रूप में हमसे मांगकर आजमाया करते थे और अक्सर वह ( नुस्खा) कारगर होता देखा जाता था. इस बात को मजाक न समझा जाय , वे दिन सचमुच कविताप्रेमी प्रेमियों के थे .आज का क्या हाल है, यह तो पाठक ही बतायें. फ़िलहाल सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के उसी संग्रह 'क्या कह कर पुकारूं' से प्रस्तुत है एक कविता-'तुम्हारे साथ रहकर':

तुम्हारे साथ रहकर

तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है
कि दिशाएँ पास आ गयी हैं,
हर रास्ता छोटा हो गया है,
दुनिया सिमटकर
एक आँगन-सी बन गयी है
जो खचाखच भरा है,
कहीं भी एकान्त नहीं
न बाहर, न भीतर।

हर चीज़ का आकार घट गया है,
पेड़ इतने छोटे हो गये हैं
कि मैं उनके शीश पर हाथ रख
आशीष दे सकता हूँ,
आकाश छाती से टकराता है,
मैं जब चाहूँ बादलों में मुँह छिपा सकता हूँ।

तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे महसूस हुआ है
कि हर बात का एक मतलब होता है,
यहाँ तक की घास के हिलने का भी,
हवा का खिड़की से आने का,
और धूप का दीवार पर
चढ़कर चले जाने का।

तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे लगा है
कि हम असमर्थताओं से नहीं
सम्भावनाओं से घिरे हैं,
हर दीवार में द्वार बन सकता है
और हर द्वार से पूरा का पूरा
पहाड़ गुज़र सकता है।

शक्ति अगर सीमित है
तो हर चीज़ अशक्त भी है,
भुजाएँ अगर छोटी हैं,
तो सागर भी सिमटा हुआ है,
सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है,
जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है
वह नियति की नहीं मेरी है।

शुक्रवार, 18 जुलाई 2008

जवाहिर चा' का 'हथिया नक्षत्र' उर्फ़ मैं सही शब्दों को ग़लत दिशा में मोड़ रहा हूँ


कई बरस पहले यह कविता 'हथिया नक्षत्र' लिखी थी। छपाने के मामले में थोड़ा संकोची हूं, सो कहीं भेजने से कतराता रहा. एक नामी लेखक संगठन के प्रांतीय सम्मेलन के दौरान हुई गोष्ठी में जब पहली बार इसे पढ़ा तो एक एक मशहूर कवि ने सवाल किया था कि ' इसमें कविता जैसा क्या है? वे बड़े कवि थे उनकी बात मुझे सुननी ही थी. वे अपने आस्वाद और अनुभव से टिप्पणी कर रहे थे. इसकी उपज के पीछे मेरा अपना अनुभव था. बचपन की एक ऐसी छवि है जिसे याद कर आज भी सिहर जाता हूं. तीसरी या चौथी जमात में पढ़्ता रहा होऊंगा. सूखा पड़ा था. पानी के अभाव में धान की फ़सल सूख चली थी. पिता चोख- धारदार हंसुए से वह फ़सल काट रहे थे जिसमें बाली नहीं आ सकी थी और न ही आने के आसार थे. वह फ़सल हमारे 'धौरा' और 'मकना' बैलों तथा 'घरगैया' का चारा-निवाला बनने जा रही थी. मैंने पहली बार पिता की आंखों में आंसू देखे थे. मैने यह भी देखा था कि आसमान साफ़ था बादलों से हीन, बारिश से दूर किन्तु पिता की आंखों में बादल थे -बारिश से लबालब फ़िर भी वह वह 'मुआर' और मरणासन्न फ़सल का मसीहा बनने की कूव्वत नही रखते थे. तब मैं बच्चा था -नादान. कुछ समझ नहीं आया था. कई सालों बाद जब न तो सूखा था और न पिता ही रहे तब उस विगत क्षण को पकड़ पाने की कोशिश के वर्तमान में 'हथिया नक्षत्र' लिख सका था. जैसा भी लिख पाया.

कुछ साल बाद में मित्रों के आग्रह पर नैनीताल के नगरपालिका सभागार में हुई 'कविता की एक शाम' में इस कविता को दूसरी बार पढ़ा. लोगों ने पसंद किया. शुक्र है यहां कोई बड़ा कवि नहीं था. लेकिन यहां एक उदीयमान कवि जरूर मौजूद था जो आज का एक चर्चित -पुरस्कत कवि है. तब का वह किशोर कवि और आज का यह युवा कवि शिरीष कुमार मौर्य अगर मुझे 'जवाहिर चा' कहता है तो उस गोष्ठी की याद और इसी कविता की वजह से. खैर इस साल खूब-खूब बारिश हो रही है. तन-मन भीग रहा है. इस कविता से जुड़ी यादें भी मुझे लगातार भिगो रही हैं.यह कविता वेब पत्रिका 'अनुभूति' के 20. अगस्त 2005 के अंक छप चुकी है. 'अनुनाद' ब्लाग वाले प्यारे (भतीजे) शिरीष के साथ आप सबके लिए प्रस्तुत है- 'हथिया नक्षत्र'. अगर थोड़ी फ़ुरसत हो तो तो बतायें कि ' इसमें कविता जैसा क्या है?

