सुन रहा हूँ कि वसन्त आ गया है! आज कुछ यूँ ही लिख दिया है कविता की तरह..इस यकीन के साथ कि यदि निज व निकट के जीवन प्रसंगों में कहीं नहीं दिखता है वसन्त तो कविता में , और सिर्फ कविता में वह तो है मात्र एक स्वप्न ..एक क्षतिपूर्ति..शीत से सिहरे दिनों में उष्णता का स्पर्श भरने वाला एक अग्निहीन अलाव ..शायद..खैर
वसन्त : दो छोटी शीर्षकहीन कवितायें
०१-
तुम्हें निहारता रहा
बस यूँ ही
देर तक।
सहसा
सुनाई दी
वसन्त की धमक।
०२-
फोन पर
लरजता है वही एक स्वर
जिसे सुनता हूँ
दिन भर - रात भर।
छँट रहा है कुहासा
लुप्त हो रही है धुन्ध
इधर - उधर
उड़ - उड़ कर।
मैं कोई मौसमविज्ञानी तो नहीं
पर सुन लो -
आज के दिन
कल से ज्यादा गुनगुना होगा
धूप का असर।
13 टिप्पणियां:
दोनों बहुत बेहतरीन!
ok
khoobsurat !
बहुत सुन्दर रचना शुभकामनायें
देर तक
धमक
रात भर,
दिन भर
धूप का असर
उड़ कर
LO AA HI GAYA VASANT..SUNDAR VASANT
छँट रहा है कुहासा
लुप्त हो रही है धुन्ध...
badhiya!
मैं कविता पर टिप्पणी करना चाहता हूँ...
आकर बन्द हो जाता है मुँह !
कविताई पर बोलना चाहता हूँ ...बोल ही नहीं पाता !
बस आता हूँ..बकबका कर चला जाता हूँ ।
माफ करें !
वसन्त आ गया है!
इसका आभास भी होने लगा है!
सही है !
vasant aagman ka ahsaas hi kafi hota hai.
!?
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मुझको बता दो -
"नवसुर में कोयल गाता है - मीठा-मीठा-मीठा! "
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संपादक : सरस पायस
इन कविताओं का असर गुनगुनी धूप की तरह हो रहा है ।बधाई ।
"!"
बहुत ख़ुशी हुई थी -
पहली कविता पढ़कर!
खिल उठे थे कई फूल -
मन में!
"?"
फिर विस्मय के साथ
तैरने लगा था मस्तिष्क में एक प्रश्न -
आप इतनी मनभावन कविता
कैसे रच लेते हैं?
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