गुरुवार, 17 मार्च 2011

कविता समय - 2011 : हुआ कुछ इस तरह

पिछले दिनों 25 और 26 फरवरी 2011 को ग्वालियर में संपन्न 'कविता समय' के पहले वार्षिक आयोजन की बहुत सी  खबरें व रपटें प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीडिया के  कई मंचों पर प्रमुखता से आ चुकी हैं। हिन्दी भाषा व साहित्य , विशेषकर हिन्दी कविता से सरोकार रखने वाले लोगों के बीच इस आयोजन को गंभीरता से लिया गया है। समय - समय  पर उठने व नेपथ्य में चले जाने वाले तरह - तरह के वाद - विवाद -प्रतिवाद के बावजूद कविता व उसके होने की जरूरत निरंतर है और उस पर खुलकर सतत संवाद किए जाने की जरूरत  भी  बनी हुई है। कविता से आस -विश्वास - उम्मीद  की राह खोजने के सिलसिले में जुटे कवियों  तथा कविता प्रेमियों की  जो दो दिवसीय बैठक शहर ग्वालियर में हुई थी उसकी दो  अलग - अलग रपटें  एक साथ प्रस्तुत हैं - पहले दिन की रपट प्रतिभा जी ने लिखी  है और  दूसरे दिन मैंने  :



कविता समय : पहला दिन
( रपट : प्रतिभा कटियार)

* मिस्र, यमन, बहरीन की सुर्खियां घेरे हुए थीं. सड़कों पर लोगों का हुजूम. महापरिवर्तन का दौर. जनान्दोलन से बड़ी रूमानियत कोई नहीं होती. मैं उसी रूमानियत के असर में थी कि 'कविता समय' से बुलावा आया. कविता समय. सचमुच जब समूचा विश्व जल रहा हो तो कविता का ही तो समय है. कविता समय में शामिल होने के लिए लखनऊ से निकलते समय मेरे मन में एक बात यह भी छुपी थी कि हो सकता है कि ग्वालियर शहर का एक कोना हिंदुस्तान का तहरीर चौक ही बन जाए.

मैंने हमेशा महसूस किया है कि जब हम नेक इरादे से कोई काम करते हैं, तो रास्ते अपने आप बनते चले जाते हैं. शायद यही वजह रही होगी कि ग्वालियर की यह यात्रा यादगार खुशनुमा यात्राओं में से एक रही. ग्वालियर स्टेशन पर अशोक कुमार पाण्डेय सहित रविकांत, कुमार अनुपम, प्रांजल धर से मुलाकात हुई. ऊर्जा, गति और उत्साह का समन्वय ऐसा कि झटपट हम अपने कमरों में पहुंचे. रात की थकान को जब कमरे का सन्नाटा और एक कप गर्म चाय मिली तो सुकून मिला. ऐसे एकान्त बड़ी मुश्किल से मयस्सर होते हैं. उसी एकान्त में खुद से बात की तो महसूस किया जेहन में सवाल उठा कि देश में कब कोई जनान्दोलन खड़ा होगा? क्या हमारी कविताएं सचमुच ऐसा काम कर रही हैं कि किसी जनान्दोलन की बुनियाद पड़ सके. समय तो सचमुच विकट है. चुंधियाती चमक की नींव के गहरे अंधेरे चीखते हैं. असल हालात जीडीपी ग्रोथ की झूठी चमक के पीछे छुपाये ही तो जा रहे हैं. ऐसा समय कविता का ही तो समय है. ऐसे ही हालात में तो कविताएं उपजती हैं. अन्याय, शोषण, कुंठा, अवसाद के अंधेरे को चीरती ताकतवर कविताएं, जिन्हें पढ़ते हुए महसूस हो कि यह आज के दौर में रोटी से ज्यादा जरूरी हैं.

