इस बीच लिखत - पढ़त बहुत कम हुई। यूँ भी कहा जा सकता है कि पढ़ा ज्यादा, लिखा न के बराबर। मुझे बार - बार ऐसा लगता है कि एक अंतराल में / के लिए न लिखा जाना कुछ और / आगे लिखे जाने की तैयारी है। इस बीच एक उपन्यास पढ़ रहा हूँ जिसे पिछले विश्व पुस्तक मेले से खरीद लाया था लेकिन वह अब तक अनपढ़ा ही रह गया और अब अगले महीने जब फिर एक बार दुनिया भर की किताबों के मेले में जाने की तैयारी है तो उस किताब पर प्यार उमड़ आया है। काम धाम के बीच - बीच में कविताओं से गुजरना प्राय: रोज होता ही है।आज और अभी सोने से पहले ,मन है कि एक छोटी-सी फ़िन्निश कविता इस ठिकाने पर सबके साथ साझा की जाय - कवि हैं आरो हेलाकोस्की (1893-1952) ;उनकी कुछ और कवितायें और संक्षिप्त परिचय बहुत जल्द ही यहीं , इसी जगह... अभी तो बस यह कविता...
आरो हेलाकोस्की की कविता
जंगल में चाँदनी
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)
चमक रही है
एक अजानी रोशनी
वन प्रांतर के जादुई पथ पर
न कहीं से आती
न कहीं को जाती हुई
उड़ गई है मेरी परछाईं
मैं हूँ अब
अदेह
और चाँदनी में घुलनशील
मेरी नींद
अटकी हुई है
बीच हवा में
और मेरे हाथ छू रहे हैं शून्य।
--
(चित्र : जीना रेनॉल्ड्स की पेंटिंग , साभार)
10 टिप्पणियां:
सुंदर अनुवाद!
अस्तित्व का लहराता अक्षर..
मेरी नींद
अटकी हुई है
बीच हवा में
और मेरे हाथ छू रहे हैं शून्य...
Bahut Sundar :)
sundar...
अमूर्तन कुछ ज़्यादा ही हो गया
गहरे भाव लिए सुंदर प्रस्तुति... समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका सवागत है http://mhare-anubhav.blogspot.com/
अति सुन्दर.
चर्चा मंच से यहाँ चला आया हूँ.
अच्छा लगा यहाँ आकर.
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है.
lagta hi nahin ki yah anudit kavita hai
bahut hi sundar rachna ka anuvad kar prastut karne ke liye dhanyavaad.
क्या आपकी उत्कृष्ट-प्रस्तुति
शुक्रवारीय चर्चामंच
की कुंडली में लिपटी पड़ी है ??
charchamanch.blogspot.com
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