आज शनिवार की यह रात ; माना कि तकनीकी
तौर पर अब इतवार शुरू हो गया है लेकिन रात तो शनिवार की ही है - सो आज की रात
कुछ (और) देर तक जगा जा सकता है (और कल सुबह देर तक सोया जा सकता है !) यही सोच
समझ कर आज कुछ हल्का फुल्का पढ़ा गया , टीवी पर पर एक पुरानी (हालांकि
उतनी पुरानी भी नहीं !) फिल्म 'प्रेम गीत' का बच्चों के साथ दर्शन
किया गया , कुछ गाने सुने गए जिनमें से एक गाना 'जोगिया दे कन्ना विच कांच दिया
मुंदरा ..मुंदरां दे विच्चों तेरा मूं दिसदा.. ' बड़ी देर तक आसपास छाया रहा
, डोलता रहा और अब जबकि रात गहरा गई है , सोने से पहले तुर्की कवि अहमेत
हासिम (१८८४ - १९३३) की दो कवितायें जिनका अभी कुछ ही देर पहले अनुवाद पूरा किया
है, को कविता प्रेमियों के साथ साझा करने का मन है। आइए.. इन्हें
देखते पढ़ते हैं । तो प्रस्तुत हैं ये दो कवितायें :
दो कवितायें : अहमेत हासिम
( अनुवाद: सिद्धेश्वर सिंह )
सरोवर
बहुत गहरी
बहुत घनीभूत हो गई है रात्रि
मेरे प्रियतम ने मुस्कान बिखराई है
अपनी ऊँची अटारी से
मेरा प्रियतम जो दिन के उजाले में आ न सका
अभी प्रकट हुआ है रात में
सरोवर तट पर।
चाँदनी कमरबंद बन गई है
आकाश घूँघट
और उसकी हथेलियों पर
उदित हो रहे हैं अनगिन सितारे।
अंधकार
प्रेम की इस अंधरात्रि में
वन्या बुलबुल
गाए जा रही है फिर फिर
क्या लैला ने बिसार दिया मजनू को ?
मैं सोच रहा हूँ
क्या फिर छिड़ेगा राग बिछोड़ा
क्या फिर फिर बजेगी
प्रेम दीवानी बुलबुल की करुण टेक।
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( चित्र : पीटर अलेक्जेंडर की की पेंटिंग )
4 टिप्पणियां:
Wah! Bahut sundar!
ati sundar panktiyan............
यदि हम किसी भी देश, समाज, संस्कृति के कवियों की प्रेम कविताएँ पढ़ें तो समझ जाएँगे कि यह भावना हर जगह बिल्कुल एक है। कोई अन्तर नहीं है।
अच्छा लगा तुर्की कवि अहमेत हासिम की कविताएँ पढ़ना। आभार।
घुघूती बासूती
बड़ी प्यारी, खुशी और उदासी भरी कविताएं। प्यारा सा अनुवाद।
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