खुद से सवाल जवाब का यह दौर आगे बढ़ता, तब तक हमारी बस आ चुकी थी. वो बस जिसमें बैठकर हमें कविता के संकटों का सामना करने जाना था. बस में पहले से कवियों का जमावड़ा था. मजे की बात है कि हम सब एक-दूसरे से खूब वाकिफ थे और उतने ही नावाकिफ. चेहरे अनजाने, लेकिन नाम बेहद आत्मीय. जब चेहरे पर नाम की पर्ची चिपकी दिखती तो लोग आपस में लपक कर मिलते. ऐसी आत्मीयताएं सहज ही देखने को नहीं मिलतीं.ग्वालियर एक सुंदर शहर है. सुना था. अब देख भी रही थी. बस की भी एक लय थी. अंदर कवियों की गाढ़ी आत्मीयता का मौसम था और बाहर बसंत शहर को मोहक बना रहा था. तकरीबन 20 मिनट का सफर तय करने के बाद हम आई टी एम यूनिवर्स के कैम्पस में थे. सुंदर कैम्पस.

चारों ओर हरियाली, खूबसूरत स्कल्पचर, स्टूडेंट्स का जमावड़ा और तरतीब से सजाया गया कैम्पस. हालांकि कार्यक्रम में थोड़ा सा विलंब हो चुका था लेकिन अशोक कुमार पाण्डे, बोधिसत्व, गिरिराज किराडू के शांत और संतुलित व्यवहार ने सब संभाल रखा था. एक सुंदर सा कॉन्फ्रेंस हॉल हमारे इंतजार में था. सुनने वालों में कुछ स्थानीय लोग और छात्र भी थे. कॉन्फ्रेंस हॉल में पहले से मौजूद कवियों से संक्षिप्त औपचारिक मेल-मुलाकात हुई. और कार्यक्रम की अनौपचारिक शुरुआत हुई.अशोक वाजपेयी, नरेश सक्सेना और मदन कश्यप, आशुतोष मुख्य वक्ता थे. हम सब उन्हें सुनने के लिए थे. गंभीर मुद्दे पर गंभीर बात होनी थी. जिसकी बुनियाद पड़ी बोधिसत्व जी के आरोप पत्र से. आज की कविता पर लगने वाले आरोपों की फेहरिस्त उन्होंने पढ़कर सुनाई. जाहिर है दो दिन तक कविता समय को उन्हीं आरोपों से जूझना, उबरना था.

यूं आधार वक्तव्य देना था आशुतोष जी को लेकिन उन्हें आने में होने वाली देरी के चलते यह जिम्मेदारी मदन कश्यप जी को दी गई. मदन कश्यप जी ने बहुत मजबूत ढंग से कविता के यूटोपिया को रेखांकित किया. उन्होंने अपने वक्तव्य में किसान, आदिवासी, जगंल, नौजवानों की रोजगार की समस्याओं की चर्चा करते हुए कहा कि कविता समानता आधारित समाज की संरचना करती है. उसे ऐसा करना चाहिए. इस बीच आशुतोष जी आ चुके थे. और उन्होंने अपने हिस्से का मोर्चा संभाल लिया था. आशुतोष जी ने अपने वक्तव्य में पाठक का पक्ष लिया. कि पाठक अच्छी कविता पढऩा चाहता है लेकिन उसे कविता खुद से दूर खड़ी नजर आती है. हालांकि सवाल यह भी उठा कि कविताओं के सामने पाठकों का यह संकट, चंद संपादकों, प्रकाशकों का खड़ा किया हुआ है. नरेश सक्सेना ने कविता की मजबूत उपस्थिति के लिए पलायन से बचने को कहा. उन्होंने कहा कि अच्छी कविता के साथ हमें आगे आना चाहिए न कि मंच छोड़ देना चाहिए. उन्होंने ध्वनि को कविता का अंश बताया कि किस भाषा में हम संवाद कर रहे हैं, किससे कर रहे हैं यह देखना बहुत जरूरी है. हमारी कविता उस संप्रेषणीयता को अपना रही है या नहीं यह देखना, समझना जरूरी है. पाठक और कविता के बीच की दूरी को मिटाने के लिए यह बेहद जरूरी है कि हमारी बात सही ढंग से कम्युनिकेट हो. अशोक वाजपेयी का वक्तव्य सुनने की व्यग्रता सभी में थी. उन्होंने कवि और कविता की प्रतिबद्धता को घेरे में लिया. उन्होंने प्रगतिवादियों की चुटकी लेते हुए कलावाद के पक्ष में माहौल तैयार किया.

