शुक्रवार, 4 अप्रैल 2008

साहित्य अपने समाज तक 'कैसे' पहुंचता है ?.... ऐसे…..!

अमल धवल गिरि के शिखरों पर
बादल को घिरते देखा है...


यह उस कविता की पंक्तियां हैं जो हमने अपनी बेटी को तब सिखाया था जब वह बोलने की शुरुआत भर कर रही थी।तब उसकी आवाज में बाबा (नागार्जुन) की यह कविता एक नया संदर्भ,नया अर्थ बताती-सी लगती थीं या फिर ऐसा रहा होगा कि कविता को जीवन के ज्ररूरी हिस्से के रूप में नई पीढ़ी तक पहुंचते देखने की एक सुखद अनुभूति आह्लाद से भर रही थी.कविता या कि संपूर्ण साहित्य के उत्स और आरोहण को मूर्त देखना कितना सहज है और कितना दुर्लभ,यह अनूभूति 'हमारे साहित्य और समाज में महिलायें' विषय पर आयोजित त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्टी (२६,२७ एवं २८ मार्च २००८/रामगढ़ और नैनीताल)) में जाकर हुआ.यह अपनी तरह का एक अलग आयोजन था.इसमें शामिल होने से पहले बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं थी क्योंकि संगोष्ठियों, समारोहों और और सेमीनारों विपुलता के बावजूद हमारी हिन्दी पट्टी में साहित्य और संस्कृति को लेकर कोई खास उत्साह दिखाई नहीं देता है.ऐसा लगता है कि जैसे बाकी सारे काम चल रहे हैं वैसे ही यह भी,एक रस्मी,रवायती अंदाज में कदमताल कर रहा है॥शायद इसी वजह से लग रहा था कि यहां भी वैसा ही होगा जैसा कि आमतौर पर हर 'राष्ट्रीय संगोष्ठी' में होता है; उद्घाटन-समापन, चर्चा-परिचर्चा,बहस-मुबाहसा ,खाना-पीना,गपशप,पते -फोन नंबरों का आदान-प्रदान,टीए-डीए,नमस्ते-टाटा-बाय-बाय-फिर मिलेंगे....लेकिन इस आयोजन में यह सब होते हुए भी यह सब ही नहीं था.इसके पहले दिन की 'रपट' पिछली पोस्ट में लिख चुका हूं .आज बाकी दो दिनों पर थोड़ी बात कर लेते हैं.

ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद मंद था अनिल बह रहा


नैनीताल क्लब के सभागार में चले इस कार्यक्रम पर अखबारों में काफी कुछ छप चुका है,उसका दुहराव मेरी मुराद नहीं है दरअसल मैं तो इस बात का मुरीद हो गया कि आज ऐसे समय में जबकि साहित्य और समाज के रिश्तों पर बात करना बेमानी -सा माना जाने लगा है तब दूर दराज के गांवों से आई ठेठ-साधारण-सामान्य महिलाओं के रू-ब-रू विद्वतजन और रचनाकारों की मुठभेड़ का ऐसा मौका कम से कम मुझ जैसे एक सामान्य पाठक को लंबे समय तक याद रहेगा.ऐसा नहीं है यह पहली बार हुआ है. इस तरह के या इसी से मिलते जुलते आयोजनों के बारे में सुना-पढ़ा था,खासकर दलित रिसोर्स सेंटर के कार्यक्रमों के बारे में, लेकिन इस प्रकार के आयोजन को देखने,इसमे सहभागी बनने का यह पहला अवसर था. नाटक 'कगार की आग '(हिमांशु जोशी) के मंचन और प्रतिभागियों द्वारा शोधपत्रों के प्रस्तुतिकरण के अतिरिक्त २६ एवं २७ मार्च का मुख्य कार्यक्रम समाज और साहित्य में स्त्री की उपस्थिति तथा उससे संबद्ध विमर्श पर केंद्रित कथाकार-एक्टीविस्ट सुधा अरोड़ा के आधार वक्तव्य बाद तीन कहानियों-'फैसला'(मैत्रेयी पुष्पा),(लड़कियां' (मृणाल पांडे),और 'सुहागिनी '(शैलेश मटियानी) के पाठ तथा उन पर परिचर्चा का था.सुधा अरोड़ा ने अपने वक्तव्य में स्त्री विमर्श के वैश्विक और भारतीय संदर्भों का उल्लेख करते हुए इस बात पर जोर दिया कि स्त्री पर होने वाली हिंसा जितनी दैहिक है उससे कहीं ज्यादा मानसिक है.हिंसा केवल वही नहीं करता जो हाथ उठाता है बल्कि उससे कहीं ज्यादा तीखी और तीव्र हिंसा 'मेज पर झुका हुआ एक घुन्ना आदमी' कर जाता है और कमाल है कि उसकी कहीं कोई रपट दर्ज नहीं होती.

