शनिवार, 11 जनवरी 2014

मैं कहता हूँ एक चूहे को छोड़ दो कविता के अंदर : बिली कालिंस

पिछली पोस्ट के रूप में  आपने पढ़ चुके हैं  प्रसिद्ध अमेरिकी कवि बिली कालिंस की एक कविता ' लेखकों को सलाह'। इसी क्रम में आज प्रस्तुत  करते हैं उनकी एक और कविता जिसका शीर्षक  है 'कविता की शिनाख्त'। यह कविता , पढ़ने - पढ़ाने  , रचने - बाँचने  वाली  बड़ी  बिरादरी के समक्ष सतत विद्यमान उस यक्ष प्रश्न को उठाती है  कि  कविता  आखिर क्या है ? कविता के होने को हम कैसे  अनुभव करते हैं ? हम कैसे कविता  को बरतते है तथा उससे क्या  , कितनी  और किस किस्म की उम्मीद रखते हैं...? आइए , साझा करते है इस कविता को :


बिली कालिंस की कविता
कविता की शिनाख्त
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

मैं कहता हूँ उनसे कि एक कविता लो
और  रोशनी की ओर कर उसे देखो
एक रंगीन स्लाइड की तरह।

या फिर अपना कान सटाओ इसके छत्ते से।

मैं कहता हूँ एक चूहे को छोड़ दो कविता के अंदर
और देखो कि कैसे खोजता है वह बाहर आने की राह।

या घुसकर घूमो कविता के कक्ष के भीतर
और महसूस करो दीवारों को बिजली के स्विच की खातिर।  

मैं चाहता हूँ कि वे वाटर- स्की करें
किसी कविता की सतह के ओर - छोर
और तट पर लिखे रचयिता के नाम की ओर हिलाते रहें हाथ।

लेकिन वे जो करना चाहते हैं वह  है यह
कि रस्सी से बाँधकर कविता को कुर्सी संग
उससे करवाना चाहते हैं कुछ कुबूल।

वे शुरू करते हैं उसे एक पाइप से पीटना
ताकि जान सकें कि क्या है इसका सचमुच का अर्थ।
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* ( चित्र : क्रिस लोकार्ट  की  कृति  'स्ट्राबेरी  पोएम', गूगल छवि से साभार)

3 टिप्‍पणियां:

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

पाठकों पर..और कवि पर भी..तंज है। पढ़कर आनंद आया।

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

बहुत सुंदर !

वर्षा ने कहा…

ऐसी चेतावनियां वक्त वक्त पर जारी की जानी चाहिए...डर भी लग गया