तमाम फेसबुकिया मित्रों से क्षमा सहित और इसी दुनिया के यायावरों के लिए आदर और प्यार के साथ एक (और)अतुकान्त तुक.. आज अपनी एक और कविता..
फेसबुक-३
शब्द पर हम सब रीझते हैं।
अर्थ से जरा - सा खीजते हैं।
वक्त की दोपहर में तन्हा,
बेसबब सूखते - सीझते हैं।
सुख सहज ही टपकता है ,
दु:ख में सरापा भींजते हैं।
सच से बच-बच के चलते हैं ,
आँख अपनी खुद मींचते है।
बेतुके दौर में तुक खोजते हैं,
बात को दूर तलक खीचते हैं।
बयाबाँ में बचे नन्हे शजर को,
अहसासों के अब्र से सींचते हैं!
....
6 टिप्पणियां:
सिधेश्वर भाई, फेस बुक शीर्षक से कविता का दायरा ज़रा सिमट नहीं गया?
yes ajai bhaai..u r right..
बहुत खूब!
तुकान्त का अच्छा प्रयोग किया है आपने!
बात तो सही है सर !
खुद से भागने कि साज़िश हैं सभी नेटवर्किंग साइट्स ! मैं भी भागती हूँ ! सब भागते हैं ! अच्छे इंतज़ाम हो गए हैं अब तो इस बात से बचने कि कहीं किसी दिन खुद से मिलाकात न हो जाए ! बैठे रहते हैं वहीं- आपके शब्दों में 'मुखपोथी' पे ! डरते क्यों हैं हम खुद अपना सामना करने से ? क्यों रहना चाहते हैं हमेशा भीड़ में गुम ?
अहसासों की नयी बुक।
Beautiful poetry !
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