मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

दु:ख में सरापा

तमाम फेसबुकिया मित्रों से क्षमा सहित और इसी दुनिया के यायावरों के  लिए आदर और प्यार के साथ एक (और)अतुकान्त तुक.. आज अपनी एक और कविता..


फेसबुक-३

शब्द पर हम सब रीझते हैं।
अर्थ  से  जरा - सा खीजते हैं।

वक्त की  दोपहर में  तन्हा,
बेसबब सूखते - सीझते हैं।

सुख  सहज  ही टपकता है ,
दु:ख में  सरापा भींजते हैं।

सच से बच-बच  के चलते हैं ,
आँख अपनी खुद मींचते है।

बेतुके दौर में  तुक खोजते हैं,
बात को दूर तलक खीचते हैं।

बयाबाँ में बचे नन्हे शजर को,
अहसासों  के अब्र से सींचते हैं! 
....
* यदि समय हो और मन करे तो फेसबुक -१  तथा फेसबुक-२ भी देख सकते हैं।

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

इससे आगे कोई तुक मिलती नहीं

हिन्दी में तरह - तरह के शब्दकोश हैं किन्तु मेरे देखे - सुने में कोई तुक कोश या rhyming dictionary नहीं है। हो सकता है  ऐसा कोई कोश हो भी। छोटे बच्चे जब अपनी किताबों में rhyming words पढ़ते हैं और अपनी नोट्बुक्स में शब्दों की तुक मिलाते हैं तो बड़ा अच्छा लगता है। लगता है  कि इस असार संसार में कोई चीज निपट अकेली नहीं है। एक चीज के जैसी कोई न कोई चीज दूसरी चीज कहीं न कहीं है जरूर। कविता और तुक का बड़ा ही पुराना रिश्ता रहा है। हो सकता है यह बोलने, सुनने और याद करने की सुन्दरता , माधुर्य और सरलता के कारण  हुआ हो। हिन्दी में आजकल कविता और तुकबंदी  को एक दूसरे का प्राय: विरोधी माना जाता है लेकिन तुक  की अपनी प्रतिष्ठा है, अपनी जगह है  और उसकी खूबसूरती भी  बहुत मायने रखती है; बस इतना जरूर हो कि  यह सहज हो ,सायास नहीं, जबरदस्ती नहीं । कल रात  सोने से पहले कुछ कवितायें, कुछ गीत पढ़े और यूँ ही कुछ लिख - सा लिया। आज सुबह जब उन्हें देखा - पढ़ा तो लगा कि यह  अभिव्यक्ति तुक में हैं। आज के इस बेतुके वक्त में यदि  कहीं कुछ तुक में दिख जाए तो भला - सा लगता है। उम्मीद है कि 'कर्मनाशा' के पाठकों और प्रेमियों को यह ठीकठाक लगे...आइए देखते - पढ़ते हैं ये तीन शीर्षकहीन तुकबंदियाँ... 


बेतुके वक्त में तीन तुकबंदियाँ


01-

खुद की
खुद से कहो

सहो
चुप रहो
भावुकता में बहो

उठो
लहर सी
रेत की दीवार सी ढहो

इससे आगे
कोई तुक मिलती नहीं
इसलिए
चुप रहो।

02-

हर ओर
शोर

घूम रहे करघे
टूट रही डोर

बे- मौसम
नाच रहे मोर

जो कमजोर
उसी पर
सबका जोर

इससे आगे
कोई तुक मिलती नहीं
चुरा ले गए
शब्द सारे चोर।

03-

मछली
जल की रानी

जीवन उसका
पानी

तड़प रही बेपानी
जल की रानी

बिक रहा
बोतल में
पानी ही पानी

इससे आगे
कोई तुक मिलती नहीं
खत्म करो
यह कथा - कहानी।
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चित्र : शेली ब्याट की पेंटिंग 'डोंट हुक द फिश' / गूगल से साभार।

