बुधवार, 7 मार्च 2012

होली है और क्या !


कहीं नहीं दीखते टेसू
कहीं नहीं नजर आता पलाश।

शब्द में , स्वर में , स्वाद में
तलाश रहा हूँ
खोया हुआ - सा मधुमास।

कल से आज तक गुझिया , नमकीन , मिठाई , बेसन पापड़ी,मठरी बनाने का सिलसिला चल रहा है ; साथ में चखने के बहाने खाने का भी. एक खटका यह भी लगा हुआ है कि कहीं गैस सिलिन्डर साहब समय से पहले ही ओके ,टाटा , बाय - बाय, सीयू न कर जायें. अरे , अभी दही बड़े और पूआ-पूड़ी तो बाकी ही है. क्या किया जाय अब आदमी त्योहार मनाना तो नहीं छोड़ देगा. ( मनाना = खाना ). अगल - बगल गाना - बजाना चल रहा है...होली के दिन गुल खिल जाते हैं ..अपनी छत के गमलों में लगे गुल तो मुरझाने की ओर अग्रसर हैं .फिर भी अपन छुट्टी की मौज कर रहे हैं. अब तो बच्चों का अगला पेपर भी एक सप्ताह के बाद है सो वे भी होलिया गए हैं. अभी - अभी एक मदारी बंदरों का करब दिखा कर गया है..कुल ...मिलाकर होली है और क्या !
यह मार्च महीना बड़ा जालिम होता है साठ -सत्तर के दशक के हिन्दी फिल्मी गानों में वर्णित बेदर्दी बालमा की तरह . हर महीने जो भी जित्ता बँधा - बँधाया नामा आता है उसका एक अच्छा -खासा हिस्सा इसी महीने 'आय' नहीं अपितु 'जायकर' में तब्दील हो जाता है. पहली अप्रेल अर्थात अंतराष्ट्रीय मूर्ख दिवस के दो दिन बाद से बच्चॊ के स्कूल का नया सत्रारम्भ होने वाला है , माने किताब -कापी, नया बस्ता - पानी की नई बोतल - नया लंच बाक्स - नये स्कूल यू्निफार्म , बिजली - टेलीफोन के बिल , बीमा - लोन इत्यादि की किस्तें ,राशन - पानी -कपड़े - लत्ते -जूते -चप्पल....अगड़म -बगड़म...फिर भी गुनगुना रहे हैं.. हिम्मत न हार चल चला चल...क्योंकि होली है और क्या !

'एक बरस में एक बार ही जलती होली की ज्वाला ' ऐसा सबसे बड़के बच्चन जी कह गए हैं. यह अलग बात है कि हम सब साल भर लगभग जलते रहने के लिए ही रह गए हैं. अपने आसपास जो भी घटायमान हो रहा है उसे निरन्तर देखायमान करते हुए चटायमान होते रहना और अपने मुखारविन्द पर विराजमान झींकायमान भाव को शोभायमान किए गड्डी को चलायमान किए रहना ही अपनी गति - दुर्गति है. होली के दिन मुदित - क्षुधित - द्रवित होकर यह केंचुल थोड़ी देर के लिए उतर जाती है और एक अदद दिन भर के वास्ते मौजा ही मौजा ,बाकी तो साल भर (अपना सर और) जुत्ता ही जूत्ता..अतएव एक दिन के लिए ही सही..... क्योंकि होली है और क्या !

कल अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है. अपन ने तो अभी पूरा राष्ट्र भी दे देख्या -वेख्या नहीं अंतर - राष्ट्र की बात तो बहुत दूर की है.स्त्रियन - नारियन - औरतन के हाल -हालात की बात पर तो बड़े -बड़े विद्वान ही सभा - सेमीनारों में बोले हैं ; कभू - कभू लब खोले हैं. अपन तो घर में विराजती अकेली महिला की पाक कला के कौशल और ज्ञान - विज्ञान के प्रेक्टिकल को सिर्फ स्वाद तक सीमित कर प्रशंसा के पकवान पकाते रहे और उसके श्रम में वांछित - यथोचित -किंचित साझा सहयोग करने के बजाय शर्मसार होते रहे. मेज पर झुके हुए एक घुन्ने आदमी की तरह फाग - राग, गीत - संगीत में डूबे उभ - चुभ करते रहे हैं....क्योंकि होली है और क्या !

अगर फुरसत हो और मन करे तो आप इसे पढ़ लेवें .मन न होय तो आगे बढ़ लेवें क्योंकि हर तरफ होली हुड़दंग छाय रही है. भंग का रंग अब कम ही चकाचक हुआ करे है. जियादा पढ़ -लिख लिए सो गावन - बजावन से भी मन डरे है.बस दूर से तमाशा - थोड़ी आशा थोड़ी निराशा .हाट - बाजारों में माल बहुतायत है पर गाँठ में पीसे पूरे ना हैं फिर भी होली तो मनानी है ; अजी मनानी क्या रसम निभानी है.....क्योंकि होली है और क्या !

फिर भी
छोटा - सा टीका चुटकी भर गुलाल
आप रहें राजी-खुशी और खुशहाल
मुबारकबाद !
बधाई !

.....क्योंकि 
होली है और क्या !

7 टिप्‍पणियां:

पारुल "पुखराज" ने कहा…

होली मुबारक..

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बढ़ती मन की आस,
लो आया मधुमास..

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपको सपरिवार होली की मंगलकामनाएँ!

Patali-The-Village ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति| होली की आपको हार्दिक शुभकामनाएँ|

दिगम्बर नासवा ने कहा…

रस्मी ही सही ... होली का रंग खुशबू बिखेर जाता है ...
आपको और आपके समस्त परिवार को होली की मंगल कामनाएं ...

Onkar ने कहा…

holi mubarak

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी पोस्ट चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
कृपया पधारें
http://charchamanch.blogspot.com
चर्चा मंच-812:चर्चाकार-दिलबाग विर्क>