जवाहिर चा' का 'हथिया नक्षत्र'

हथिया इस बार भी नहीं बरसा
टकटकी लगाए देखते रहे
खेतों के प्यासे-पपड़ाए होंठ।

मोतियाबिंद से धुँधलाई आँखों से
खाली-खाली आकाश ताक रहे हैं जवाहिर चा'
और बुदबुदा रहे हैं-
हथिया इस बार भी नहीं बरसा।
लगता है आसमान में कहीं अटक गया है
जैसे भटक जाते हैं गाँव के लड़के
दिल्ली, बंबई, कलकत्ता, जाकर।
-ये कयामत के आसार हैं मियाँ
बात में लग्गी लगाते हैं सुलेमान खाँ
हथया का न बरसना मामूली बात नहीं है जनाब!
अब तो गोया आसमान से बरसेगी आग
और धरती से सूख जाएगी हरियर दूब।

हथिया का न बरसना
सिर्फ़ जवाहिर चा'
और सुलेमान खाँ की चिंता नहीं है
हथिया का न बरसना
भूख के इतिहास की सबसे बड़ी घटना है।
जवाहिर चा और सुलेमान खाँ नहीं जानते हैं
कि हथिया एक नक्षत्र है
बाकी छब्बीस नक्षत्रों की तरह
जिनकी गणना
पंडित रामजी तिवारी की पोथियों में बंद है।
हथिया मनमौजी है
वह कोई बंदिश नहीं मानता
दुनिया के रंगबिरंगे नक्शे में
नहीं पहचानता है हिंदुस्तान,
बर्मा या पाकिस्तान
वह नहीं देखता है
हिंदू, सिक्ख, क्रिस्तान या मुसलमान
वह बरसता है तो सबपर
चाहे वह उसर हो या उपजाऊ धनखर।
वह लेखपाल की खसरा-खतौनी की
धज्जियाँ उड़ा देता है
न ही वह डरता है
बी.डी.ओ. और तहसीलदार की
गुर्राती हुई जीप से।

कभी फ़ुर्सत मिले तो देखना
बिल्कुल मस्ताए हाथी की तरह दीखता है
मूसलाधार बरसता हुआ हथिया नक्षत्र।

जवाहिर चा' और सुलेमान खाँ को
प्रभावित नहीं कर सकता है
मेरा यह काव्यात्मक हथिया नक्षत्र
वे अच्छी तरह जानते हैं
हथिया के न बरसने का वास्तविक अर्थ।

हथिया के न बरसने का अर्थ है-
धान की लहलहाती फसल की अकाल मृत्यु
हथिया के न बरसने का अर्थ है-
कोठार और कुनबे का खाली पेट
हथिया के न बरसने का अर्थ है-
जीवन और जगत का अर्थहीन हो जाना।

विद्वतजन!
मुझे क्षमा करें
मैं सही शब्दों को ग़लत दिशा में मोड़ रहा हूँ
मुझे हथिया नक्षत्र पर नहीं
बटलोई में पकते हुए भात पर
कविता लिखनी चाहिए।

शुक्रवार, 4 जुलाई 2008

सूअर के बच्चे का पहला वर्षा दर्शन

वीरेन डंगवाल हमारे समय के सबसे अधिक और सचमुच पढे जाने वाले कवियों में हैं। सरल,साधारण और महत्वहीन समझे जाने वाले विषयों,वस्तुओं और व्यक्तियों पर उन्होंने अद्भुत और असाधारण कवितायें लिखी हैं।देखते हैं साहित्य अकादेमी पुरस्कार का CITATION उनके बारे में क्या कहता है-

Viren Dangwal
(Born 1947)
Sahitya Academy Award - 2004 - Hindi
CITATION
Viren Dangwal was born in 1947, in Kirtinagar, Tehri Garhwal (now in Uttaranchal)। He has the degrees of MA and D.Phil in Hindi and knows English also. Having begun writing in 1968-69, his poems and short stories have been published in major literary magazines. Some of his important works are Isi Duniya Mein, Dushchakra Mein' Srashta (both collections of poems) and Nazim Hikmat Ki Kavitayen (translation). Recipient of Raghuvir Sahay Samman, Shrikant Verma Puraskar and Shamsher Samman.

