मंगलवार, 8 मार्च 2011

भाषा की अवशता में जारी है सहज संवाद

सुना है
चुप्पी से टूटता है सूनापन
अकथ से बड़ा नहीं होता कोई कथ्य।
कितना अच्छा हो
यदि मंच पर
स्वयं चलकर आ जाए नेपथ्य।

( कविता में )लय से मुझे कभी कोई परहेज नहीं रही। रिद्म का आकर्षण सदैव बाँधता रहा है। सॄष्टि - प्रकृति - निसर्ग की निरंतरता - बारंबारता मे जो लय है यदि उसका अणुमात्र भी अपनी दैनंदिन साधारणता में शुष्कता को सोखता रहे व तरलता वाष्प बनकर उड़ जाने का उपक्रम न करने लगे इसके लिए किसी वृहदाकार योजना - परियोजना, नीति- रणनीति की दरकार नहीं होती शायद। हम जहाँ होते हैं, जिनके साथ होते हैं , जहाँ और जिनके साथ होना सुखकर  होने की प्रतीति से पूरित कर देता है ; वही तो है वह छोटा - सा शब्द , वही 'ढाई आखर' जिसकी विरुदावली गाते - गाते  काव्य - कलाओं के कंठ अब अवरुद्ध नहीं हुए हैं अपितु बीतते जाते वक्त के साथ और पक्का होता गया है उनका राग - रंग। आज य़ूँ ही मन हुआ है कि उसके लिए कुछ कहा जाय , कुछ तुकबंदी की जाय जिसके साथ होने से बेतुका नहीं लगता है अपने हिस्से का आसमान और अपने पाँवों के नीचे की जमीन... 



'ढाई आखर' के लिए चार तुकबंदियाँ

01-

निरर्थक हो गई है
उनकी उपस्थिति
कोई मतलब नहीं रह गया है
उनके होने का
नहीं रह गया है कोई उनके संग साथ।
आईने उदास हैं
जबसे उसके हाथ में है मेरा हाथ।

02-

जितनी बार देखता हूँ उसे
उतनी बार
दीखता है अपना ही अक्स।
नई परिभाषायें गढ़ता है दिक्काल
पृथ्वी की गति को
अभिनव परिपथ
दिए जाता है कोई शख्स।

03-

बदल रहा है मौसम
अपनत्व की ऊष्मा से
बदल रहा है संसार
दबे पाँव चलकर आ रहा है वसंत।
कितनी छोटी हो गई है दुनिया
सबकुछ अपना
अपना जैसे सब
जैसे तुम्हारी हथेलियों में
समा गये हैं दिगंत।

04-

शब्द जादू हैं
या कि अर्थों में छिपा है कोई रहस्य
भाषा की अवशता में
जारी है सहज संवाद।
मैं तुममें खोजूँ खुशियाँ
तुम मुझमें
जज्ब कर दो सब विषाद।

5 टिप्‍पणियां:

Ashok Kumar pandey ने कहा…

सुन्दर सिद्धेश्वर भाई…अति सुन्दर

Neeraj ने कहा…

आईने उदास हैं
जितनी बार देखता हूँ उसे
उतनी बार
दीखता है अपना ही अक्स।
कितनी छोटी हो गई है दुनिया
मैं तुममें खोजूँ खुशियाँ
तुम मुझमें
जज्ब कर दो सब विषाद।

वल्लाह , ये तो नई ही कविता बन गयी सिद्धेश्वर भाई | जो पंक्तियाँ मुझे पसंद आयीं, उन्हें जोड़ कर बना दिया | कुछ कविता - टविता लिख दी तो हफ्ते भर खुद को प्यार किया, टपाई हुई हो भले ही |

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

डॉ. सिद्धेश्वर सिंह जी!
आपने बहुत सुन्दर और सशक्त रचनाएँ लिखी है!
महिला दिवस की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
--
केशर-क्यारी को सदा, स्नेह सुधा से सींच।
पुरुष न होता उच्च है, नारि न होती नीच।।
नारि न होती नीच, पुरुष की खान यही है।
है विडम्बना फिर भी इसका मान नहीं है।।
कह ‘मयंक’ असहाय, नारि अबला-दुखियारी।
बिना स्नेह के सूख रही यह केशर-क्यारी।।

Pratibha Katiyar ने कहा…

bahut hi sundar!

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

चारों सुन्दर व सहज क्षणिकायें।