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

बारिश के अपने नियम हैं : ममांग दाई की कवितायें

* ममांग दाई की कवितायें मैं पिछले कई वर्षों से पढ़ता रहा हूँ। पूर्वोत्तर भारत, विशेष रूप से अरुणाचल में बिताये अपने जीवन के (लगभग) एक दशक की स्मृतियों में अवगाहन में उनकी कवितायें बहुत अच्छा साथ देती हैं। २००७ में  अपने लिखे  एक सफरनामे  में उनकी कविताओं  के एकाध अंश को मूल अंग्रेजी में उद्धृत किया था और साथ ही एक छोटी - सी  कविता को हिन्दी में अनूदित भी किया था। वह यात्रावृत हिन्दी की एक ' बहुत बड़ी' पत्रिका के पास  पिछले तीन साल से स्वीकृत होकर प्रकाशन की राह देख रहा है। याद दिलाने / पूछने पर संपादक महोदय का प्रेम पत्र मिल जाता है कि 'आपकी रचना हमारे पास सुरक्षित है। यथासमय उसका उपयोग किया जाएगा।' पता नहीं उस  यात्रावृत को कब प्रकाशन की राह मिलेगी ! खैर, इस बीच , इसी साल २००१ में  ममांग जी को साहित्य  में उत्कृष्ट योगदान  पद्मश्री से सम्मानित किया गया है । उन्हें बधाई का मेल करते हुए जब मैंने उनकी कविताओं के अनुवाद करने की अपनी ( पुरानी)  इच्छा को व्यक्त किया तो जवाब में उन्होंने  सहमति व अपनी कविताओं को विपुल हिन्दी पाठक बिरादरी के समक्ष रखे जाने के प्रस्ताव पर प्रसन्नता की व्यक्त तो अनुवाद का  काम  और आगे बढ़ा है।


* हिन्दी ब्लॉग की बनती हुई दुनिया में शरद कोकास उन ब्लॉगर्स में से हैं जो हिन्दी साहित्य की दुनिया में सतत सक्रिय हैं और उनकी गिनती आज के प्रतिष्ठित कवियों में होती है। शरद भाई नवरात्रि में लगातार नौ दिन तक अपने  ब्लॉग 'शरद कोकास' पर अलग - अलग  तरीके से नौ स्त्री - कवियों / कवयत्रियों की कवितायें प्रस्तुत करते रहे हैं। यह उनका प्रेम व सदाशयता है कि उन्होंने इस आयोजन  मुझ नाचीज को भी साथ चलने का मौका देते हुए कुछ सीखने और शेयर करने का अवसर दिया है। इस बार 'चैत्र नवरात्रि कविता उत्सव - २०११' की थीम है - भारतीय अंग्रेजी कवयत्रियों  की कविताओं का हिन्दी अनुवाद। मुझे खुशी है कि भाई शरद जी ने इसमें लगातार चार दिनों तक मेरे अनुवाद प्रकाशित किए हैं और एक अनुवादक के रूप में मेरे काम को एक अच्छा  मंच प्रदान किया है।

* कविता के अंत की तमाम घोषणाओं के बावजूद अच्छी कविताओं की कोई कमी नहीं है और न ही अच्छी कविताओं के गुण ग्राहकों की। अर्चना चावजी  कविता प्रेमी हैं,  वह कविताओं का बहुत अच्छा गायन - वाचन भी करती हैं उनका ब्लॉग है 'मेरे मन की'। अर्चना जी 'चैत्र नवरात्रि कविता उत्सव - २०११' की सभी नौ प्रस्तुतियों को अपना स्वर दे रही हैं इसी क्रम में उन्होंने तीसरे दिन की प्रस्तुति 'ममांग दाई की कविता'  को भी अपना स्वर दिया है।

* यह पोस्ट एक तरह से  कई कविता प्रेमियों व प्रस्तुतिकारों की सामूहिकता का प्रतिफल है। ममांग दाई जी ने कविताओं की रचना की है, मैंने उन्हें अनूदित किया है , शरद कोकास जी   ने उनकी सुंदर प्रस्तुति की है और अर्चना चावजी ने  कवि  परिचय व कविताओं को अपना  स्पष्ट - सधा स्वर देकर एक नया रूप दे दिया है। 