कई सवाल उनके सम्मुख आने को आतुर थे लेकिन घड़ी के कांटे तेजी से भाग रहे थे और पेट में चूहों की पूरी फौज दौड़ लगा रही थी. तो फिलहाल कविता के संकट को समेटा गया और खाने का संकट हल किया गया. यह सचमुच एक बेहतरीन आयोजन था. क्योंकि खाना कमाल का था. खाने का समय हमेशा आत्मीयताओं के लिए अनुकूल समय होता है. कवियों के मेल-मिलाप का समय. हाथ में थालियां, मुंह में स्वादिष्ट गस्से और सामने अपने प्रिय कवियों का तार्रुफ. एक बात इस पूरे आयोजन की एक खासियत रही वो यह कि माहौल इतना अनौपचारिक और सहज था कि लग ही  नहीं रहा था कि हम देश के कोने-कोने से आये लोग हैं और ज्यादातर पहली बार मिल रहे हैं. अपना परिचय देते ही सुनने को मिलता था, हां, आपको देखा है. पढ़ा भी है. जमशेदपुर से सिर्फ़ इस कार्यक्रम को देखने-सुनने आई अर्पिता चिहुंककर बोल पड़ी, अच्छा लगता है न जब कोई अनजाना कहे कि हम आपको जानते हैं, आपकी कविताओं से. हां, अच्छा तो लगता है, मैं मुस्कुरा दी. सब एक-दूसरे को जान-समझ रहे थे. कैम्पस का मौसम इतना खुशगवार था कि पैदल ही इधर से उधर टहलने में आनन्द आ रहा था. मानो पूरा मौसम और माहौल कविता की अगवानी में तैयार किया गया हो.

अगला सत्र था अलंकरण और विमोचन का. मंच पर अशोक वाजपेयी, नरेश सक्सेना, मदन कश्यप थे. कविता समय सम्मान 2011 चंद्रकांत देवताले जी को दिया गया. चूंकि अस्वस्थ होने के कारण वे नहीं आ सके थे इसलिए उनकी ओर से सम्मान प्रेमचंद गांधी ने लिया और उनके द्वारा भेजा गया संदेश भी पढ़ा. नामवर जी का वीडियो संदेश दिखाया गया जिसमें उन्होंने कवियों को दूसरी विधाओं में भी लिखने का आग्रह किया. 'कविता समय युवा सम्मान-2011' कुमार अनुपम को दिया गया. इसके बाद कविता पाठ का सिलसिला शुरू हुआ. बेहद अनौपचारिक माहौल में चल रहे इस कार्यक्रम में सारे नियम, कायदे कोने में सहमे पड़े थे. वरिष्ठता और कनिष्ठता की दीवार अशोक पाण्डे ने गिरा ही दी थी. बीच-बीच में कवियों का सम्मान भी होता जा रहा था. कविताएं पढ़ी जा रही थीं. मानो कोई पारिवारिक उत्सव हो, जहां कविता जमकर बैठ गई हो. अशोक वाजपेयी जी ने अपनी कविताएं पढ़ी, मदन कश्यप, ज्योति चावला, पंकज चतुर्वेदी, प्रियदर्शन मालवीय, केशव तिवारी, कुमार अनुपम, सुमन केशरी, अरुण शीतांश निरंजन क्षोत्रिय, प्रांजल धर, विशाल श्रीवास्तव सहित तमाम लोगों ने कविताएं पढ़ीं. अरे हां, मैंने भी अपनी दो कविताएं पढ़ीं. लेकिन अंत में नरेश जी ने शाम अपने नाम कर ली. उनकी कविताओं का स्वाद सबकी जबान पर चढ़ा हुआ था. लोगों ने उनसे खूब कविताएं सुनीं.पहले दिन कविता का संकट तो बहुत हल नहीं हुआ लेकिन हां उसकी मजबूत बुनियाद जरूर पड़ी. इसी बुनियाद पर अगले दिन के विमर्श को खड़ा होना था. कवियों को बस में बैठकर डिनर के लिए शहर को वापस जाना था. एक पूरी बस कवियों से भरी हुई. बोधिसत्व जी ने मजाक में ही कह दिया कि अगर यह बस गायब हो जाये तो हिंदी कविता से कितना बड़ा संकट हल हो जायेगा...इतना कहकर वे खुद बस से उतर गये...बस ठहाकों से गूंज उठी.

