शनिवार, 8 दिसंबर 2007

शेष फिर : अभी बस इतना ही

नदी
चली जायेगी

यह कभी न ठहरेगी ।
रुकना तो बस खुद को पड़ता है
झुकना तो बस खुद को पड़ता है
इस दुनिया के जातें के पाटों के बीच
पिसना तो बस खुद को पड़ता है ।

नदी कहाँ सुनती है जग की बात
उसको बस चलना ही है दिन रात
जहाँ जिधर भी मिल जाये इक रह
उसको क्या है इस- उसकी परवाह ।

अपनी यह नदिया भी चलती जायेगी
मन की शायद कुछ बाधा आएगी !

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