* ममांग जी , शरद जी और अर्चना जी के प्रति आभार - धन्यवाद व्यक्त करते हुए  मैं यहां उन  सभी कविता प्रेमियों के प्रति आभार व्यक्त कर रहा हूँ जिन्होंने प्रस्तुति - पटल पर विजिट  कर  एक अनुवादक  के रूप में मेरे काम को मान्यता दी है और  निश्चित रूप से उनके प्रोत्साहन से कुछ और ( अच्छा ) करने की नई राह भी मिली है. तो  लीजिए ( एक बार फिर! ) 'कर्मनाशा'  पर आज  प्रस्तुत है ममांग दाई का संक्षिप्त परिचय व कुछ   कवितायें ।




* ममांग दाई न केवल पूर्वोत्तर भारत  बल्कि समकालीन भारतीय  अंग्रेजी लेखन की  एक प्रतिनिधि हस्ताक्षर है। वह पत्रकारिता ,आकाशवाणी और दूरदर्शन ईटानगर से जुड़ी रही हैं । उन्होंने कुछ समय तक भारतीय प्रशासनिक सेवा में नौकरी भी की , बाद में छोड़ दी । अब स्वतंत्र लेखन । उन्हें `अरूणाचल प्रदेश : द हिडेन लैण्ड´ पुस्तक पर पहला `वेरियर एलविन अवार्ड ` मिल चुका है और इसी वर्ष साहित्य सेवा के लिए  वे  पद्मश्री सम्मान से नवाजी गई हैं।  प्रस्तुत हैं  ममांग दाई की तीन कवितायें जो उनके के संग्रह `रिवर पोएम्स´ से साभार ली गई हैं :


०१- बारिश

बारिश के अपने नियम हैं
अपने कायदे,
जब दिन होता है खाली - उचाट
तब पहाड़ की भृकुटि पर उदित होता है
स्मृति का अंधड़।

हरे पेड़ होने लगते हैं और हरे -और ऊंचे।

०२- सन्नाटा

कभी - कभी मैं झुका  लेती हूँ अपना शीश
और विलाप करती हूँ
कभी - कभी मैं ढँक लेती हूँ अपना चेहरा
और विलाप करती हूँ
कभी - कभी मैं मुस्कुराती हूँ
और तब भी
विलाप करती हूँ।

लेकिन तुम्हें नहीं आती है यह कला।

०३-वन पाखी

मैंने सोचा कि प्रेम किया तुमने मुझसे
कितना दुखद है यह
कि इस वासंती आकाश में
सब कुछ है धुंध और भाप।

आखिर क्यों रोए जा रहे हैं वन पाखी?

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

कवि , कार्टूनिस्ट और कुछ स्केच


कंप्यूटर से भी तेज दिमाग वाले 'चाचा चौधरी' तथा साबू, बिन्नी, डगडग, बंदूक सिंह, राकेट, श्रीमतीजी, बिल्लू, पिंकी, रमन, डब्बू, चन्नी चाची जैसे कार्टून चरित्रों के रचनाकार प्राण ने अपने कार्टूनों से भारतीय बचपन को एक नये अंदाज में संवारा है। ऐसे में जब भारतीय साहित्य और समाज एक दूसरे से दूर जाने की जिद पकड़ने की शुरूआत-सी कर रहे थे तब राजनीति विज्ञान में एम.ए.और बंबई के अतिप्रतिष्ठित जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट से पढ़े तथा दैनिक 'मिलाप' से जुड़े रहे युवा चित्रकार प्राण ने वर्ष १९६६ के पहले दो दिनों में दिल्ली से दूर खंडवा जाकर 'एक भारतीय आत्मा' नाम से कवितायें लिखने वाले 'दादा' माखन लाल चतुर्वेदी के कुछ रेखांकन बनाए थे जो प्रकाशन विभाग की मासिक पत्रिका 'आजकल' ( हिन्दी ) के अक्टूबर १९६६ अंक में  उनके एक संस्मरणात्मक आलेख के साथ प्रकाशित हुए थे . इस आलेख में प्राण एक संवेदनशील  गद्य लेखक की तमाम खोबियों के साथ  मौजूद हैं.