एक सार्थक दिन बीत चुका था. बतकही, हाल-हवाल, खींच-तान का माहौल बचा था. जिसकी कसर पूरी हुई डिनर हॉल में. खाने के बाद आइसक्रीम का दौर, फोटू खिंचवाने की कवायद और मेल-मिलाप...इस तरह कविता समय का पहला दिन सार्थक दिन बनकर विदा हुआ...मुझे अगले दिन निकलना था इसलिए अगले दिन का अनुभव अगली कड़ी में साझा करने की जिम्मेदारी सिद्धेश्वर जी की...


कविता समय : दूसरा दिन

* दूसरे दिन का पहला सत्र आधे घंटे की देरी से आरंभ हुआ जिसका विषय था - ‘कविता का संकट: कविता, विचार और अस्मिता’। फिर वही आईटीएम युनिवर्स के रेनॉल्ड्स ब्लॉक का सुसज्जित सभागार जिसमें एक दिन पहले 'कविता का संकट' पर गंभीर चर्चा हो चुकी थी तथा उसकी / उसके समक्ष विद्यमान चुनौतियों  के संदर्भ में आरोप पत्र व सुझाव प्रस्तुत किए गए थे। आज की बहस की शुरुआत करते हुए सुमन केशरी ने कहा कि कविता की व्याप्ति , वैचारिकता व व्यामोह पर बात करने  की जरूरत आज इसलिए  है कि  हमारे समय की ( हिन्दी) कविता वैचारिक अतिवाद से ग्रस्त दिखाई देने लगी है। जब सुमन जी ने मध्यमार्ग की बात की तो  प्रतिभागियों / श्रोता - दर्शकों के बीच से बार - बार बजरिए पाश ' बीच का रास्ता नहीं होता' की आवाज आने लगी लेकिन सुमन जी ने कहा कि मध्यमार्ग  जैसे शब्द को ठीक से देखे जाने की आवश्यकता है। इस सिलसिले में उन्होंने बुद्ध और सुजाता का उल्लेख भी किया तथा आज की दुनिया में स्त्री - पुरुष / परिवार के परिवर्तित हो रहे संबंधों  का जिक्र भी किया। जितेन्द्र श्रीवास्तव ने  कविता में संप्रेषणीयता, लोक तत्व, विविधवा का अभाव , लोकप्रिय तत्वों की विरलता व लयात्मकता के तिरोहित होने की ओर संकेत करते हुए  इस संदर्भ में सजग - सचेत होने की बात कही। जितेन्द्र जी का जोर था कि लोकप्रिय तत्व हमेशा बुरे नहीं होते उनका सही तरीके से सही जगह इस्तेमाल संप्रेषणीयता के संकट को दूर ही करेगी। जितेन्द्र जी द्वारा उठाए गए इस प्रसंग में सदन के मध्य मंचीय कविता का उल्लेख हुआ और एक बात सामने आई कि हम सबने ही मंच को छोड़ा है जबकि उसके सकारात्मक प्रयोग की गुंजाइश निरन्तर बनी हुई है।जितेन्द्र श्रीवास्तव अपने साथ शिल्पायन  से सद्य: प्रकाशित अशोक कुमार पांडेय के पहले कविता संग्रह 'लगभग अनामंत्रित' की कुछ प्रतियाँ लाए थे जिसे मित्रों ने बहुत ही आत्मीय व अनौपचारिक तरीके से विमोचित किया- बिना किसी तामझाम व दिखावट से दूर।