In Dushchakra Mein Srashta, a collection of 114 poems probing into the mystery of the complex and difficult realm of creation, the poet deals with the horrible, dislocated and disjointed times we are passing through। Touching on local concerns, the poet reaches to global dimensions, paying equal attention to the ills found at all levels। The poet delineates the anti-human conspiracy inherent in even a small action, and confronts it। Even while making the subtlest use of images, he makes successful use of the language of the common people। This work undoubtedly adds to the greatness of Indian poetry in Hindi.
प्रस्तुत कविता 'सूअर का बच्चा' उनके दूसरे कविता संग्रह 'दुष्चक्र मे स्रष्टा' से ली गई है। बारिश पर लिखी जाने वाली कविताओं की सुची बनाते समय इस कविता को मैंने बहुत पहले याद किया। बार-बार यह भी गुनता रहा कि क्या सचमुच यह कविता बारिश पर ही है? खैर ,आप इसे पढें-( और हो सके तो अपनी राय जाहिर करें-)

वीरेन डंगवाल की कविता 'सूअर का बच्चा'

बारिश जमकर हुई, धुल गया सूअर का बच्चा
धुल-पुंछकर अंगरेज बन गया सूअर का बच्चा.
चित्रलिखी हकबकी गाय झेलती रही बौछारें
फिर भी कूल्हों पर गोबर की झाईं छपी हुई है
कुत्ता तो घुस गया अधबने उस मकान के भीतर
जिसमें पड़ना फर्श, पलस्तर होना सब बाकी है.

चीनी मिल के आगे डीजल मिले हुए कीचड़ में
रपट गया है लिये-दिये इक्का गर्दन पर घोड़ा
लिथड़ा पड़ा चलाता टांगें आंखों में भर ऑंसू
दौड़े लोग मदद को, मिस्त्री--रिक्शे-तॉंगे वाले.

राजमार्ग है यह, ट्राफिक चलता चौबीसों घंटे
थोड़ी-सी भी बाधा से बेहद बवाल होता है.

लगभग बंद हुआ पानी पर टपक रहे हैं खोखे
परेशान हैं खासतौर पर चाय-पकौड़ी वाले,
या बीड़ी माचिस वाले.
पोलीथिन से ढांप कटोरी लौट रही घर रज्जो
अम्मा के आने से पहले चूल्हा तो धौंका ले
रखे छौंक तरकारी.

पहले-पहल दृश्य दीखते हैं इतने अलबेले
ऑंखों ने पहले-पहले अपनी उजास देखी है
ठंडक पहुंची सीझ हृदय में अद्भुत मोद भरा है
इससे इतनी अकड़ भरा है सूअर का बच्चा

गुरुवार, 3 जुलाई 2008

सफ़दर की 'पहली बारिश'


( आजकल बारिश का मौसम है। ऐसे में ब्लाग पर बारिश को लेकर लिखी गई कविताओं की धूम है। बहुत सारी कवितायें है जो याद आ रही हैं या जिन्हें शेयर करना अच्छा लगेगा. ऐसे में 'कर्मनाशा' के पाठकों के लिए प्रस्तुत है सफ़दर हाशमी की कविता 'पहली बारिश'।)


पहली बारिश


रस्सी पर लटके कपड़ों को सुखा रही थी धूप.
चाची पिछले आँगन में जा फटक रही थी सूप।

गइया पीपल की छैयाँ में चबा रही थी घास,
झबरू कुत्ता मूँदे आँखें लेटा उसके पास.

राज मिस्त्री जी हौदी पर पोत रहे थे गारा,
उसके बाद उन्हें करना था छज्जा ठीक हमारा.

अम्मा दीदी को संग लेकर गईं थीं राशन लेने,
आते में खुतरू मोची से जूते भी थे लेने।

तभी अचानक आसमान पर काले बादल आए,
भीगी हवा के झोंके अपने पीछे-पीछे लाए.

सब से पहले शुरू हुई कुछ टिप-टिप बूँदा-बाँदी,
फिर आई घनघोर गरजती बारिश के संग आँधी.

मंगलू धोबी बाहर लपका चाची भागी अंदर,
गाय उठकर खड़ी हो गई झबरू दौड़ा भीतर.

राज मिस्त्री ने गारे पर ढँक दी फ़ौरन टाट.
और हौदी पर औंधी कर दी टूटी फूटी खाट.

हो गए चौड़म चौड़ा सारे धूप में सूखे कपड़े,
इधर उधर उड़ते फिरते थे मंगलू कैसे पकड़े.

चाची ने खिड़की दरवाज़े बंद कर दिए सारे,
पलंग के नीचे जा लेटीं बिजली के डर के मारे.

झबरू ऊँचे सुर में भौंका गाय लगी रंभाने,
हौदी बेचारी कीचड़ में हो गई दाने-दाने.

अम्मा दीदी आईं दौड़ती सर पर रखे झोले,
जल्दी-जल्दी राशन के फिर सभी लिफ़ाफ़े खोले.

सबने बारिश को कोसा आँखें भी खूब दिखाईं,
पर हम नाचे बारिश में और मौजें ढेर मनाईं.

मैदानों में भागे दौड़े मारी बहुत छलांगें,
तब ही वापस घर आए जब थक गईं दोनों टाँगें।

((कविता 'कविता कोश' से और chitra 'ट्रिब्यून इंडिया' से साभार)