'पुष्प की अभिलाषा' शीर्षक कविता को हिन्दी की  कालजयी कविताओं की श्रेणी में गिना जाता है। माखन लाल चतुर्वेदी (१८८९ - १९६८) न केवल हिन्दी की राष्ट्रीय काव्यधारा के प्रमुख कवि रहे हैं बल्कि एक पत्रकार के रूप में  भी उनका कद बहुत बड़ा है।'कृष्णार्जुन युद्ध ,'हिमकिरीटनी', 'हिमतरंगिणी', 'माता', 'साहित्य देवता', 'युगचरण' 'समर्पण', 'वेणु लो गूंजे धरा', 'अमीर इरादे:गरीब इरादे' जैसी रचनाओं के इस रचनाकार ने एक समय में 'प्रभा','कर्मवीर','प्रताप'जैसे पत्रों का  सफल संपादन भी  किया था। 

* पूर्व उल्लिखित  'आजकल' के अक्टूबर १९६६ अंक से  कार्टूनिस्ट  प्राण  के संस्मरण के  कुछ चुनिंदा अंशों के साथ   'एक भारतीय आत्मा' की जीवन संध्या  के स्केच भी  पूरे  आदर - आभार सहित प्रस्तुत  किए  जा रहे हैं -



भारतीय आत्मा के साथ एक चित्रकार के दो दिन 

१ जनवरी,१९६६ 

भारतीय आत्मा को देखते ही सबसे पहले जो विचार मेरे मन में आया, वह यह था कि यह चेहरा बहुत सरल है, देखने में भी और चित्र बनाने के लिये भी।शायद मैंने पहले कभी इतना सरल और भावुक चेहरा स्केच नहीं किया था. हां, अंधकारमय कमरा, जिसमें श्री माखन लाल चतुर्वेदी, अर्थात मेरे माडल लेटे हुए थे, जरूर मेरे कार्य में बाधक था. बताया गया कि मेरे माडल बहुत सख्त बीमार हैं और उन्हें रोशनी अच्छी नहीं लगती. इस कारण मैं कमरे में बिजली भी नहीं जला सकता. मेरे माडल, जिन्हें लोग प्यार से 'दादा' कहते हैं, पिछले दो वर्षों से इतने अधिक बीमार हैं कि बैठ भी नहीं सकते. पिछले सारे मेरे माडलों से यह माडल अजीब था. उसको एक 'पोजीशन' बनाकर बैठे या खड़े रहने के लिए आर्टिस्ट नहीं कह सकता था ,बल्कि लेटे हुए माडल की सुविधा का ख्याल रखकर ही उसको चित्र बनाना था. चित्र बनाने में ये रुकावटें सामने थीं. परंतु उसका भोला और सरल चेहरा देखकर कोई भी चित्रकार, इतनी रुकावटें होते हुए भी , उसका चित्र बनाने को तैयार हो जाएगा. यही मैंने भी किया.

"आपकी तबियत अब कैसी है?" मैंने अपने बीमार माडल से पूछा। 

"ठी-ड़-ड़-ड़-...र-र-र..." मेरे माडल के होंठों पर कंपन हुआ और अस्पष्ट ध्वनि हुई.पास खड़े हुए उनके छोटे भाई साहब ने बताया कि वह पिछले दो वर्षों से ठीक से बोल नहीं पाते. बहुत कोशिश करने पर जब वह कुछ बोलते हैं, तो वह इतना अस्पष्ट होता है कि उसे उनका नौकर या छोटे भाई ही समझ पाते हैं. अने माडल की यह हालत देखकर दिल रो उठा कि किसी जमाने में आग की लपटें बरसाने वाली क्रांतिकारी कवितायें लिखने वाला आज असहाय होकर बूढ़े शेर की तरह अंधकारमय मांद में पड़ा है।