बहस में हस्तक्षेप करते हुए ज्योति चावला ने कई विचारोत्तेजक प्रश्न उपस्थित किए। उनका कहना था कि अस्मिता के साहित्य पर आरोप लगाने वालों को यह सोचना चाहिये कि ऐसा क्या और क्यों  है कि प्रतिष्ठित पुरस्कारों की नामावली से महिलायें, दलित और मुसलमान लगभग ग़ायब हैं? उन्होंने आयोजकों को भी कटघरे में खड़ा करते हुए सवाल किया कि यहां, इस आयोजन में इन वर्गों का प्रतिनिधित्व आखिर कम क्यों है? ज्योति के इन प्रश्नों से प्रश्न / प्रतिप्रश्न का का दौर शुरू हो गया\ धेर सारे सवाल उपस्थित हुए कुछ का जवाब तुरंत दिया गया और बाकी सवालों को संचालक गिरिराज किराड़ू ने बाद के लिए सुरक्षित कर लिया।  

नलिन रंजन सिंह ने अपने लिखित परचे का वाचन करते हुए कहा कि कविता का संकट दरअसल पूरे समाज का संकट है। ऐसा नहीं है कि अच्छी कविता नहीं लिखी जा रही है बल्कि संकट यह है वह अपने पाठक तक नहीं पहुँच पा रही है उन्होंने यह भी क कि कि कविता का संकट सिर्फ़ कविता के भीतर का संकट नहीं है इसलिए उसे दूर करने के उपय भी सिर्फ़ कविता के भीतर ही नहीं खोजे जा सकते। प्रियदर्शन मालवीय ने बार - बार विजयदेव नारायण साही को उद्धृत करते हुए साहित्य व साहित्यिकों के बीच  व्याप्त वैचारिक खेमेबंदी की ध्यान दिलाया।पंकज चतुर्वेदी ने  रघुवीर सहाय  की कई  कविताओं उद्धृत करते हुए  कहा कि आज की कविता की सम्यक आलोचना न होना भी उसके संकट को बढ़ा रहा है। उन्होंने यह भी कहा कि कविता पर बात करते समय हमें उद्धरणॊं व उदाहरणों को भी सामने रखना होगा कि क्या और किस हवाले से कहा जा रहा है। चतुरानन ओझा ने कविता व जनपक्षधरता तथा कविता की व्याप्ति व पहुँच के विविध पक्षों पर प्रकाश डाला। सत्र के अंतिम वक्ता मदन कश्यप ने कलावाद के बरक्स जनपक्षधरता का जिक्र करते हुए कहा कि कविता से उम्मीद किए जाने वाले बाकी कामों को करने के साथ कविता अपने समय व समाज में व्याप्त होने वाली वैचारिक जड़ता को तोड़ने व उसे साफ करने का काम भी करती है।  

इसके बाद शुरू हुआ खुला सत्र जिसमें पहले से आए प्रश्नों और त्वरित रूप से उपस्थित प्रश्नों पर पर गंभीर चर्चा हुई। भोजनावकाश के बाद कविता पाठ के दूसरे दौर का  कार्यक्रम हुआ जिसमें बहुत से कवियों ने अपनी कवितयें पढ़ी। यहाँ पर प्रश्न - प्रतिप्रश्न व उत्तर - प्रतिउत्तर के के उल्लेख - नामोल्लेख से बचते हुए एक प्रतिभागी के रूप में अपने अनुभव को साझा करने के उपक्रम में मुझे यह कहना है कि 'कविता समय' का यह आयोजन एक कवि मिलन या कवि सम्मीलन भर नहीं था जैसा कि  फेसबुक जैसे मंचों पर एकाध जगह देखने - पढ़ने को मिला। यह केवल कविता पाठ का आयोजन भर नहीं था बल्कि अपने समय की कविता के जरिए / अपने समय की कविता के बहाने अपने अपने समय को देखे जाने का एक सामूहिक आयोजन था जिसने हिन्दी कवियों व उसके पाठकों - प्रेमियों के बीच उम्मीद जगाई है कि कविता की जरूरत है और निरंतर रहेगी। साथ ही यह भी कि कविता की पहुँच के संदर्भ में पत्रिकाओं के प्रकाशन - प्रसार, पुस्तक प्रकाशन उद्योग व उससे  जुड़ा  वितरणतंत्र, सूचना तकनीक के नए माध्यम व उनकी  व्याप्ति तथा स्वीकार्यता, कविता की परंपरा व उसके समग्र अध्ययन - आस्वादन  की सततता  तथा आत्मालोचन व समकालीन सृजन कर्म  से जुड़ाव की सक्रियता के संदर्भ में आयोजकों और प्रतिभागियों की गंभीरता कविकर्म के प्रति उम्मीद जगाती है। 

