दैनिक भास्कर समूह की प्रस्तुति लोकप्रिय मासिक पत्रिका ' अहा जिन्दगी' के फरवरी २०१२ अंक में मेरे द्वारा अनूदित सीरियाई कवि निज़ार क़ब्बानी (१९२३ - १९९८ ) की ग्यारह कवितायें '...जैसे समुद्र से निकलती हैं जलपरियाँ' शीर्षक से प्रकाशित हुई हैं।पत्रिका के संपादक आलोक श्रीवास्तव और उनकी टीम के प्रति आभार सहित उनमें से एक कविता 'कर्मनाशा' के पाठकों व प्रेमियों के साथ आज साझा कर रहा हूँ...
मेरी चाह से परे
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)
मेरी चाह से परे
तुममें शेष नहीं है जीवन
मैं तुम्हारा समय हूँ
मेरी बाहों से परे
कुछ भी नहीं है तुम्हारे होने का अर्थ।
मैं तुम्हारे सारे आयामों का समुच्चय हूँ
मैं हूँ तुम्हारे कोण तुम्हारे वृत्त
तुम्हारे वक्र तुम्हारी रेखायें।
जबसे तुम प्रविष्ट हुईं
मेरे वक्षस्थल के वन प्रान्तर में
तबसे तुम्हारा प्रवेश हुआ आजादी के भीतर।
जिस दिन से तुमने मुझे बिसरा दिया
तुम क्रीतदासी हो गईं
एक कबीलाई सरदार के अधीन।
मैंने तुमको सिखलाई पेडों की नामावली
और रात व झींगुरों के बीच का संवाद
मैं तुम्हे पते दिए
सुदूर नीहारिकाओं में अवस्थित सितारों के।
मैंने वसंत की पाठशाला में तुम्हा दाखिला करवाया
और सिखाई चिड़ियों की बोली - बानी
नदियों की वर्णमाला।
मैने बारिश की अभ्यास पुस्तिकाओं में
बर्फ़ के कागज पर
चीड़ के कोन पर
लिक्खा तुम्हारा नाम।
मैंने तुम्हें सिखलाया
खरगोश और लोमड़ियों के वार्तालाप का मर्म
और उतरती सर्दियों की भेड़ के बालों में कंघी करना।
मैंने तुम्हें दिखाए पक्षियों के अप्रकशित पत्र
मैंने तुम्हें दिया
हेमन्त और ग्रीष्म का मानचित्र
ताकि तुम जान सको
कि कैसे अंकुरित होता है गेहूँ
कैसे झाँकते हैं छोटे - छोटे चूजे
कैसे खुशियाँ मनाती हैं मछलियाँ
कैसे चंद्रमा के स्तनों से बाहर आता है दूध।
लेकिन तुम थक गईं आजादी अश्वारोहण से
इसलिए उसने उतार दिया तुम्हें
तुम क्लान्त हो गईं मेरे हृदय के जंगल में
रात और झींगुरों का संगीत तुम्हें सुहाया नहीं देर तक
तुम खीझ गईं
चाँद की चादर वाले बिस्तरे की निर्वसन नींद से।
इसलिए
इसीलिए
तुमने त्याग दिया जंगल
कबीलाई सरदार ने बलपूर्वक अपहरण कर लिया तुम्हारा
और तुम लील ली गईं भेड़िए द्वारा।
4 टिप्पणियां:
सभी अनुवाद बहुत बढ़िया हैं!
इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
बहुत बढ़िया ||
bahut sundar
'अहा ज़िन्दगी' में ही पढ़ डाली थीं सारी कवितायें. सुन्दर अनुवाद है.
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