कमरे में एक कोने में बैठकर मैंने चित्र बनाना शुरू किया. सामने मेरे माडल रजाई ओढे लेटे हुए थे.रंग कागज पर फैलने लगे. अभी कुछ ही देर हुई थी कि उन्होंने करवट बदली. मुझे एक और रुकावट दिखी. माडल को एक ही तरफ से लेटा रहने के लिए भी नहीं कहा जा सकता था. वह बीमार थे.इस कारण एक करवट लेटे रहना उनके लिए असह्य था. वह सुविधानुसार दायें-बायें करवटें बदलते रहे. कई बार उनका चेहरा छुप जाता. मैंने आंखें बंद कीं और दिमाग खोला. सोचा, यह पेंटिंग कैसी हो? इसमें कवि के भाव होने चाहिए. कौन-सी कविता? हां ठीक है, वही, जो मैंने बचपन में पढ़ी थी -'मील का पत्थर'. यह कवि भी तो सारी उम्र एक राहगीर रहा है. मैंने फिर रंगों को कागज पर फैलाना शुरू किया. माडल की तरफ देखा. बंद आंखें, साफ़ निर्मल चेहरा, निर्मल जल की तरह, जिसमें झांककर आप दिल के भाव तक देख सकते हैं, श्वेत वर्ण, पतली नाक, नुकीली ठुड्डी घनी सफेद मूंछें और रूई के समान सिर पर घने बाल. उनका जरूर जवानी में सुंदर व्यक्तित्व रहा होगा, मैंने सोचा. कुछ और चेहरे के अंदर घुसा,झुर्रियों के बीच मैंने खोजा, उनके मन में संतुष्ट भाव. मैं उनके चेहरे के हर भाग को खोजता रहा, अध्ययन करता रहा, भाव ढ़ूंढ़ता रहा. ब्रश चलते रहे ,रंग कागज पर चलते रहे , चित्र बनता रहा।

"आप चित्रकला के बारे में कुछ कहना चाहते हैं?"

"चित्र ...त्र...त्र...भ...भ...श्...श..." ( चित्रकला भावों से शुरू होती है।)

"और "...मैंने पूछा।

"भ...भ...भ...प...र...र...र..." ( और भावों पर खत्म हो जाती है )

मैं मुस्करा दिया.मेरे माडल ने दो वाक्यों में ही सारी चित्र-कला को लपेट लिया था. मैंने चित्र पूरा कर लिया. ऊपर बायें कोने पर 'मील का पत्थर', बीच में मुख्य फिगर कवि , मेरे माडल और नीचे एक युवक, जो पूरे जोश में हाथ उठाये क्षितिज की ओर चला जा रहा है. चित्र माडल को दिखाया गया . उन्होंने जेब से चश्मा निकाला, रूमाल से उसे पोंछा और आंखों पर चढ़ाया. चित्र को गौर से देखा. उनके होंठ थोड़े चौड़े हो गए,वह मुस्कुराये.मैंने समझ लिया कि चित्र उन्हें पसंद आ गया है. स्वीकृति में उन्होंने सिर भी हिलाया. फिर उन्होंने 'मील का पत्थर' की ओर इशारा किया. मैं समझ गया कि वह ७८ के अंकों को ,जो 'मील का पत्थर' पर अंकित है, पूछ रहे हैं. मैंने कहा ," आपको पथिक बनाया है, 'मील का पत्थर' पर ७८ अंक लिखकर यह बताने की कोशिश की है कि आपने अपने जीवन का इतना रास्ता तय कर लिया है," यह सुनकर मेरे माडल फिर मुस्कुराये. 

२ जनवरी, १९६६

आज मैंने अपने माडल की दिनचर्या पर छोटे-छोटे ब्लैक एंड ह्वाइट स्केच बनाने का विचार किया।