'कविता समय' के इस पहले आयोजन की विशिष्टता को तकनीक के नजरिए से भी देखे जाने की जरूरत है। न केवल इसकी तैयारी का लगभग पूरा संवाद सूचना की नई तकनीकों के जरिए हुआ और प्रो० नामवर सिंह के संदेश को मल्टीमीडिया की जुगत से देखा - सुना गया बल्कि इस पूरे आयोजन को इंटरनेट के जरिए पूरे विश्व में लाइव देखा - सुना गया और उसे जब चाहें देखा - सुना जा सकता है। आयोजकों और प्रतिभागियों में से अधिकतर ई पत्रकारिता और ब्लॉगिंग से सम्बद्ध हैं। कविता की व्यापक व वृहत्तर पहुँच के माध्यम के रूप में इन माध्यमों की उपयोगिता का सही इस्तेमाल बहुत जरूरी है और यह भी कि इन माध्यमों को साहित्य विरोधी मानने व गंभीरता के अभाव के आभासी अड्डे भर मान लिए जाने की दृष्टि से बदलाव भी बहुत जरूरी है।        

इस आयोजन को 'कविता समय : ०१' या 'कविता समय : २०११' के रूप में देखा जाना चाहिए क्योंकि यह एक शुरूआत है कवियों और कविता प्रेमियों के मिल बैठकर बोलने बतियाने व मिलजुलकर कुछ करने व किए जा रहे को साझा करने का। योजना यह है कि अलग - अलग जगहों पर हर साल यह आयोजन होगा। इस आयोजन में जिन मुद्दों पर बात हुई है उसे प्रिन्ट व नेट के माध्यम से जनता के बीच ले जाया जाना होगा। यह भी कि 'कविता समय' एक सालाना जलसा न बनकर रह जाय इसलिए निरंतर कुछ - कुछ होते रहना जरूरी है। यह 'कुछ - कुछ'  प्रकाशन, नेट- ब्लॉग पर उपस्थिति व कार्यक्रमों के रूप में होना चाहिए और इसके लिए कवियों को ही आगे आना होगा। 

ग्वालियर में संपन्न 'कविता समय'  का यह आयोजन अपने होने से पूर्व व पश्चात हिन्दी की दुनिया में चर्चा का विषय बन चुका है और लगातर इसे लेकर चर्चा- परिचर्चा - प्रतिचर्चा का दौर जारी है। जो लोग कविता लिखते -पढ़ते- बाँचते हैं, उसे एक गंभीर कर्म मानते हैं , उसके जरिए अपने समय व समाज को देखते हैं तथा देखे जाने की दृष्टि का परिष्कार करते हैं और तमाम संकटों एवं 'कविता के अंत' की अंतहीन चर्चाओं के बावजूद उसके होने की जरूरत को महसूस करते  हैं उनके मध्य जीवन की आपाधापी व राग - विराग - खटराग के बीच दो दिन गुजारना एक यादगार अनुभव है। आयोजकों को बधाई व सभी साथियों के प्रति आभार!  
      


7 टिप्‍पणियां:

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

विहंगम.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

विस्तृत रिपोर्ट।

Ashok Kumar pandey ने कहा…

इस रपट ने हमारी हिम्मत बढ़ाई है…शुक्रिया कैसे कहूं?

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

देर से ही सही मगर ग्वालियर में सम्पन्न कविता समय की रपट पढ़कर अच्छा लगा!

प्रशान्त ने कहा…

देर से ही सही, एक अच्छे आयोजन की अच्छी रिपोर्ट.

Vimlesh Tripathi ने कहा…

अच्छी रिपोर्ट....अच्छा लगा...आपका आभार...

Unknown ने कहा…

achha laga. ho sake to aarop patra aur anya zaroori vaktavya/ vyaakhyaan bhi post kareaar. ya link deejiye. aabhar!