'फैसला',लड़कियां' और 'सुहागिनी' तीन अलग-अलग स्वर की कहानियां है।पहली कहानी में एक विवाहिता के निजी संसार से सार्वजनिक संसार में प्रविष्टि के द्वंद्व और दुचित्तेपन की कथा है जो कथ्य और शिल्प दोनो स्तरों पर जागतिक कम निजी अधिक है.दूसरी कहानी एक बालिका की निजता ,स्वत्व और लैंगिक पहचान के उहापोह की पड़ताल है.कथ्य और शिल्प दोनो स्तरों पर इसकी बेधक मार पहली कहानी से कहीं आगे और अधिक है.तीसरी कहानी सामाजिक,परिवारिक कुलशील के कुचक्र में कैद एक स्त्री के अवास्तविक स्वप्न और स्वत्व की कथा है.ऐसा नहीम है कि इन तीनों कहानियों पर मैं कोई निर्णय दे रहा हूं.इसे एक पाठक की त्वरित टिप्पणी भर समझा जाय तो ठीक है किंतु इसमें कोई दो राय नहीं है कि ये तीनों कहानियां स्त्री द्वारा अपने लिए स्पेस के तलाश की कहानियां हैं; एक ऐसा स्पेस जिससे उन्हें वचित कर दिया गया है ,यथार्थ ही नहीं स्वप्न में भी उस ओर ताकने की मनाही है.इस स्पेस की द्युति कहीं -कभी दीख जाती है कभी महिला आरक्षण के नाम पर,कभी देवी के नाम पर और कभी सौभाग्य के नाम पर. बाकी तो 'दुख ही जीवन की कथा रही'.


जाने दो वह कवि कल्पित था
मैंनें तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है।


वे स्त्रियां जिनका साहित्य से उस तरह वास्ता नहीं है जैसा कि हम जैसे लिखने-पढ़ने वाले लोगों का है,जो हाशिये पर रहते हुए अपने स्वत्व की तलाश ही नहीं कर रह रही हैं बल्कि उसे अपने स्तर पर हासिल करने की जद्दोजहद में अपने खुरदरे जीवन को एक आकार दे रही हैं,उन स्त्रियों के समक्ष अन्य के द्वारा लिखी गई उनके स्व की कहानियों का पाठ और और मुख्यतः उन्हीं के द्वारा परिचर्चा को देखना-सुनना मेरे लिए एक अद्भुत अनुभव था.कहानी कैसे बनती है और कैसे अपने पात्रों,अपने समाज तक पहुंचती है इसका प्रत्यक्ष साक्षात्कार उन्हें भी हुआ जो कहानियां लिखते हैं ,उन्हें भी जो कहानियां पढ़ते-पढ़ाते हैं और उन्हें भी जो न तो कहानियां लिखते हैं,न पढ़ते हैं,न पढ़ाते हैं बल्कि जिनका संपूर्ण जीवन ही एक असमाप्त कथा हैं. इस परिचर्चा में कहानियों का एक ऐसा पाठ उभर कर आया जो हिन्दी साहित्य और हिन्दी एकेडेमिक्स में हाशिये पर भी नहीं आता.पद ,पैसा और पुरस्कार के प्रवहमान पाखंड में आकंठ डूबती-उतराती, उभचुभ करती था कभी कभार इनसे निरपेक्ष एक वायवी संसार में विचरण कर मुग्ध-मुदित होती, कभी इनकी निस्सारता से खीझती-खिसियाती हमारी इस छोटी-सी साहित्यिक बिरादरी के लिये यह आयोजन काबिले गौर है. सवाल वही है,अगर गौर करना चाहें तो....

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

यह तो बड़ा अनूठा आयोजन लगा- आपने मेल जोल कर लिखा उतना ही अनूठा - अब इस बात को जानने की लालसा है कि हाशिये पर स्वत्व की तलाश में विषय विशेष की किस प्रकार की प्रतिकियाएं रही होंगी उन सारी कहानियो पर - (चूंकि आप वहाँ साक्षात् रहे) - यदि आप इस संवाद को अगली कड़ी तक ले जाएँ - तो इस पर भी विचार करने की सोचें - सादर - मनीष