सुबह मेरे माडल दस मिनट तक अपने मकान के आगे सैर करते हैं.सुबह साढ़े नौ बजे के करीब वह काला चश्मा लगाए बाहर आए. पांवों मे मोजों पर काले जूते, खादी का पाजामा, बंद गले का कोट, गले पर मफलर, सिर पर गांधी टोपी और सिर से कानों तथा गर्दन को लपेटे हुए दोहरी अथवा चौहरी शाल थी. एक व्यक्ति उनको थामे हुए था. उन्होंने धीरे-धीरे, इंच-इंच करके एक-एक कदम आगे बढ़ाया,फिर ठहर गए, फिर धीरे-धीरे, इंच-इंच करके दूसरा कदम बढ़ाया, फिर ठहर गए. इसी प्रकार वह कठिनाई से धीरे-धीरे आगे एक कदम बढ़ाते , फिर दूसरा. उन्होंने कोई दस गज की दूरी तय की. फिर वापस उसी तरह कदम रखते वही दूरी तय की. यही दस गज की जगह मात्र उनकी सैरगाह थी. मैंने स्केच-बुक उठाई और उनके साथ , उनके आगे-आगे ,उलटे पांव चलने लगा और स्केच बनाने लगा. बायें हाथ से स्केच-बुक थामे ,दायें से मैं रेखायें बनाता जाता. जब मेरे माडल मुड़ जाते ,तो मैं भी मुड़ जाता. एक बार जब मैं उनके आगे-आगे स्केच बनाता हुआ उल्टे पांव चल रहा था ,तो पीछे एक बड़ा पत्थर आ गया. मैं धड़ाम से गिर पड़ा. पास खड़े हुए बच्चे हंसने लगे.मैं कपड़े झाड़कर उठा. यह स्केच मैंने पांच मिनट में पूरा कर लिया.

"स...स...र...र..."(क्या सारे चित्र बन गए?)

"हां, काफी बन गये हैं।"

"को...ई...ई...क...क...क...?"(कोई कार्टून?)

"कार्टून सिर्फ राजनीतिज्ञों के बनाता हूं।आपका कोई कार्टून नहीं बनाऊंगा,बेफिक्र रहिए।"

इस पर मेरे माडल खिलखिलाकर हंस पड़े।पास बैठे हुए उनके भाई ने बताया कि आज बहुत अरसे बाद वह हंसे हैं.मैंने अपने को सराहा कि उन्हें हंसा पाया हूं.मेरे माडल का मूड अच्छा देखकर एक सज्जन ने मौका हाथ से न जाने दिया।

"दादा, अब तो इनको हस्ताक्षर दे दो।"मेरे माडल ने स्वीकृति दे दी। उन्हॅं सहारा देकर बैठाया गया। फिर उनके हाथ में पेन दे दी गई.उन्होंने अनजाने में ही , जहां कलम पड़ गई, अस्पष्ट-से,टेढे-मेढे हस्ताक्षर करने शुरू कर दिये. किसी स्केच पर पूरा नाम लिखने की कोशिश की,परंतु'माख लाल च'...तक ही लिख सके.किसी पर सिर्फ 'म.ल.च' ही अंकित कर सके.

3 जनवरी १९६६

आज सुबह मैंने अपने माडल के चरण छुए और उनसे विदा ली। सुबह नौ बजे खंडवा से पठानकोट एक्सप्रेस पर बैठकर दिल्ली रवाना हो गया.

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

(प्रेम) पत्र - लेखन और (प्रेम) पत्र - पठन के (वे) दिन c/o राग दरबारी

तब रंगीन लगती थीं श्वेत श्याम तस्वीरें
और किताबों के बीच चुपके से रखे गए सूखे फूल
बोसीदा कमरे में भर में भर देते थे सुगन्ध।

रात के दो के आसपास का समय था।वोल्वो तेज रफ्तार से भाग रही थी. बस में थोड़े-थोड़े अंतराल पर एक ही गाना बार-बार बज रहा था-'चिठ्ठी आई है ,वतन से चिठ्ठी आई है'.लग रहा था कि बस के ड्राइवर और स्टाफ को घर की याद आ रही होगी. मैं ऐसा शायद  इसलिए भी अनुमान कर रहा  क्योंकि स्वयं घर से दूर था - हजारों मील, लेकिन घर की याद बिना किसी टिकट भाड़े नजदीक और नजदीक चली आ रही थी. मुझसे आगे की सीट पर बैठा युवक अपनी साथी को बता रहा था-'नाम फिल्म इसी गाने से पंकज उधास का नाम फेमस हुआ था'.शुक्र है कि युवती ने 'कौन पंकज, कौन उधास?' नहीं पूछा.मुझे याद आया कि एक सहकर्मी ने एक दिन बताया था कि उन दिनों जब यह गाना खूब चला था तब उन्होंने इसी से 'प्रेरणा'लेकर गणित में एम.एस-सी.करने के तत्काल बाद एक विदेशी स्कूल की नौकरी के बदले अपने कस्बेनुमा शहर की मास्टरी को इसलिए  तरजीह दी थी कि 'उमर बहुत है छोटी,अपने घर में भी है रोटी'.हालांकि बाद में,थोड़ी तरलता आने पर उन्होंने बेहद मीठे और मुलायम अंदाज में यह भी खुलासा किया था कि इस निर्णय के केन्द्र में 'प्रेम' भी (शायद प्रेम ही!) एक मजबूत कारण या आधार था.और यह भी कि उन दिनों वह रोजाना बिला नागा 'उसे' एक पत्र लिखा करते थे - प्रेम पत्र.

वह कोई दूसरा समय था
इतिहास का एक बनता हुई कालखंड
समय की खराद पर
उसी में ढलना था हम सबका जीवन।

आजकल पत्र कौन लिखता है? सरकारी,व्यव्सायी,नौकरी-चाकरी के आवेदन-बुलावा आदि के अतिरिक्त पारिवारिक-सामाजिक पत्र हमारी जिंदगी के हाशिए से भी सरक गए लगते है.क्या ऐसा संचार के वैकल्पिक संसाधनों-साधनों की सहज - सरल - सस्ती उपलब्धता के कारण हुआ है? या कि समय का अभाव,पारिवारिक-सामाजिक संरचना के तंतुजाल में दरकाव,पेपरलेस कम्युनिकेशन की ओर अग्रगामिता आदि-इत्यादि चीजें इसकी वजहें हैं? बहरहाल, इस गुरु-गंभीर विषय पर विमर्श की विचार-वीथिका में वरिष्ठ-गरिष्ठ विद्वानों को विचरण करने का सुअवसर प्रदान करते हुए मैं तो बस यही कहना चाह रहा हूं कि कहां गए वो दिन? वो पत्र-लेखन और पत्र-पठन के दिन अब तो पत्र-लेखन कला स्कूली पाठ्यक्रमों में सिमट कर रह-सी गई है।

दुनिया बदलती जा रही है पल - प्रतिपल।
तमाम जतन और जुगत के बावजूद
हर ओर सतत जारी है कुरूपताओं का कारोबार
बढ़ता ही  जा रहा है कूड़ा कबाड़
फिर भी मन  का कोई कोई कोना 
खोजता है एकान्त

कुछ लोग कहेंगे कि ई मेल ,एसएमएस,इंस्टैन्ट मैसेजिंग आदि पर मेरी नजर क्यों नहीं जा रही है. हां,ये भी पत्र के विकल्प रूप - प्रारूप हैं और इनके जरिए व्यक्त की जाने वाली संवेदना तथा उसके शिल्प को मैं नकार भी नहीं रहा हूं किन्तु यहां मेरी मुराद कागज पर लिखे जाने वाले उस पत्र से है जिससे तमाम भाषाओं का विपुल साहित्य भरा पड़ा है,जिसको लेकर रचा गया समूचे संसार का शास्त्रीय-उपशास्त्रीय-लोक-फ़ोक संगीत अनंत काल तक दिग्-दिगंत में गूंजता रहेगा,जो कभी मानवीय संबंधों की ऊष्मा का कागजी पैरहन था,जो कभी सूखे हुए फूलों के साथ किताबों के पन्नों में मिला करता था और दिक्काल की सीमाओं को एक झटके में तिरोहित कर जीवन-जगत के तमस में आलोक का आश्चर्य भर देता था.

अब भी मँडराती हैं
ढेर सारी कटी पतंगे
तलाशती हुईं अपनी डोरियाँ
अपनी लटाइयाँ
और अपने - अपने हिस्से का आकाश।

श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास 'राग दरबारी'(१९६८) मेरी प्रिय पुस्तकों की सूची में काफी ऊपर है.पिछले  दिल्ली  विश्व पुस्तक मेले में राजकमल / राधाकृष्ण/ लोकभारती प्रकाशन के स्टाल पर इसकी जबरदस्त डिमांड मैंने खुद देखी थी. मुझे बार-बार इस उपन्यास से गुजरना अच्छा लगता है.अपने समय और समाज नब्ज व नियति को समझने के लिए यह उपन्यास मेरे लिए एक उम्दा संदर्भ ग्रंथ का काम भी करता रहा है.अपनी इसी प्रिय पुस्तक में शामिल एक पत्र (या प्रेम पत्र!)लेखक के प्रति आदर और प्रकाशक के प्रति आभार व्यक्त करते हुए 'कर्मनाशा' के पाठकों - प्रेमियों  के साथ इस उम्मीद के साथ प्रस्तुत कर रहा हूं कि इसे इतिहास के बहीखाते में दर्ज होने की तरफ अग्रसर पत्र-लेखन कला एवं (अथवा) विज्ञान का एक उदाहरण मात्र माना जाए- कंटेंट, रेफरेंस और जेंडर से परे....


'राग दरबारी' का (प्रेम ) पत्र

ओ सजना ,बेदर्दी बालमा,

तुमको मेरा मन याद करता है.पर चॉंद को क्या मालूम, चाहता है उसे कोई चकोर.वह बेचारा दूर से देखे करे न कोई शोर.तुम्हें क्या पता कि तुम्हीं मेरे मन्दिर ,तुम्हीं मेरी पूजा ,तुम्ही देवता हो,तुम्हीं देवता हो.याद में तेरी जाग-जाग के हम रात-भर करवटें बदलते हैं.

अब तो मेरी हालत यह हो गई है कि सहा भी न जाए,रहा भी न जाए.देखो न मेरा दिल मचल गया,तुम्हें देखा और बदल गया.और तुम हो कि कभी उड़ जाए,कभी मुड़ जए भेद जिया का खोले ना.मुझको तुमसे यही शिकायत है कि तुमको प्यार छिपाने की बुरी आदत है.कहीं दीप जले कहीं दिल,जरा देख तो आकर परवाने.

तुमसे मिलकर बहुत सी बातें करनी हैं.ये सुलगते हुए जज्बात किसे पेश करें.मुहब्बत लुटाने को जी चाहता है.पर मेरा नादान बालमा न जाने जी की बात.इसलिए उस दिन मैं तुमसे मिलने आई थी .पिय़ा- मिलन को जाना.अंधेरी रात.मेरी चॉदनी बिछुड़ गई,मेरे घर में पड़ा अंधियारा था.मैं तुमसे यही कहना चाहती थी,मुझे तुमसे कुछ न चाहिए .बस, अहसान तेरा होगा मुझ परमुझे पलकों की छांव में रहने दो.पर जमाने का दस्तूर है ये पुराना,किसी को गिराना किसी को मिटाना.मैं तुम्हारी छत पर पहुंची पर वहां तुम्हारे बिस्तर पर कोई दूसरा लेटा हुआ था.मैं लाज के मारे मर गई.बेबस लौट आई.ऑधियों ,मुझ पर हंसो,मेरी मुहब्बत पर हंसो.

मेरी बदनामी हो रही है और तुम चुपचाप बैठे हो.तुम कब तक तड़पाओगे? तड़पा लो,हम तड़प-तडप कर भी तुम्हारे गीत गाएंगे.तुमसे जल्दी मिलना है.क्या तुम आज आओगे क्योंकि आज तेरे बिना मेरा मन्दिर सूना है.अकेले हैं,चले आओ जहां हो तुम.लग जा गले से फिर ये हंसी रात हो न हो.यही है तमन्ना तेरे दर के सामने मेरी जान जाए,हाय़.हम आस लगाए बैठे हैं.देखो जी, मेरा दिल न तोड़ना।

तुम्हारी याद में,
कोई एक पागल।